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(1). सुश्री कांता रॉय जी 
बदलती तस्वीर
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बेटे ने पिता के हाथ से बैग झटके से छीन दूर फेंक दिया ।
" कहीं नहीं जाना है ! "
" मुझे रोकेगा ? तेरी इतनी हिम्मत ! "
" हिम्मत तो बहुत है , कहिये तो दिखाता हूँ ? "
" गया जी जा रहा हूँ ,धर्म -कर्म करने , क्या तू मुझे अब धर्म करने से भी रोकेगा ? "
" धर्म -करम... ! .... हुंह ! ....... आप वसीयत बदलने के फ़िराक में हो , मैं सब जानता हूँ , धर्म -करम गया अब तेल लेने "
" कैसे रोकेगा बता ? " भृकुटि तान ली उन्होंने .
" ऐसे ! " झपट कर उसने पिता की गर्दन दबोच ली ।
"अब से इस कमरे के बाहर जो कदम भी रखे तो .....ये देख रहे हैं मिटटी के तेल से भरा हुआ कुप्पा ..... ! " सुनते ही बूढ़े के पूरे शरीर में झुरझुरी सी दौड़ गयी।
जब से घर - जायदाद इस निकम्मे के नाम किया है , लगता है जैसे खुद को मारने का लाईसेंस दे दिया है ।
अब वसीयत बदलना क्या आसान होगा ...... ! इसी मनहूस लम्हें के लिए यह पूत पैदा किया था , सोचता हुआ क्रोध को धैर्य के नाम पर पी गया ।
बाहर गाड़ी रूकने की आवाज़ से उसके कान खड़े हो गये ,
" कहाँ है तेरा बाप , जरा सामने बुला कर तो ला " धम्म से कुछ लोग बाहर दरवाजे से अन्दर आये ।
जानी -पहचानी आवाज सुन वह कमरे से निकला , " मोs.....! " अपनी आँखों पर एक बार तो भरोसा ही नहीं हुआ ।
" मोहरसिंह .... अरे मोहरा तू ! " लंगोटिया यार को सामने पा वह हुलस कर गले लग गया । बचपन की बहुत सारी बातें याद आई ।
कसाई बने बेटे के चेहरे पर पल -भर में कई रंग आये और गये । उसके चेहरे पर छाई कठोरता , अब मुलायम सी हो गई ।
सदाचार और शिष्टाचार नें अपना रूप पैरों पर झुक कर दिखाया ।
"इधर कैसे ........ ? इतने सालों बाद खबर - सुधि लेने आया " बुढा चकित था वर्षों बाद इस तरह उसके आने से ।
मोहरसिंह की जागिरी किसी से छिपी नहीं थी । दो लट्ठबाज हमेशा उसके साथ ही रहते थे ।
वहीं कोने में पास खड़ा बेटा पिटारी के साँप सा सिकुड़ा - सिकुड़ा ..... पिता की आज्ञा पाने के लिए तत्पर श्रवणकुमार बन हाथ जोड़े खड़ा था ।
" यहीं पास में भटठे पर आया था तो किसी ने तेरे हालातों के बारे में बताया तो..............! तू कहे तो इनमें से एक को तेरी सेवा में छोड़ जाऊं "
" क्यों छोड़ जाएगा , निपूता थोड़े हूँ जो मेरा देख-भाल करने के लिए तू अपना आदमी छोड़ जाएगा " बुड्ढा छाती फुला कर ....अपने अंश , अपने पौरुष अपने जवान बेटे को नज़र उठा कर देखते हुए बोला ।
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(2). सुश्री नयना (आरती) कानिटकर जी 
टी.आर.पी

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"ये देखो सिद्धार्थ! चारो ओर सूखे की मार, प्यासी धरती, घरो में खाली बर्तन, बिन नहाये गंदले से बच्चे ये तस्वीरे देखो....

अरे ,कहाँ गए ! ये सब किसकी तस्वीर ले रहे हो तुम ....! "
घुटनो तक साड़ी चढाए खुदाई करती मज़दूरन की, तो कही स्तनपात कराती आदिवासी खेतिहर मज़दूर, तो कही उघाडी पीठ के साथ रोटी थेपती महिला की ...कैमरा हटाओ ! " 
यह सब थोडे ही ना हमे कवरेज करना था। हमे सुखाग्रस्त ग्रामीण ठिकानों का सर्वे कर उस पर रिपोर्ट तैयार करनी है।" 
"तुमको इन सब के साथ रिपोर्ट तैयार करना होगा , वरना...!" 
“ वरना क्या सिड...? " 
"वरना मैं दूसरे चैनल वाले के साथ..." 
"तुम मर्द भी ना.....! " 
"मुझे ताना मत दो रश्मि! अगर हमने इन तस्वीरों के साथ रिपोर्ट तैयार नही की तो चैनल का टी.आर.पी कैसे ...?"
" हाँ , टी.आर.पी .......मेरे सपने तुम्हारे सपनों से ज्यादा ऊँचे है।" 
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(3). श्री सुनील वर्मा जी 
माटी के मोल

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कंधे पर टंगे बैग और हाथ में पकड़े हुए पर्चों के साथ कमल अपनी ही धुन में मस्त हुआ चौधरी साहब के ढाबे में घुसा। सामने दीवार पर उनकी माला लगी तस्वीर देखकर वह चौंक गया।
"चल भाग यहाँ से..बड़ा आया दानवीर कर्ण " उस दिन चौधरी साहब ने उसे लगभग धकियाते हुए कहा था।
" कौन है यह लड़का ? " पास ही बैठे उनके दोस्त ने जब पूछा तो चौधरी साहब ने अपनी मूँछों पर ताव देकर वापस कुर्सी पर बैठते हुए कहा "किसी संस्था में काम करता है। ससुरा कभी खून दान करने की, तो कभी आँख दान करने की कहता रहता है, और हर दूसरे दिन आ जाता है।"
अपने मजबूत हाथ से अपनी जँघा पर थाप जमाते हुए वह दोबारा कमल की तरफ देखकर बोले "वापस मुड़ कर इधर देखना भी मत.."
अपने शरीर से उनका प्रेम था ही ऐसा कि जीवित अवस्था में तो दूर, उनका वश चले तो वह मरणोपरांत भी अपने शरीर के अंग न छोड़ें। अपने शरीर के अलावा ढाबे में ही बँधे अपने ही जैसी एक मजबूत कद काठी वाले बकरे से भी उन्हें बड़ा लगाव था।
ढाबे को संभालने वाले उनके बच्चों ने कई बार उस बकरे की गरदन अपनी छुरी के नीचे लाने की कोशिश की, मगर चौधरी साहब के कथन "मेरे जीते जी इसे कोई नही छुयेगा। जब मैं मर जाऊँ तब जो चाहे सो करना।" से मानों बकरे को भी अमरत्व मिल चुका था।
जबान पर आये शब्दों का जब यथार्थ से परिचय हुआ तो अकस्मात ही चौधरी साहब ह्दयाघात की वजह से चल बसे। मोह का धागा टूटते ही बच्चों ने बकरे के प्राण भी शरीर से अलग कर दिये।
इधर ढाबे के बाहर लटके हुए मृत बकरे के अंग ग्राहक रिझा रहे थे, उधर तस्वीर में राख हो चुके बेशकीमती अंग कमल को चिढा रहे थे।
गहरी साँस छोड़ते हुए अतीत से बाहर आकर, कमल ने हाथ में पकड़ा हुआ 'अंगदान महादान' का पर्चा मोड़कर वापस अपने बैग में रखा और ढाबे से बाहर आ गया।
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(4). श्री पवन जैन जी 
नामर्द
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आज दिल्ली मेट्रो में मंटो से मुलाकात हो गई ।
दुआ सलाम के बाद ठंडा गोश्त अफ़साने के अदालती मसले पर मालूमात की। 
उन्होंने दिल्ली के हालात जानना चाहे। 
यहां ,यहां दिल्ली में तो जिंदा गोश्त पर तकरीरें चल रहीं है।
देख रहे हो न ,यह अवाम न जाने किस आपाधापी में लगी है।किस जिजीविषा में जिंदा है,दुनिया की स्याहियो में भी हम रज्जाई है। दिखते रहते हैं अर्धनग्न जिस्म बिना किसी शर्मो हया के ।
अभी देखो ,यह भीड़ में हलचल, कसमसाहट है, बाहर निकलने की, फँस गई है चक्रव्यूह में, चीख सुनाई दी, किसी ने चिकोटी काटी,कहाँ काटी ,क्यों काटी,किसने काटी नजरें ढूंढ नहीं पाती,सब के सब सफेदपोश जो है ।समझ नहीं आता ये जिस्म जिंदा भी है,रूह है इनमें या सिर्फ चलते, फिरते ,खाते,हगते धरती पर बोझ।इन्हें किसी माँ ने दूध पिलाया है,या सीधे चले आए हैं शैतान के साथ ।
वाह, क्या तस्वीर है,राजधानी दिल्ली की ?
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(5). सुश्री जानकी वाही जी 
मृग मरीचिका

