परम आत्मीय स्वजन,
ओ बी ओ लाइव तरही मुशायरे के 111वें अंक में आपका हार्दिक स्वागत है| इस बार का मिसरा -ए-तरह जनाब अनवर शऊर साहब की ग़ज़ल से लिया गया है|
"मुझे भी ये गुमाँ इक तजरबा होने से पहले था "
1222 1222 1222 1222
मुफाईलुन मुफाईलुन मुफाईलुन मुफाईलुन
(बह्र: बहरे हजज़ मुसम्मन सालिम )
मुशायरे की अवधि केवल दो दिन है | मुशायरे की शुरुआत दिनाकं 27 सितंबर दिन शुक्रवार को हो जाएगी और दिनांक 28 सितंबर दिन शनिवार समाप्त होते ही मुशायरे का समापन कर दिया जायेगा.
नियम एवं शर्तें:-
विशेष अनुरोध:-
सदस्यों से विशेष अनुरोध है कि ग़ज़लों में बार बार संशोधन की गुजारिश न करें | ग़ज़ल को पोस्ट करते समय अच्छी तरह से पढ़कर टंकण की त्रुटियां अवश्य दूर कर लें | मुशायरे के दौरान होने वाली चर्चा में आये सुझावों को एक जगह नोट करते रहें और संकलन आ जाने पर किसी भी समय संशोधन का अनुरोध प्रस्तुत करें |
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मंच संचालक
राणा प्रताप सिंह
(सदस्य प्रबंधन समूह)
ओपन बुक्स ऑनलाइन डॉट कॉम
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Nilesh shevgaonkar ji ग़ज़ल तक आने के लिए बहुत बहुत शुक्रिया
ये होना जैसे शबनम के फना होने से पहले था
मेरा खोया हुआ सब कुछ तेरा होने से पहले था
किसी के ज़ेहन में गोते लगाता था यूँ ही बरबस
नया हर सच किताबों में लिखा होने से पहले था
हर इक लम्हा बदलता है तवाजुन जिस को कहते हैं
मेरा क्या था जो मुझ से यूँ जुदा होने से पहले था
ये दुनिया खूबसूरत सी यूँ ही चलती रहेगी क्या
ख़्याल ऐसा तो इक तूफाँ बपा होने से पहले था
हर इक कमरे में धूप आती थी उस घर में, पुराना था
मकां में था बहुत कुछ पर नया होने से पहले था
खिले हैं फूल जो बागों में आए हैं कहीं से और
न जाने किस का था वह जो मेरा होने से पहले था
बदल जाएगी यह दुनिया बदल जाएंगे फिकरो ख़्वाब
हवा रोके थी,जाने क्या खला होने से पहले था
वही दुनिया है और हैं वही रिश्ते जो पहले थे
किसी अख़बार में पर कुछ छपा होने से पहले था
जहाँ पर आग लगती है वहीं उठता धुआँ भी हो
मुझे भी यह गुमां इक तजरुबा होने से पहले था
तुम्हें जो बरतरी पर नाज़ है अपनी सभी नू पर
न जाने कितनी नस्लों के फना होने से पहले था।
मौलिक एवं अप्रकाशित
आदरणीय तनवर साहब बहुत अच्छी गजल हुई दिल से बधाई
जनाब तन्वीर साहिब आदाब,बहुत अर्से बाद ओबीओ के मुशायरे में आपकी शिर्कत हुई,ये देख कर बहुत ख़ुश हूँ ।
तरही मिसरे पर ग़ज़ल का अच्छा प्रयास हुआ है,बधाई स्वीकार करें ।
मतले के दोनों मिसरों में मुझे रब्त नहीं लगा ।
'ये दुनिया खूबसूरत सी यूँ ही चलती रहेगी क्या
ख़्याल ऐसा तो इक तूफाँ बपा होने से पहले था'
'हर इक कमरे में धूप आती थी उस घर में, पुराना था
मकां में था बहुत कुछ पर नया होने से पहले था'
इन अशआर में तक़ाबुल-ए-रदीफ़ का ऐब है,देखियेगा ।
'बदल जाएगी यह दुनिया बदल जाएंगे फिकरो ख़्वाब'
आपने इस मिसरे में एक रुक्न बढ़ाया है,आपकी जानकारी के लिए बता दूँ कि बह्र-ए-हजज़ में इस छूट की इजाज़त नहीं है ।
'वही दुनिया है और हैं वही रिश्ते जो पहले थे'
ये मिसरा बह्र से ख़ारिज है,देखियेगा ।
मोहतरम तनवीर साहब बहुत बहुत मुबारकबाद पेशकश की ।
बहुत सुंदर सुहाना दिल जुदा होने से पहले था
कहाँ अब साथ रिश्ता जो खुदा होने से पहले था
नहीं सोची हकीकत जो कभी तुझ को बता सकते,
बताता है कहाँ दिल में तेरा होने से पहले था
मिलेंगी उस तरह की जिस तरह सोची ये राहें थी,
“मुझे भी ये गुमाँ इक तजरबा होने से पहले था”
नहीं थी बात उस में जो नज़र आई हमें थी क्यूँ,
चुराया जिस तरह दिल हादसा होने से पहले था
सुना है बात उसकी जिन्दगी में रंग भर देती,
मगर ये राज़ क्यूँ उसका फना होने से पहले था
"मौलिक व अप्रकाशित"
जनाब मोहन बेगोवाल जी आदाब,तरही मिसरे पर ग़ज़ल का अच्छा प्रयास है,बधाई स्वीकार करें ।
आदरणीय मोहन बेगोवाल जी बहुत बहुत बधाई स्वीकार किजिए उम्दा ग़ज़ल के लिए सादर ।
आदरनीय समर कबीर जी , आप जी ने मेरी कोशिश के बारे अपने विचार दे कर उत्साह भरा , बहुत बहुत शुक्रिया , काम कि वजह से लेट हो गया और न ही बाकी ग़जलें पढ़ सका , अब पढ़ रहा हो और इनको समझने को कोशिश कर रहा हूँ
आदरनीय आसिफ भाई जी , बहुत बहुत शुक्रिया
"ओ बी ओ लाइव तरही मुशायरा" अंक-111 को सफ़ल बनाने के लिए सभी ग़ज़लकारों और पाठकों का हार्दिक आभार व धन्यवाद ।
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