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" हलकी धुंध में लिपटे गाँव मे बिजली के बल्ब जुगनुओं की भाँति टिमटिमा रहे हैं। घरों की चिमनी से निकलता धुआँ पेड़ों के पीछे विलीन हो रहा है।थान पर जानवर सोने की तैयारी में जुगाली कर रहे हैं।रोटी की आस में बच्चे किताब की ओट से माँ को निहार रहे हैं। बाहर बाखली में तम्बाकू की खुशबू से लिपटे मर्द दुनिया जहान की बातों में मग्न हैं।
वाह ! अपनी जादुई हाथों से अद्भुत चित्र उकेर डाला मृणाल तुमने! कितना खूबसूरत गाँव है।दिल चाहता है अभी उड़ कर वहां पहुंच जाऊँ।"
" तुम भी बहुत अच्छा वर्णन कर लेती हो नीलपर्णिका ! अब गाँव को महसूस ही कर सकते हैं । वहां जी नहीं सकते " मृणाल की आवाज़ मानो मन्दिर के गर्भ गृह से आ रही हो।
" क्यों ?" उत्सुकता ने नीलपर्णिका को उत्तेजित कर दिया।
" क्योंकि अब ये सुंदर मंज़र तस्वीरों में सिमटकर धनवान लोगों की कोठियों में सजते हैं ।"
"देखो ! मैं तुम्हें दूसरी तस्वीर दिखाता हूँ।"
" ये क्या ? कैसी तस्वीर बनाई है तुमने ? खण्डहर घर, उजड़े खेत, सूनी पगडण्डी और आसमान में जड़ी दो बूढ़ी आँखें ? कितना नीरस और जीवन विहीन है ये चित्र ? मानो इसकी आत्मा ही मर गई हो। कहाँ गए इसके सुंदर चरित्र और रंग ?"
"वे ...वे तो , मृग मरीचिका के पीछे महानगरों की सड़ाँध मारती झोपड़ पट्टियों में जीने की चाह में मरने चले गए।"
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(6). डॉo विजय शंकर जी 
तस्वीर बदलनी है 
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अपने नजदीकी और ख़ास कार्यकर्ताओं के गोपनीय सम्मलेन में बोलते हुए माननीय कह रहे थे , " हमें तस्वीर बदलनी है , पूरी तरह से बदलनी है। सेवा करनी है , आँख मूँद कर सेवा करनी है " .
आवासीय सम्मलेन के प्रथम सत्र के बाद भोज का आयोजन था। माननीय ने कहा , " आप लोग भोजन करें , थोड़ा आराम कर लें , उधर लॉबी और हाल में मैंने दूर-दूर से बड़ी-बड़ी तस्वीरें और पेंटिंग्स मंगवाई हैं , उन्हें देखें , एन्जॉय करें , तीन बजे हम लोग द्वितीय सत्र में पुनः सभा-कक्ष में एकत्र होंगे।"
महंगी पेंटिंग्स और बड़े बड़े चित्र देख कर लोग अचंभित थे , माननीय का नया बँगला किसी महल से कम नहीं था। तस्वीरों में अंकित चित्र भी अपनी अपनी कथा कह रहे थे। कहीं कोई शेर किसी निरीह जानवर पर झपट रहा था तो कहीं अलंकृत राजसी वैभव का चित्र चमत्कृत कर रहा था। कुछ पौराणिक चित्र भी थे। सबसे ज्यादा भीड़ कौरवों के दरबार में हुए चीर - हरण प्रसंग की विशाल पेंटिंग के सामने थी। लोग थक नहीं रहे थे उसे देख कर और भूरि भूरि प्रसंशा भी कर रहे थे , उसकी सुंदरता और सजीवता की। मध्य में माननीय की एक विशाल पेंटिंग थी जिसमें वे विशाल जन समुदाय के सम्मुख हाथ जोड़ कर खड़े थे और उनकीं आँखे मुंदी हुयी थी। जन समुदाय में निरीह, गरीब और फटे हाल जनता थी , उसे देख कर कार्य कर्ताओं को माननीय के कथन समझ में आने लगे कि आँख मूँद कर सेवा करों। स्वयं माननीय से निरीह जनता का दुःख देखा नहीं जा रहा था फिर स्वयं वे तो बहुत साधारण लोग थे। सेवा संदेश उन्हें मिल चुका था , चित्रात्मक ढंग से।
तीन बज रहे थे लोग धीरे धीरे सभा-कक्ष की ओर बढ़ने लगे।
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(7). श्री शेख़ शहज़ाद उस्मानी जी 
ज़िन्दगी के इस मोड़ पर

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कैमरा जिस तेजी से बिटिया के सुव्यवस्थित घर के कोने-कोने को दिखा रहा था, ख़ान साहब को सुखद अनुभूति होती जा रही थी। कुछ वर्षों के बाद आज अपनी प्यारी बेटी से सीधे सम्पर्क हो पाया था, वह भी स्मार्ट मोबाइल फोन पर वीडियो चैटिंग से!
"बेटी, सब ठीक तो है न, तुम्हारी सेहत ठीक है न, ज़रा नज़दीक़ तो आओ कैमरे पर!"
"अब्बू मैं हमेशा कहती हूँ न कि आप मेरी ज़रा भी फिक्र न किया करें, ख़ुदा के फ़ज़लो करम से सब बढ़िया है यहाँ!" -बेटी के इन अल्फ़ाज़ को सुनकर ख़ान साहब को कुछ पल शुकून तो मिला, लेकिन स्मार्ट फोन की स्क्रीन पर उसका मुरझाया सा चेहरा, काली सी झाइयां और बड़ी-बड़ी काली आँखों के चारों ओर के काले घेरे देखकर उन्होंने कहा- "हाँ, वह तो मैं समझ रहा हूँ। शौहर के इंतक़ाल के बाद तुम्हारे बच्चे अपना करियर बनाने बड़े शहरों में जम गए, ससुराल वालों से कोई सहारा भी नहीं तुम्हें, आख़िर कैसे अकेले ख़ुश रह रही हो तुम ?"
"अब्बू, ख़ुदा का करम है कि मुझे अनुकम्पा नियुक्ति मिल गई, बस नौकरी, ट्यूशन और घर गृहस्थी की मशरूफ़ियत में पता ही नहीं चलता कि वक़्त कैसे गुजर जाता है!" - बेटी ने बड़े ही आत्मविश्वास से कहा- " अब्बू, कुछ अपनी भी तो सुनाइयेगा, आप तो इतनी ज़ल्दी कितने बूढ़े लगने लगे हैं, लगता है..."
"नहीं बेटी, मैं तो मज़े में हूँ, माशा अल्लाह अच्छी ख़ासी पेन्शन मिल रही है। लेकिन तुम्हारी अम्मी के इंतक़ाल के बाद..."
"हाँ अब्बू, मैं समझ रही हूँ कि आपकी सही देखभाल और दिलजोई नहीं हो पा रही होगी। बेरोज़गारी की हालत में मेरे दोनों भाइयों को सही बीवियां नहीं मिल पायीं। आपकी पेन्शन का बड़ा हिस्सा उन्हीं की फ़ेमिली में लग जाता होगा!"
अपने आँसुओं को पोंछते हुए ख़ान साहब बोले- "ईमानदारी की नौकरी से जितना जो कुछ मैं कर सकता था किया, जितना अभी कर सकता हूँ, कर रहा हूँ। मुझे तो बस तुम्हारी फिक्र रहती है!"
"अब्बू, आपको तो इस बात की ख़ुशी होनी चाहिए कि आपकी लाड़ली बिटिया किसी की मोहताज नहीं है! मुसलमानी मोहल्ले में रहते हुए रिश्तेदारों व पड़ोसियों की टोका-टाकी और तंज के बावजूद अगर आप मुझे इतना पढ़ाते-लिखाते नहीं, तो मेरे आज क्या हाल होते?"
बेटी की बात सुनकर ख़ान साहब पश्चाताप के आँसुओं के साथ सिसकते हुए बोले- "हाँ, बेटी बिलकुल सही कहा तुमने, लेकिन मुझे मुआफ़ करना, तुम्हारे कॉलेज के प्रोफेसर साहब की सलाह पर तुम्हें पीएच. डी. भी करा दी होती, तुम्हें प्रोफेसर बन जाने दिया होता, तो आज तुम्हें ये क्लर्क जैसी नौकरी न करनी पड़ती!"
बिटिया भी अपने आँसुओं को नहीं थाम सकी। वह बस इतना ही कह पायी- "अब्बू लड़की हो या लड़का शादी उतना अहम मुद्दा नहीं है जितना कि उसका अपने पैरों पर खड़ा होना! शादी के चक्कर में लड़की की ज़िन्दगी का तो रुख़ ही बदल दिया जाता है!"
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(8). श्री विजय जोशी जी 
जल

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अब बूंद-बूंद उसका अस्तित्व सिमटा जा रहा था। ताल के ह्रदय पर दरारों के दर्शन हो रहे थे।वह बुजूर्गों के चेहरे से ही नहीं, मरूभूमि के भी गर्त में उतरती चली गयी। इतनी गहराइयों में कि, उसका लौटकर आना नामुमकिन हो गया। उसके न होने का असर देखिये। रिक्तता भरने के लिए बहुतों ने अपना साम्राज्य कायम कर लिया। अकाल, सूखा, भुखमरी क्या- क्या गिनाऊं ? एक बदहाल माँ की छाती में सूख चुके अमृत के लिए भी व्याकुलता बढ़ती जा रही थी। वह बूंद बादल बनकर ही लौट आये, सब असमान की ओर टकटकी लगाकर एक झलक देखने को आतुर थे।माँ की गोद में, बिलखते मासूम के पेट की आग से ताप पाकर, एक बूंद निकली तो सही, पर आंसू की। अाँखों से छलक कर, गालों तक आई। और उसे सूखने से पहले चित्रकार ने अपनी तस्वीर में कैद कर लिया।
अब उस 'तस्वीर' पर पैसों की वर्षा हो रही थी।
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(9). श्री शुभ्रांशु पाण्डेय जी 
तस्वीर आँखों की 
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शहर से बाहर सगुना मोड़ पर रविवार की एक अलसाई सुबह चाय की गुमटी में बैठा था. 
“लो, एक चाय उसे भी दे आओ पैसे मत लेना” – मैली-सी धोती और कुर्ते में बाहर् बैठे गँवई की ओर इशारा करते हुये चाय वाले ने अपने नौकर से कहा.
“कौन है ये?” - मैने पूछा
चाय वाला जबतक कुछ कहता, चाय के ग्लास को रखते हुये एक सज्जन ने फ़िकरा कसा - “इसकी बात क्या करें, भइया !.. यहाँ ये सारी जमीन देख रहे हैं न, एक समय इसी की थी.. अब ये यहाँ बैठ के आज के हिसाब से इनके भाव लगाता रहता है.. ”
मुझे सवालिया निगाहों से उन सज्जन की ओर घूरता हुआ देख चायवाले ने कहा - “भाईसाहब, पहले तो बिल्डर ने दारु पिला-पिला के इसके इकलौते बेटे को बीमार कर मार दिया, फ़िर बीमारी के खर्चे के नाम पर औने पौने दाम में इसकी सारी ज़मीन अपने नाम करवा ली..” 
अदरक को पत्थर से कूँचते हुये चायवाले के मन का दर्द साफ झलक रहा था.
मेरी चाय खतम हो गयी थी, मैं निकलने के लिए उठ गया.
“क्या देख रहे हो बाबा?” - गुमटी से बाहर निकलते हुये मैंने उस गँवई से योंही पूछ लिया.
आँखों पर शेड बनाये हुए अपनी नज़र कहीं दूर टिकाये, बिना मेरी ओर देखे ही उसने कहा - “..आधा फ़ागुन बीत गया न.. चना और गेहूँ की फ़सलें तैयार हो गयी होंगीं..”
गाडि़यों की लम्बी कतारों और खड़ी होती ऊँची-ऊँची बिल्डिंगों के बावज़ूद मानों वो अपने खेत को लहलहाता हुआ महसूस कर रहा था.
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(10). श्री समर कबीर जी 
शिकार

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महेश रस्तोगी वैद्य पवन गोपीनाथ तिवारी से विगत चार वर्षों से अस्थमा का इलाज करवा रहे हैं । तमाम दवाइयों को आज़माने के बाद रस्तोगी जी आयुर्वेद की शरण में आए और वैद्य तिवारी जी की दावा से अभूतपूर्व लाभ भी हुआ । धीरे धीरे दोनों में आत्मीय संबंध स्थापित हो गए,यदा कदा सांसारिक सुख-दुःख भी साझा करते ।
वैद्य तिवारी जी के दवाख़ाने वाले कमरे की सामने वाली दीवार पर उनके दादा राज वैद्य शम्भूनाथ तिवारी जी की तस्वीर लगी है । यह तस्वीर रस्तोगी जी की निगाह में है । एक दिन दवाइयाँ लेने के बाद , रस्तोगी जी से रहा नहीं गया और पूछ बैठे "आज मैं देख रहा हूँ कि आपके दादा जी की तस्वीर पर प्लास्टिक की माला लटक रही है ।इसके पहले प्राकृतिक ख़ुशबूदार फूलों की माला शोभायमान रहती । प्लास्टिक की माला क्यूँ ? "
वैद्य तिवारी जी थोड़ा संभलकर - "क्या बताऊँ ! बच्चे कहते हैं प्लास्टिक की माला ही ठीक रहेगी । बार बार के ख़र्चे और माला बदलने से मुक्ति मिल जाएगी ।भाग दौड़ भरी ज़िन्दगी में यही बहतर है। सो ,मैंने भी स्वीकृति दे दी।" अब रस्तोगी जी मन ही मन विचार कर रहे थे कि वैद्य जी के दादा जी भी भागम भाग भरी ज़िन्दगी और प्लास्टिक के शिकार हो गए हैं ।
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(11). श्री कुमार गौरव जी 
सपनों की तस्वीर
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विद्यालय की चित्रकला प्रदर्शनी में चित्रों का निरीक्षण करते समय अधिकारी एक चित्र के सामने ठहर गये । विद्यालय कक्षा पांच तक का ही था उसमें ऐसा सुधड चित्र देखकर अचंभित थे सभी । चित्र एक रोटी का था जिसे देखकर लगता था एकदम अभी तवे से उतारी गई हो । बनाने वाले लडके को बुलाया गया उससे अधिकारी ने बडे प्यार से पूछा " बेटा ये चित्र आपने बनाया है । "
लडके ने हां में सर हिला दिया ।
अधिकारी की उत्सुकता बढी " क्या है ईस तस्वीर में ?"
" सपना ! मेरी थाली में भी एक दिन ऐसी रोटी होगी । " लडके ने सर झुकाए हुए जबाब दिया । अधिकारी के तो इस जबाब से होश ही उड गए उसने बच्चे को जाने का इशारा किया और कल सुबह ही प्रधानाचार्य महोदय को मध्याह्न भोजन के हिसाब के साथ अपने कार्यालय में उपस्थित होने का आदेश दिया ।
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(12). श्री मोहन बेगोवाल जी 
बदली तस्वीर
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शहर की सड़कों पे जिंदगी कुछ आम सी हो गई थी । मगर उसकी बगल में अभी भी कुछ लोग चुपचाप सहमें हुए बैठे थे, पिछले तीस वर्षों से जोगिन्द्र परिवार समेत इस शहर में आ कर रह रहा था ।
पढने के लिए इस शहर में आया था, तब यहीं का हो कि रह गया । जब के उनके बजुर्ग पार्टीशन समें बार्डर पार से यहाँ नजदीक के इक गाँव में आ कर टिक गए थे ।
वैसे जोगिन्द्र बहुत ही सुगली आदमी है, जब भी किसी से मिलता अपने खिले हुए चेहरे के साथ उनका ही हो जाता । उसका ये रूप दोस्तों को ही नहीं सभी को बहुत प्रभावित करता । किसी फंक्शन में जब कभी स्टेज संभालता,किसी को भी उसके मुकाबले में खड़े होने की हिम्मत न होती ।
मगर आज वह जिस तरह बातें कर रहा था,तो उसके दिल के किसी कौने में दंगों के दर्द की टीस साफ नजर आ रही थी । इक बार वह बाज़ार जा कि खुद पूरा मंजर देख आया था, लट लट जलती दुकानें और दुसरे कारोबार । और उसको यकीं नहीं आ रहा था कि ऐसे भी.........
“असी तीह साल पहला इथे पढ्न आए सी, ते इथे दे हो के रह गए, कदे सोच्या नहीं सी,” पर हुन लगदा ए कि की मेरे वर्गे इथे पराये हन, जिन्दा साडे नाल होइया ए” जब वह ये कह रहा था, तब उस के चेहरे से दुःख और गुस्सा दोनों झलक रहे थे, डर व सहम अभी भी नजर आ रहा था ।
दीवार पर लगी तस्वीर जिस में दसवीं कक्षा के तब के सभी साथी नजर आ रहे थे, अब उसे तस्वीर बदली हुई लगी,जैसे उस के साथ कुछ और चेहरे इस में से गायब हो गयें हों,
“मगर, ऐसा नहीं हो सकता”,जोगिन्द्र ने ऊँची आवाज़ में कहा, सभी साथ बैठे लोग उस तरफ देखने लगे ।
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(13). सुश्री प्रतिभा पाण्डेय जी 
चौखट और तस्वीर 
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आज चारों तरफ नए राजा के राज्याभिषेक की गहमा गहमी थी I राज्य की प्रथा के अनुसार एक नई चौखट में' गुरुवर की तस्वीर 
को जड़ा जाना था I गुरुवर वो महान व्यक्ति थे जिन्होंने इस राज्य की स्थापना की थी I तब एक चित्रकार ने गुरुवर का ये भव्य चित्र बनाया था I तब से कई राजा बदले थे इस राज्य में और हर राजा अपने ढंग की नई चौखट बनवाता था इस चित्र के लिए I आज के राज्याभिषेक की नई चौखट की चर्चा हो रही थी I
"महाराज i इतनी मेहनत से ये चौखट बनाई है I इस राज्य के इतिहास की सबसे सुन्दर चौखट है ये , पर महाराज ये तस्वीर ठीक से बैठ नहीं पा रही है इसमें "Iकारीगर ने हाथ जोड़ते हुए कहा I
"अरे वैसे भी कट फट गई है Iकैसे भी करके बिठा दे Iसब लोग चौखट की चमक दमक देखते हैं जिससे नए राजा की शान का पता पड़ता है Iतस्वीर को कौन देखता है ? वैसे भी इसके ऊपर ढेरों मालाएँ होंगी "I नए राजा का युवा मंत्री बोला I
"सुनो i ये जो उगता सूरज ,खेत और खुशहाल किसान वगेहरा दिख रहे हैं ना ,इन्हें काट कर अलग कर दो " I महाराज ने आदेश दिया I
"महाराज i ये तो गुरुवर का सपना था इस राज्य के लिए ,जो चित्रकार ने उकेरा है I आप इसे .."I वृद्ध मंत्री झिझकते हुए बोले I
"सपना आप हम पर छोड़ दें Iआप बस इतना ध्यान रखें कि वो अकाल पीड़ित गाँव के लोग आकर हमारे राज्याभिषेक में व्यवधान नहीं डालें "I महाराज गुर्राए I वृद्ध मंत्री ने बेबसी में ऑंखें झुका लीं I
"महाराज i ये हिस्सा काट कर भी बात नहीं बन रही "I
"ये जो नीचे लिखे नीति वाक्य हैं ,इन्हें भी काट दो I इतने वर्षों से सुनते आ रहे हैं ,सबको याद हैं ,"I महाराज ने फिर आदेश दिया I
वृद्ध मंत्री डबडबाई आँखों को छिपाने के लिए बाहर देखने लगे जहाँ मजदूर धूप में उत्सव की तैयारी में जुटे थे I
"हाँ महाराज ,अब पूरी तरह से समां गया है चित्र चौखट में ,पर .." कारीगर फिर झिझकने लगा I 
" अब क्या हुआ ?" गुस्से में थे अब महाराज I
"महाराज i ये जो नक्काशीदार उभरे हुए कंगूरे हैं चौखट में , उनसे गुरुवर की आँखें ढक गयी हैं I"
"ये ठीक हुआ " गीली आँखों में हलकी सी मुस्कान लिए वृद्ध मंत्री बुदबुदाए I
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(14). श्री सौरभ पाण्डेय जी 
तस्वीर

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.झण्डा वहीं अनतहा पड़ा था । साथ में बड़े-बड़े आकार के कई पोस्टरनुमा क़ाग़ज़ भी पड़े थे । जिनकी गोद में कई तरह के चिलचिलाते हुए नारे पूरी धमक के साथ आ कर बैठ गये थे । गरमाये हुए ही नहीं, खूब बौखलाये हुए नारे ! डण्डा भी तो तैयार ही खड़ा था ! कि, इशारा हो और वह झण्डे को थामे हुए बाहर उछल पड़े । सभी का ताव पूरा उबाल मार रहा था । लेकिन बिना चौहद्दी कूदा-फाँदा भी जाय तो कितना ? आखिर कहाँ तक ? इन सवालों के ज़वाब न मिलने के कारण उबाल लगातार क्रोध में बदलता जा रहा था ।
’क्या तू ’दुनिया के मज़दूरो एक हो..’ को चिपकाये हुए है रे ? तू ही उछल के बता ना, तेरी इस ’दुनिया’ की औकात कितनी है ? कहाँ तक है ये ’दुनिया’ ? इस ’दुनिया’ का माने क्या ?’ 
’मैं क्यों बोलूँ ?’ - वो क़ाग़ज़ लगभग चीख पड़ा - ’क्या तू ही इस ’इक गाँव नहीं, इक देस नहीं, हम सारी दुनिया माँगेंगे’ को अपनी गोद में नहीं बैठाये हुए है ? फिर कहने को अब रहा ही क्या है ? बस समझले मेरी ’दुनिया’ की औकात !’ 
’चुप रहो तुम सब !.. ’ - झण्डा एकदम से तिलमिला गया था - ’फिर तो मेरी ज़रूरत ही क्या है रे ? एक तो अध्यक्ष का कहीं अता-पता नहीं । उस पर से तुम सब निर्बुद्धियो ! न तो तुम सबों को भाषा की समझ है, न क्रान्ति की दशा की ! ज़ाहिल-गँवार थे.. और वही रह गये हो ! कल भी ’लिखे’ हुओं-से थे, आज ’लिखे’ हुओं-से हो..’
डपट पड़ते ही सारे क़ाग़ज़ एकबारग़ी सकपका गये । नारे तो और भी दुबक-सटक कर गोद में उकड़ूँ हो गये थे ।
इतने में ही युवा अध्यक्ष और उसके तनतनाये हुए तीन-चार साथी दरवाज़े को धड़ाम से खोलते हुए अन्दर घुसे । उनमें से एक लगभग चीखता जा रहा था - ’चाहे जो हो, इनकी सभ्यता-संस्कृति की पुन्गी न बजा दी, तो मेरा भी नाम नहीं ! इसी संघीय ढाँचे का ग़ुमान है न इन सालों को ? चार साल नहीं खिंच पायेगा अब ये ढाँचा ! इंशाअल्लाह !’
’बोलना नहीं !.. ऐसे तो बोलना नहीं !..’ - आँखें तरेरते हुए अध्यक्ष झल्लाया - ’जय-जय बोलने का भाई मेरे, जय-जय बोलने का ! पिछली बार तुमने भी तो चीख मारी थी न ? देख लिया था अंज़ाम ?’
फिर उसने पॉकेट से मोड़ा हुआ क़ाग़ज़ निकाला और उनके सामने खोल दिया - ’देखो ! ये संघीय ढाँचे की नॉर्थ साइड वाली सारी क़ब्ज़ायी हुई ज़मीनों के नमूने हैं । ’आलाकमान’ ने सबको प्लॉट वाइज़ गोल-गोल घेर दिया है ! एक-एक कर सारी ’चिड़ियाँ उड़’ !.. हा हा हा..’
अध्यक्ष के ऐसे बेसाख़्ता खिलखिलाने पर एक समवेत ज़ोरदार ठहाका लगा । नारों को अपनी गोद में चिपकाये हुए शातिराना मुस्कुराहटों के साथ सभी क़ाग़ज़ भी मानो लहराने लगे !
मगर झण्डे को लगा उसकी रीढ़ जमती जा रही है । उसने डण्डे की ओर देखा । डण्डा भी उसी की ओर आँखें फाड़े देख रहा था - ’झण्डेऽऽ, तू तो गया बे ! नक़्शा गया, तो फिर तू क्या है बे ?!..’
झण्डा एकबारग़ी तो सिहर गया । लेकिन फिर गहरी आँखों से देखता हुआ बोला - ’डण्डेराम, देश क़ाग़ज़ पर बना महज़ नक़्शा नहीं होता । ये नक़्शे से कहीं अलग एक मुकम्मल तस्वीर हुआ करता है, जिसके रंग हमारे ही रंग हैं.. हमारे जिये हुए रंग..’ 
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(15). सुश्री अर्चना त्रिपाठी जी 
तस्वीर का दूसरा रुख
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" भाभी , मैं राजेश पर केस करना चाहती हूँ।"
" क्यों ?क्या हुआ हैं?"
" उसने मुझे धोखा दिया हैं, अपनी पहली पत्नी के लिए मुझे नौकरानी की तरह इस्तेमाल किया हैं।"
" तुम पहले से ही सब जानती थी ?फिर पिता की ओर से अनजाने में हुई उपेक्षा का बदला लेते लेते तुम उनकी नजरों में इतना गिर गयी की उनके लिए तुम्हारा अस्तित्व ही नहीं रहा।कहीं इसी तरह राजेश भी तुमसे दामन ना झटक ले। "
"आज औरत की तस्वीर इतनी कमजोर नहीं रही की दामन थामने वाला कोई ना मिले "
" बेटी पत्नी और माँ होने के बावजूद भी पता नहीं तुम औरत की तस्वीर के किस रुख की बात कर रही हो?"
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(16). सुश्री नीता कसार जी 
'माँ 'की तस्वीर

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चित्र प्रदर्शनी की सफलता देख मैं मन ही मन खुश हो रहा था,आशा के विपरीत बडी तादाद में लोगों का आना, तस्वीरें मंत्रमुग्ध हो निहारना, तारीफ़ों के पुल बाँधना अभिभूत कर रहा था।
कुछ तस्वीरें अभी बाकी थी । एक पर लिखवा दिया 'बिकाऊ' नही है।
मन मेरा अब उस चेहरेको ढूँढ रहा था,जो मेरे लिये जीवनदाता है,
लोग आपस में बातचीत कर रहे थे,सब तस्वीरें इतनी ख़ूबसूरत है कि अभी बोल उठेगी,पर जिस पर लिखा है बिकाऊ नही है ईतनी ख़ूबसूरत है मुहमांगी क़ीमत पर ली जा सकती है
मन में बसी तस्वीर को साक्षात सामने देख वही ठिठक गया । मन दुविधा में था यदि ना पहचाना तो ? हिम्मत करके आगे बढ़ा।
'अन्नू हूँ मैं हीरा माँ मुझे पहचाना आपने' उनके चेहरे पर मुस्कुराहट तैर गई,
"अरे आप दूर हटिये कौन ?माँ की याददाश्त कमज़ोर हो गई है " उनके साथ खड़े लड़के को अच्छा नही लगा ।
'तू ही तो याद है अन्नू तू मुझे भूला नही'
"कैसे भूलता माँ तुमने जीवन दिया,पालनहार को पल पल ढूँढा है मैंने अब मिली हो ये देखो आपकी तस्वीर", माँ के हाथ काँप रहे थे । ममता की आँखें श्रवण पाकर छलछला गई ।
"कितने रूपये की है ये तस्वीर? हीरा मां के साथ आये बेटे ने रूआबदार आवाज में कहा
हज़ारों की तस्वीर के साथ कृतज्ञता के आँसू समेत माँ के हाथों में सौंप वह बोल उठा, मेरी माँ तो यही है इन्होंने मुझे जीवन दिया है।वह फूट फूट कर रो दिया ।
ममता तो अनमोल होती है भाई ।
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(17). श्री तसदीक़ अहमद खान जी 
तस्वीर ( हसरत )
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राधा आकाश के हाथ में कुछ लड़कियों की तस्वीरें देती हुई कहती है कि भैया इनमें से किसी एक के लिए हाँ कह दो ताकि मुझे भाभी और मम्मी , पापा को बहू मिल सके , जीते जी पोता पोती को गोद में खिलाने की उनकी हसरत भी पूरी हो जाये | ..... आकाश उन तस्वीरों को फर्श पर फ़ेंक कर कहता है कि सबको मालूम है ,मैं नीला से प्यार करता हूँ मगर पापा वहां के लिए तैयार नहीं क्योंकि वह ग़रीब हैं | राधा मायूस होकर नीचे गिरी तस्वीरों को उठाने लगती है कि अचानक आकाश की नज़र नीचे पड़ी तस्वीरों में एक तस्वीर पर ठहर जाती है ,वह फ़ौरन उसे उठाकर राधा के हाथ में थमा देता है | राधा की एक नज़र तो बाहर वरांडे में बैठे मम्मी पापा की तरफ जाती है और दूसरी नज़र नीला की हाथ में रखी तस्वीर पर है जो आकाश का जवाब बिना कुछ बोले देरही थी। .........
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(18). डॉ टी आर सुकुल जी 
तस्वीर
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‘‘ हाॅं, बताओ छात्रो! कल क्या होमवर्क दिया गया था?‘‘
‘‘ सर! आपने, बलों के त्रिभुज नियम पर आधारित उदाहरण लिख कर लाने को कहा था ।‘‘
‘‘ अच्छा, राकेश ! तुमने क्या लिखा, पढ़कर बताओ?‘‘
‘‘ सर! दीवार पर टंगी तस्वीर बलों के त्रिभुज नियम के आधार पर ही संतुलित रह पाती है, दो बल रस्सियों में लगने वाले तनाव से प्रकट होते हैं और तीसरा दीवार में से अदृश्य रूप में सक्रिय रहकर इन दोनों को संतुलित कर लेता है और तस्वीर टंगी रहती है।‘‘
‘‘ सर! इसने तो पुस्तक की नकल कर ली है, मैंने इसकी व्याख्या दूसरे प्रकार से की है।‘‘
‘‘ बहुत अच्छा, विनोद! सुनाओ तुमने क्या लिखा है?‘‘
‘‘ सर! हमारे देश की तस्वीर क्रिकेट, फिल्में और राजनीति इन तीनों बलों से संतुलित रहती है जिनमें फिल्में और क्रिकेट ये दोनों बल तो लगते हुए सक्रिय दिखाई देते हैं पर तीसरा अदृश्य बल राजनीति, इन दोनों के बीच में सक्रिय रहकर संतुलन स्थापित करता रहता है।‘‘
‘‘ ? ! ! ! ! ? ‘‘
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(19). डॉ गोपाल नारायन श्रीवास्तव जी 
तस्वीर 
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हामिद जब स्कूल से आया तो उसके चेहरे पर वैसी ही ताजगी थी जैसी मेले से दादी हामिदा के लिए चिमटा लाने पर नुमायां हुई थी . हामिदा ने पूछा – ‘क्या हुआ हामिद ? आज तू बड़ा खुश है’ .
खुश होने की बात है न दादी, आज मैं स्कूल में फर्स्ट आया . तस्वीर बनाने की प्रतियोगिता में मैं अव्वल माना गया’.
‘अच्छा क्या चित्र बनाना था ?’
‘दुनिया की सबसे खूबसूरत चीज की तस्वीर बनानी थी दादी’.
‘और तूने अपनी माँ की तस्वीर बनायी होगी ? माँ से खूबसूरत दुनिया में और कोई नहीं .’
‘मेरी छोड़ दादी, स्कूल में किसी ने हीरोइन की ,किसी ने गुलाब और कमल की, किसी ने पर्वत और झरने की तस्वीर बनायी. जिसने माता-पिता की तस्वीर बनाई, उसे तीसरा पुरस्कार मिला, जिसने केवल माँ की बनाई उसे दूसरा पुरस्कार मिला –‘ऐ’-------- फिर तूने कौन सी तस्वीर बनायी ?’
‘लो खुद ही देख लो--------‘ – चूल्हा फूंकती कमजोर सी औरत थी . तस्वीर के नीचे लिखा था –‘माँ को तो मैंने कभी जाना नहीं, यह तस्वीर मेरी दादी की है’. बूढ़ी आँखों ने अब अपनी प्रतिकृति को पहचाना . बच्चे हामिद ने एक बार फिर बूढ़े हामिद का पार्ट खेल दिया था, बुढ़िया अमीना फिर से बालिका अमीना बन रोने लगी . दामन फैलाकर हामिद को दुआएं देती जाती थी और आंसू की बड़ी-बड़ी बूंदे गिराती जाती थी . इस बार भी हामिद इसका रहस्य नहीं समझ सका .
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(20). सुश्री राजेश कुमारी जी 
‘असली तस्वीर’
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“क्या कह रहे हो रोमिल ये भी कोई तरीका है पैसे बनाने का ये सच है कि मेरी भी विदेश जाकर जॉब करने की इच्छा है किन्तु मेरी अकेली माँ अपने गुजारे लायक ही करले वही बहुत फिर ये अनैतिक भी तो है क्या तुम्हारी तरफ से भी कोई इतनी मदद नहीं कर सकता ?”रूही ने कहा|
“नहीं सिर्फ यही एक तरीका है फिर कुल नौ दस महीने की बात है किसी को पता भी नहीं चलेगा मैं आता जाता रहूँगा| यहाँ पर व् घर पर बता दूँगा कि तुम्हारी नौकरी लग गई है छुट्टी पूरे एक साल बाद मिलेगी |पैसे मिलते ही हम शादी करके विदेश चले जाएँगे और तुम्हारी माँ को भी साथ ले जायेंगे सच में रूबी जिन्दगी बन जायेगी वो इतना पैसा दे रहे हैं कि तुम सपने में भी सोच नहीं सकती बस हाँ कर दो”
तिल तिल कर उस बीज को जिसके मालिक को न देखा न सुना रोपित करने में वक्त कितनी मुश्किल से गुजरा बस वही तो जानती है और फिर जब वो बीज पौधा बनकर दुनिया में आया उसकी शक्ल भी तो देखने को नहीं मिली कितना नर्स से मिन्नतें की किन्तु आर्डर नहीं है ये कह कर चुप कर दिया सिर्फ उसके नन्हे जिस्म. उसके सिर हाथ पैरों की छुवन को ही महसूस किया उसके शरीर ने उसकी दयनीय प्रार्थनामयी किलकारी ही सुन पाई थी वो |
चार दिन बाद तुम्हें डिस्चार्ज किया जाएगा पूरा पेमेंट तुम्हारे साथी को कर दिया गया है ये कहकर उसे सोने का इंजेक्शन देकर उसके प्राइवेट रूम में शिफ्ट कर दिया गया| रोमिल कही आस पास भी नजर नहीं आया| शुरू में पल पल इन्तजार किया फिर अकेले ही इतना लम्बा सफ़र कर मौन का आवरण ओढ़कर वापस आकर सबसे पहले रोमिल की कंपनी में पँहुची वहाँ उसके साथियों ने बताया कि कुछ रोज पहले वो यू.के. चला गया है वहाँ से उसकी प्रेमिका ने पैसों का व् नौकरी का सारा इंतजाम कर दिया था वो वहीँ सेटिल होने की बात कह कर गया है|
आत्मग्लानि व् क्रोध के नाग ने मानों असंख्य बार डस लिया हो उसके आँसुओं को भी अन्दर ही अन्दर लील लिया इस तरह एक जीती जागती जिंदगी पत्थर बन गई |
छन्न... छन्न..छनाक,,,की आवाज गूँजते ही माँ दौड़ कर उसके कमरे में आई और उसे हिला कर बोली “कहाँ खोई है क्या हो गया मेरी बच्ची जब से आई है कुछ बोलती भी नहीं रोमिल भी फोन नहीं उठा रहा क्या हो गया तुझे क्या तुम दोनों के बीच कोई झगड़ा हुआ है क्या? तुम दोनों की शादी के दिन भी नजदीक आ रहे हैं मेरा दिल घबरा रहा है बेटी,
कितना तूफ़ान है बाहर अरे ये देखो हवा से तुम्हारे रोमिल की तस्वीर भी गिरकर टूट गई ये भी नहीं देख रही हो क्या”?
“अच्छा हुआ टूट गई कचरे में फेंक दो माँ, तपाक से कहते हुए रूही अपना पर्स उठाकर चुन्नी ओढ़कर बाहर जाने लगी तो माँ ने पूछा “अब इस तूफ़ान में कहाँ जा रही हो”? “
“इससे बड़ा तूफ़ान तो मेरी जिंदगी में आ चुका है माँ पुलिस स्टेशन जा रही हूँ इसकी असली तस्वीर का टूटना बहुत जरूरी है” जमींन पर पड़ी रोमिल की टूटी हुई तस्वीर को घ्रणात्मक नजरों से देखते हुए रूही तेजी से बाहर निकल गई| 
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(21). श्री तेजवीर सिंह जी 
धुली हुई कमीज़ 
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"सुनिये राजीव जी”
राजीव ने मुड कर देखा, क्लास की सबसे खूबसूरत लडकी मृदुला उसे आवाज़ दे रही थी! वह गॉव का सीधा सादा किसान का बेटा! किसी भी स्तर पर मृदुला की समानता नहीं कर सकता था!
घबराते हुए बोला,"जी कहिये"!
"मुझे आपकी मदद चाहिये"!
राजीव पुनः असमंजस में कि वह तो पढाई में भी औसत है , यह खुद प्रथम श्रेणी की छात्रा है, रुपये पैसे के मामले में भी, वह कहीं नहीं टिकता, फ़िर इसे कैसी मदद की जरूरत पड गई!
उसने संकोच करते हुए पूछा," क्या मुझ जैसा अदना व्यक्ति भी किसी के काम आ सकता है "!
"मुझे आपकी शर्ट चाहिये, कॉलेज के वार्षिक रंगारंग कार्य क्रम में हम लडकियां एक नाटक कर रहे हैं,मुझे लडके का रोल मिला है "!
"ओह, जी अवश्य"!
इतना कह कर राजीव हॉस्टल आगया! अब एक नयी परेशानी थी कि कौन सी शर्ट दे! उसके पास तो कोई ढंग की शर्ट थी भी नहीं थी! अचानक उसकी नज़र रूम मेट की मेज पर पडी नयी शर्ट के पैकिट पर गयी! राजीव ने बिना कुछ सोचे समझे वह शर्ट मृदुला को दे दी!
रूम मेट उस शर्ट को खोजता रहा! उसे एक शादी में जाना था ! राजीव से भी पूछा! राजीव ने अनभिज्ञता जताई !
कार्य क्रम के बाद मृदुला ने वह शर्ट धुलवा कर राजीव को लौटा दी!
रूम मेट ने खोई हुई शर्ट टेबल पर देखी तो बडा खुश हुआ!मगर उसकी समझ में नहीं आरहा था कि नयी शर्ट बिना इस्तैमाल किए किसी ने धो क्यों दी !
उसी शाम रूम मेट ने कालेज के सूचना पट पर कालेज के वार्षिक रंगारंग कार्य क्रम की तस्वीरें देखी तो वह मुस्करा कर रह गया!
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(22). श्री सतविन्द्र कुमार जी 
कमाल

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मित्र की तरफ से चित्र सन्देश आया।साथ ही एक चुनौती भी।
"इस चित्र में कमाल ढूँढो।एक चुनौती तुम्हारे लिए।"
चुनौती पढ़ते ही दिमाग की घण्टी बजी और इसे अपनी शान पर ले बैठा। चित्र को बड़ा कर देखने लगा।किसी व्यक्ति द्वारा लिया स्वचित्र (सेल्फ़ी) थी। किसी स्थानीय बस के अंदर का हाल।एक दूसरे में फंसे अटे खड़े स्वार।गोदी में बमुश्किल बच्चे को सम्भालती महिला।पसीने से तर बतर बिलखता बच्चा।थोड़ा और ज़ूम किया तो झुक कर सीट को पकड़े खड़ी बूढ़ी महिला।सीट पर बैठे खिलखिलाते युवा। सीसे से झांकती ख़स्ता हाल सड़क। चित्र बड़ी ख़ूबसूरती से लिया गया।पर कमाल जैसा प्रतीत नहीं हुआ। थोड़ा और वर्द्धित किया चित्र तो धुंधला सा गया।पर खिड़की के बाहर से एक बड़ा बैनर नज़र आया।जिस पर मंत्री जी की आगे कदम बढ़ाते हुए सादगी में मुस्कराते हुए तस्वीर नज़र आई और उनके आगे बढ़े दाएँ पैर के पास लिखा वाक्य:
"अभी तो हुआ है एक साल,देखो किया कितना कमाल।"
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(23). श्री चंद्रेश कुमार छ्तलानी जी 
"मानव-मूल्य"

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वह चित्रकार अपनी सर्वश्रेष्ठ कृति को निहार रहा था| चित्र में गांधी जी के बंदरों को विकासवाद के सिद्दांत के अनुसार बढ़ते क्रम में मानव बनाकर दिखाया गया था|


उसके एक मित्र ने कक्ष में प्रवेश किया और चित्रकार को उस चित्र को निहारते देख उत्सुकता से पूछा, "यह क्या बनाया है?"

चित्रकार ने मित्र का मुस्कुरा कर स्वागत किया फिर ठंडे, गर्वमिश्रित और दार्शनिक स्वर में उत्तर दिया, "इस तस्वीर में ये तीनों प्रकृति के साथ विकास करते हुए बंदर से इंसान बन गये हैं, अब इनमें इंसानों जैसी बुद्धि आ गयी है| ‘कहाँ’ चुप रहना है, ‘क्या’ नहीं सुनना है और ‘क्या’ नहीं देखना है, यह समझ आ गयी है| 'अच्छाई और बुराई की परख' - पूर्वज बंदरों को ‘इस अदरक’ का स्वाद कहाँ मालूम था?"
आँखें बंद कर कहते हुए चित्रकार की आवाज़ में बात के अंत तक दार्शनिकता और बढ़ गयी थी|


"ओह! लेकिन तस्वीर में इन इंसानों की जेब कहाँ है?" मित्र की आवाज़ में आत्मविश्वास था|

चित्रकार हौले से चौंका, थोड़ी सी गर्दन घुमा कर अपने मित्र की तरफ देखा और पूछा, "क्यों...? जेब किसलिए?"

मित्र ने उत्तर दिया,
"ये केवल तभी बुरा नहीं देखेंगे, बुरा नहीं कहेंगे और बुरा नहीं सुनेगे जब इनकी जेबें भरी रहेंगी| इंसान हैं बंदर नहीं..."

 

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(24). सुश्री बबिता चौबे जी 
कलम का दर्द

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"अरे !अरे !आप रो रही हो क्यों ?आप नही रो सकती ।शब्दों ने कलम से कहा।"
अश्रु पोछते हुए कलम ने झूठी मुस्कान् लाते हुये कहा -'बस यूँ ही आँखे भर आई थी आओ आओ बैठो कहो कैसे आये।"
"आये से क्या बहन ,हम तो तुम से ही है गर ..तुम नही तो हम क्या, पर हुआ क्या ..आज क्यों दुखी हुई आप"
हूँ लंबी श्वास भरते हुए कलम ने कहा "आज मेरी स्याही से मेरे द्वारा देश के दो टुकड़े लिखे गए है।आज मेरे देश का एक अंग कट गया।
जिस कलम ने कई ग्रंथो को लिखकर समरसता का सन्देश दिया आज कलंकित हो गई न।"
"नई नई बहन आप कलंकित नई हुई इसे चलाने वाला अब हर कोई तो रामायण नही रच सकता न अमृत तो देवों के संग राहु ने भी पिया था पर.....
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(25). सुश्री नीता सैनी जी 
सास की तस्वीर

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'' लड़का तो बहुत अच्छा है। बड़ा ही सुशील दिख रहा है। मुझे तो उसकी मां की तस्वीर देखनी है।'' लड़की की मां सुनीता ने आसपास बैठे घर के लोगों से कहा।
'' दिखाती हूं। लेकिन क्यों, मां जी, आप लड़के की मां को क्यों देखना चाहती हैं?'' बहू ने रहस्यमयी सवाल किया।
'' बस ऐसे ही। दिखा तो।''
बहू ने मंद -मंद मुस्कराते हुए वॉट्सएप पर तस्वीर दिखाते हुए कहा, '' मेरी प्यारी ननद रेनू की होने वाली सास बिलकुल गऊ हैं न, मां जी, एकदम आपकी तरह।''
यह सुनकर सुनीता के पति ठठा कर हंसे और बोले, '' बहू, तुमने बिलकुल सच कहा। जोड़ी बहुत अच्छी मिल रही है। लेकिन चिंता की कोई बात नहीं। जैसे इधर तुम सब कुछ ठीक कर लेती हो, उसी तरह अपनी रेनू भी दाल नहीं गलने देगी।''
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(26). सुश्री शशि बांसल जी 
प्रसव पीड़ा 
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सुखिया कभी गुदड़ी के इस ओर करवट लेती,कभी उस ओर।कभी छितरा चुकी रुई के लिहाफ़ में दुबक जाती ।ब्याह के पुरे दस बरस बाद ये प्रथम अवसर था ,जब उसे कड़कड़ाती ठण्ड में ये 'शाही बिछौना' मिला था ,वरना तो पूरी सर्दी बेचारी एक फ़टी चटाई और चादर के सहारे गुजार देती ।वो तो कहो कि, आज पड़ौस के रामु काका अपने बेटे की बारात में उसके पति और पुत्र दोनों को जबरदस्ती साथ ले गए , और सुखिया के भाग जाग गए।वह भी इस आनंद को पूरी तरह जीना चाहती थी, सो एक पल भी गवाएं बिना गर्म बिछौने में घुस गई ।
रात्रि का प्रथम प्रहर रहा होगा , कुंकू.. कुंकू...की करुण आवाजों ने स्वर्गीय आनंद में बाधा डाल दी।उसे मुहल्ले में घुमती वह कुतिया याद आ गई ,जो पेट से थी, समझते देर न लगी कि उसने बच्चे तो दे दिए हैं,परंतु अब उन्हें सर्दी से बचाने में असमर्थ है ।सहसा उसे वह रात याद आ गई जब वह स्वयं प्रसूता थी और उस दिन भी इतना ही कड़क जाड़ा था , यदि दाई ने उसके और बच्चे के लिए गर्म कपड़े का प्रबन्ध न किया होता तो शायद आज वह निपूती होती ।असमंजस और खीज़ दोनों उस पर काबिज़ हो चुके थे ।नींद भी कोसों दूर जा चुकी थी , आवाज़ें थीं कि ,एन भीतर दस्तक रूपी चोटें दे रही थीं ।वह बड़बड़ाती हुई झटके से उठी , "अब तनिक बर्दाश्त नहीं कर सकती...मुई कुतिया को भी आज की रात ही मिली थी काली करने को..."
और सच्ची अब करुण आवाज़ें बंद हो गई थीं, और सुखिया ? वह रोज़ वाली चटाई पर इस तरह बेसुध सो रही थी, जैसे बच्चे कुतिया ने नहीं , उसने जने हों ।
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(27). श्री राजेन्द्र गौड़ जी 
तस्वीर
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"कमल, बेटा क्या बात हैं, बहुत उद्गीन लग रहे हो । तुम्हारी अम्मा कह रही थी दो तीन दिन से बहुत देर - देर तक जाग रहे हो ।"
"नही पापा कुछ नही , बस कुछ पढ़ाई कर रहा था ।"
"अरे पढ़ाई ? अभी तो तुम्हारे सभी प्रतियोगिताओ के पेपर ख़त्म हुए हैं ; अब कौन सी पढ़ाई कर रहे हो ।"
"पापा वे नये संस्था खुली हैं ना अपनी कॉलोनी में , उन्होने ही एक वाद विवाद प्रतियोगिता आयोजित की हैं "देश की स्थिति " उसी की तैयारी में लगा हूँ ; किंतु एक छोर पकड़ता हूँ तो दुसरी ओर कुछ छूट जाता हैं ।"
"बेटा देश की तस्वीर ही ऐसी हैं, अजब -गज़ब रंग , एक वर्ग खुश तो दूसरा नाराज़ ! "
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(28). योगराज प्रभाकर 
खंडहर 
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पहाड़ी पार करते ही सेनापति ने सेना को हाथ के इशारे से रुकने का आदेश दियाI फिर अपना घोडा राजा के पास रोककर, सामने की तरफ इशारा करते हुए उत्साह भरे स्वर में कहा: 
"वो देखिए राजन हमारी मंजिल! हम भारत पहुँच गए हैI"
सामने का दृश्य देख राजा के चेहरे पर आश्चर्य और अविश्वास के मिश्रित भाव भाव उभर आएI 
"क्या सचमुच यह वही भारत है जहाँ हम पहले भी आए थे सेनापति?" 
"जी हाँ महाराज! यह वही भारत है, हम इसके चप्पे चप्पे से वाकिफ हैंI"
"लेकिन भारत देश तो बहुत विशाल हुआ करता था, हम किसी गलत जगह तो नहीं आ गए?"
"नहीं नहीं महाराज! हम बिलकुल सही जगह आए हैं, यह देश भारत ही है!" 
"हर तरफ खून खराबा, गरीबी और ये भूखी बस्तियाँ, नहीं नहीं! ये तो हरगिज़ भारत की पहचान नहीं थीI"
"वो देखिए भारत की पहचानI पीपल और देवदार के विशाल और शानदार वृक्षI"
हरे भरे वृक्षों की कतारों को गौर से देखते हुए राजा ने पूछा: 
"मगर इनकी हर शाख पर सोने की चिड़िया की जगह सिर्फ उल्लू ही क्यों दिखाई दे रहे हैं?" 
यह सुनकर सेनापति अचकचाया, प्रश्न अनसुना करते हुए दूसरी तरफ उँगली का इशारा करते हुए बोला: 
"उधर देखिए महाराज! हर तरफ वही भव्य मंदिर, गिरजे और मस्जिदेंI" 
"इन धर्म स्थानों से तो ईश्वरीय वाणी सुनाई दिया करती थी, मगर अब ये नफरत का ज़हर क्यों उगल रहे हैं?"
"समय का फेर है महाराज! लेकिन आप विश्वास करें यह भारत ही हैI" सेनापति ने पुन: आश्वस्त करने का प्रयास कियाI 
"अगर यह भारत है, तो अब तक हमें रोकने के लिए कोई पोरस आगे क्यों नहीं आया?" 
"क्योंकि दुर्भाग्य से अब यहाँ पोरस पैदा नहीं होते, सिर्फ आम्भी जैसे गद्दार ही पाए जाते हैं महान सिकन्दर!"
यह सुनते ही सिकंदर की आँखें सजल हो गईं, चेहरे का तेज़ जैसे अचानक मद्धम सा पड़ गयाI 
"फ़ौज को वापिस यूनान लौटने का हुक्म दिया जाए सेनापति सेल्यूकसI"
"मगर भारत को लूटने के मंसूबे का क्या होगा?" ऐसा अप्रत्याशित आदेश सुनकर सेनापति चौंकाI 
सिकंदर ने भारत की तरफ देखकर एक ठंडी आह भरी और बुझे से स्वर में उत्तर दिया:
"जो देश अपनों के हाथों पहले ही लुट पिट चुका हो, उसे हम क्या लूटेंगे?"
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(29). श्री गणेश बागी जी 
तस्वी
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बाबूजी ने बेटे को बहुत ही लाड प्यार से पाला था किन्तु पता नहीं उनकी परवरिश में क्या कमी रह गयी थी कि बेटा धीरे-धीरे अपराध की दुनिया की ओर बढ़ने लगा और लाख समझाने के बावजूद भी बाबूजी उसे संभाल न सके.
आज दीवार पर लगी अपनी ही बड़ी सी तस्वीर को देख वह पिता से पूछ बैठा....
“बाबूजी यह दीवार पर आपने मेरी तस्वीर क्यों लगवा दी है ?”
“बस ऐसे ही बेटे, हाँ रात को बाज़ार से लौटते वक्त एक कृत्रिम फूलों की माला लेते आना”
“वो किस लिए बाबूजी ?”
“बेटा जिस मौत के रास्ते पर आजकल तुम्हारें पाँव चल रहे हैं संभव है कि शीघ्र ही उस माला की जरुरत आन पड़े”
बेटा बगैर कुछ बोले घर से निकल गया और शाम को अपेक्षाकृत शीघ्र घर लौट आया.
“बाबूजी यह लीजिये ताजे फूलों की माला और भगवान की तस्वीर पर चढ़ा दीजिये. मैं आपसे वादा करता हूँ कि कृत्रिम फूलों की माला की आवश्यकता अब आप को नहीं पड़ेगी”
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(30). श्री ओमप्रकाश क्षत्रिय जी 
फायदा 
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अमेरिका से छोटे बेटे का वीडियोकाल आते ही अरुण की रुलाई फुट पड़ी. मानो कह रहे हो कि बेटा बैंक का कर्ज तो सह लूँगा यह शारीरिक, मानसिक दर्द सहा नहीं जाता है. उन के चहरे पर खींची दर्द की लकीर को उस ने देख लिया था.
“ पापा ! रो रहे हो ?” विकास ने कहा तो अरुण ने पानी भरे पेट से हाथ हटा लिया, “ नहीं विकास. यह तो ख़ुशी के आंसू है.”
कुछ देर दोनों एकदूसरे के दर्द को महसूस करते रहे, “ तेरी अमेरिका में इंजीनियरिंग की सर्विस लग गई हैं, बड़ी ख़ुशी हुई, ” वे बड़ी मुश्किल से बोल पाए थे. वे कैसे बताते की बेटा तेरे जाने के इंतजाम में इतना कर्ज हो गया कि उस कर्ज के बोझ और तेरी याद भुलाने के लिए दारू का सहारा लेना पड़ा. फिर कब पीलिया हुआ मालूम ही नहीं पड़ा. इस पीलिए ने लीवर बिगाड़ दिया. लीवर ने किडनी ख़राब कर दी.
इस के बाद वे दर्द से बोल नहीं पाए.
“ ले ! निकुंज से बात कर,” कहते हुए मोबाइल निकुंज को दे दिया. फिर बिस्तर पर उलटे गिर कर दर्द से छटपटाते हुए रोने लगे, “ हे भगवान ! अब दर्द सहा नहीं जाता. उठा ले.”
निकुंज पापा का दर्द से छटपटाते हुए देख नहीं पाया. मोबाइल को पिता की तरफ कर दिया ,” पापा ! रातदिन ऐसे ही तड़फते रहते हैं विकास. यह देख .”
“ डॉ ने क्या बताया है ?” अपने आंसू रोक कर विकास ने बड़ी मुश्किल से पूछा.
“ डॉ का कहना है कि लीवर और किडनी ख़राब हो चुकी है. बस ऐसे ही मशीन के सहारे जीएंगे.”
“ कब तक ?”
“ जबतक पैसे उधार मिल रहे हैं और मशीन चल रही है तब तक.” निकुंज न कहा , “ हमें तो कुछ समझ नहीं आ रहा है. तू ही बता, क्या करु ?”
“ पिताजी की अस्पताल से छुट्टी करवा लो. शायद उन्हें दर्द से मुक्ति मिल जाए. और हमें भी ...” कहते हुए विकास ने आँखों से आंसू पौछ कर मोबाइल बंद कर दिया. .
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(31). श्री वीरेन्द्र वीर मेहता जी

कला प्रेमी 


बर्बादी का सामान लिये पुलिस से बचता हुआ वो, अपने बचाव के लिये उसके घर में आ घुसा था। कमरे में लगी तस्वीरो से कोई कला प्रेमी लगने वाला वो अपाहिज शख्स अपनी बैसाखी पर खुद को संभाल पाने से पहले ही उसकी 'गन' की जद में आ चुका था।
दीवारो पर सजी तस्वीरो में देश के विभाजन की एक तस्वीर देख वो एकाएक बैचेन हो गया और अनायास ही उसका गुस्सा नफरत बन शब्दो में ढल गया। "हमें चंद टुकड़े जमीं के भीख में देने वालो, तुम्हारी बर्बादी ही हमारा मकसद है।"
"बेटा ! कितनी पीढ़ीयो तक दामन में नफरत लिये ये बर्बादी के खेल खेलते रहोगे।" अपाहिज ने उसे देखते हुए कुछ संजीदगी से कहा।
"जब तक नामोनिशां न मिटा दे तुम्हारी हस्ती का।"
"असंभव है पुत्र, यहां कदम कदम पर मां के लाल रक्षा की अलख जगाये बैठे है।"
"दो-चार दिन अलख जगाकर पूरे वर्ष सोने वालो का देश! ये बचायेंगें ?" मन की कलुषता ने अट्ठाहस शुरू कर दिया।
"निस्संदेह पुत्र, ये कृष्ण की भूमि है जहां दुश्मन प्रेम को न समझ पाये तो विंध्वस का मार्ग भी अपना लिया जाता है।" अपाहिज शख्स ने उसके पीछे लगी कृष्णा जी की तस्वीर की ओर हाथ बढ़ा इशारा करते हुए अपनी बात कही।
कहे गए शब्दों ने दुश्मन की क्रोधाग्नि को प्रज्वलित कर दिया और नफरत में पागल हो उसने पीछे पलट तस्वीर को नष्ट करने का प्रयास किया। और यही वो क्षण था, जब अपाहिज की बैसाखी ने हरकत की और दुश्मन के गन थामे बाजू पर एक जबदस्त चोट ने उसे नाकारा कर दिया।..........
बाजी पलट चुकी थी और गन अब कलाप्रेमी के हाथ में थी। दुश्मन की भयभीत आँखें अब कृष्णाजी के साथ लगी एक पुरानी तस्वीर पर जा टिकी थी जिसमे कलाप्रेमी शख्स फौजी वर्दी पर मैडल लगाये शान से खड़ा हुआ था।

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(32). श्री विनय कुमार सिंह जी

खोने का दर्द


एक बुजुर्ग को हाथ देते देखकर वो रुक गया| बाइक को खड़ा करके सवालिया नज़रों से उनको देखते हुए वो कुछ पूछने ही वाला था कि बुजुर्ग ने उससे पूछा " बेटे, कहाँ जा रहे हो, लगता है कोई इंतज़ार कर रहा है तुम्हारा "| 
उसके चेहरे पर झल्लाहट का भाव आया और एक बार उसने सोचा कि एक भद्दी सी गाली दे उनको, लेकिन अपने गुस्से को जज़्ब करते हुए वो बोल " आपको कहीं जाना है, लिफ्ट चाहिए, रोक क्यूँ लिया मुझे "!
" नहीं कहीं जाना नहीं है, लेकिन तुम इस तरह बाइक क्यूँ चला रहे हो ", बुजुर्ग ने बहुत शांत स्वर में कहा|
" अरे चाचा, क्यूँ खाली पीली दिमाग का दही कर रहे हो| तुमको क्या दिक्कत है मेरे बाइक चलाने से, अपने काम से काम रखा करो ", भुनभुनाते हुए वह बाइक स्टार्ट करने चला| 
अचानक बुजुर्ग ने बाइक के हैंडल में टंगे हेलमेट को पकड़ा और उसे उतार कर उसकी तरफ बढ़ाया| उसका हाथ एक्सेलरेटर पर रुक सा गया| 
" मेरा बेटा भी शायद तुम्हारी तरह ही जल्दी में था और हेलमेट पहनना भूल गया था| अब तुमको भी तुम्हारे माँ बाप सिर्फ तस्वीरों में नहीं देखें इसलिए इसे पहन के चलाया करो ", बोलते हुए बुजुर्ग आगे बढ़ गए और एक और बाइक सवार को हाथ देने लगे| उसने हेलमेट सर पर लगाया और बुजुर्ग को सलाम करता हुआ आगे बढ़ गया| 

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इस बार भी गोष्ठी समाप्ति के साथ ही संकलन भी प्राप्त हो गया| आपकी गति को भी नमन आदरणीय योगराज जी सर|

मैं अपनी लघुकथा में निम्न परिवर्तन चाहता हूँ:

"मानव-मूल्य"

वह चित्रकार अपनी सर्वश्रेष्ठ कृति को निहार रहा था| चित्र में गांधी जी के बंदरों को विकासवाद के सिद्दांत के अनुसार बढ़ते क्रम में मानव बनाकर दिखाया गया था|


उसके एक मित्र ने कक्ष में प्रवेश किया और चित्रकार को उस चित्र को निहारते देख उत्सुकता से पूछा, "यह क्या बनाया है?"

चित्रकार ने मित्र का मुस्कुरा कर स्वागत किया फिर ठंडे, गर्वमिश्रित और दार्शनिक स्वर में उत्तर दिया, "इस तस्वीर में ये तीनों प्रकृति के साथ विकास करते हुए बंदर से इंसान बन गये हैं, अब इनमें इंसानों जैसी बुद्धि आ गयी है| ‘कहाँ’ चुप रहना है, ‘क्या’ नहीं सुनना है और ‘क्या’ नहीं देखना है, यह समझ आ गयी है| 'अच्छाई और बुराई की परख' - पूर्वज बंदरों को ‘इस अदरक’ का स्वाद कहाँ मालूम था?"
आँखें बंद कर कहते हुए चित्रकार की आवाज़ में बात के अंत तक दार्शनिकता और बढ़ गयी थी|


"ओह! लेकिन तस्वीर में इन इंसानों की जेब कहाँ है?" मित्र की आवाज़ में आत्मविश्वास था|

चित्रकार हौले से चौंका, थोड़ी सी गर्दन घुमा कर अपने मित्र की तरफ देखा और पूछा, "क्यों...? जेब किसलिए?"

मित्र ने उत्तर दिया,
"ये केवल तभी बुरा नहीं देखेंगे, बुरा नहीं कहेंगे और बुरा नहीं सुनेगे जब इनकी जेबें भरी रहेंगी| इंसान हैं बंदर नहीं..."

32 तस्वीरों के साथ लाइव लघुकथा गोष्ठी- 12 के सफल संचालन व त्वरित संकलन प्रस्तुत करने के लिए सम्मान्य मंच संचालक महोदय श्री योगराज प्रभाकर जी को हृदयतल से बहुत बहुत बधाई और आभार। सभी सहभागी रचनाकारों को हृदयतल से बहुत बहुत बधाई।

संकलन की मै प्रतीक्षा ही कर रहा था, आदरणीय योगराजभाईजी ! जय हो !! 

आज नेट ने कमाल किया हुआ हैं, आदरणीय. मैं इत्मिनान से अब हासिल रचनाओं पर यहाँ  टिप्पणियाँ दूँगा.

आपकी लघुकथा ने खूब प्रभावित किया है, आदरणीय .

सादर

 

  आदरनीय एडमिन मैंबर जी, ये तो कमाल हो गया , गोष्ठी सम्पन होते ही , सभी लघुकथाओं का संकलन भ आ गया , इस लिए आप जी को बहुत बहुत बधाई, कृपा करके मेरी इस संशोधन की लघुकथा  को संकलन हिस्सा बनाएँ ,

  

बदली तस्वीर (लघुकथा)

 

शहर की सड़कों पे जिंदगी कुछ सामान्य सी हो गई थी । मगर उसकी बगल में अभी भी कुछ लोग चुपचाप सहमें हुए  बैठे थे, पिछले तीस वर्षों से जोगिन्द्र परिवार समेत इस शहर में आ कर रह रहा था ।

पढने के लिए इस शहर में आया था, तब यहीं का हो कि रह गया ।  जब के उनके बजुर्ग बंटवारे के दौरान बार्डर पार से यहाँ नजदीक के इक गाँव में आ कर टिक गए थे ।

वैसे जोगिन्द्र बहुत ही विनोदी आदमी है, जब भी किसी से मिलता अपने खिले हुए चेहरे के साथ उनका  ही हो जाता । उसका ये रूप दोस्तों को ही नहीं सभी को बहुत प्रभावित करता । किसी फंक्शन में जब कभी स्टेज संभालता,किसी को भी उसके मुकाबले में खड़े होने की हिम्मत न होती ।

मगर आज वह जिस तरह बातें कर रहा था,तो उसके दिल के किसी कौने में दंगों के दर्द की  टीस साफ नजर आ रही थी । इक बार वह बाज़ार जा कि खुद पूरा मंजर देख आया था, धूं धूं  जलती दुकानें और दुसरे कारोबार । और उसको यकीं नहीं आ रहा था कि ऐसा भी हो सकता है ।

हम तीस साल पहले जब इस शहर में पढने आए तो यहाँ के हो कर रह गए, ऐसा हो जायगा कभी सोचा नहीं था” मगर अब लगता है कि मेरे जैसे लोग यहाँ पराए हों गए, मगर ऐसा हो जायेगा कभी सोचा न था, जब वह ये कह रहा था, तब उस के चेहरे से दुःख और गुस्सा दोनों झलक रहे थे, और डर व सहम अभी भी नजर आ रहा था ।

दीवार पर लगी तस्वीर जिस में दसवीं कक्षा के तब के  सभी साथी  नजर आ रहे थे, अब उसे तस्वीर बदली हुई लगी,जैसे उस के साथ कुछ और चेहरे इस में से गायब हो गयें हों ।

मगर, ऐसा नहीं हो सकता”,जोगिन्द्र ने ऊँची आवाज़ में कहा, सभी साथ बैठे लोग उस तरफ देखने लगे ।

 

आदरणीय मंच संचालक महोदय श्री योगराज प्रभाकर जी, मेरी रचना को गोष्ठी के इस संकलन में स्थापित करने के लिए व मुझे प्रोत्साहित करने के लिए तहे दिल बहुत बहुत शुक्रिया। विनम्र निवेदन है कि 7 वें स्थान पर स्थापित मेरी लघु कथा में इस प्रकार के सुधार कर कृपा कीजिएगा -
[1]- दूसरे पैराग्राफ की पाँचवीं पंक्ति //साहब को कुछ पल शुकून तो मिला// में 'शुकून' के स्थान पर सही शब्द 'सुकून' प्रतिस्थापित कर दीजिएगा।
[2]- कथा के अंतिम संवाद में की पहली पंक्ति में कौमा की त्रुटि सुधार वाली पंक्ति प्रतिस्थापित कर दीजिएगा-
//"अब्बू लड़की हो या लड़का शादी उतना //=

"अब्बू, लड़की हो या लड़का, शादी उतना

आदरणीय मंच संचालक जी, आदरणीय विजय जोशी जी की रचना पूर्व प्रकाशित है, इस बाबत मैंने उनसे टिप्पणी के माध्यम से स्पष्टीकरण भी पूछा था जिसका उत्तर अप्राप्त है, मंच के नियमानुसार उनकी रचना लघुकथा गोष्ठी और संकलन दोनों स्थान से हटानी होगी.

हो सकता है, गनेस भाई, आ. विजय जोशी को अप्रकाशित का वह अर्थ मालूम न हो जिसके प्रति यह मंच आग्रही हुआ करता है. लेकिन नियमानुसार उक्त रचना को हटा ही देना होगा. 

शुभ-शुभ

आदरणीय मंच संचालक महोदय जी योगराज 'प्रभाकर' जी आप ने गोष्ठी के समापन के साथ ही संकलन प्रस्तुत कर सक्रियता को जो संदेश दिया है। अनुकरणीय है। मुझे अभीअभी ज्ञात हुआ कि आदरणीय मुख्य प्रबंधक महोदय जी Er ganesh Ji ,'Bagi' जी ने अपनी टिप्पणी के माध्यम से जानना चाहा। मैं आदरणीय सर जी द्वारा रचना के लिये की टिप्पणी के संदर्भ में निवेदन पूर्वक अपना अभिमत रखना चाहता हूं। मैने आयोजन के लिए तैयार तस्वीर की रचना को ओबीओ पर निर्देशानुसार पोस्ट की। अप्रकाशित- शब्द का अर्थ मेरी अज्ञानता या अनभिज्ञता से यह लगाया । कि किसी पत्र -पत्रिका में रचना का प्रकाशन होना माना जाता रहा है। ऐसीा कहीं प्रकाशीत नहीं हुई। किन्तु ओबीओ के नियमित पाठक लेखकों से ज्ञात हुआ है कि यह रचना किसी ग्रुप आदि में भी प्रकाशीत नहीं होना चाहिए।' । मेरी इस भूल के लिये ़क्षमा प्रार्थी हूँ। भविष्य में ऐसी गलती की पुनर्रावृति नहीं होगी। मेरी इस भूल की सजा मेरी रचना को मत दीजिए। क्योंकि लगभग तत् समय मे ही रचना कहीं अन्य जगह पोस्ट हो गई। होगी। ।
विनम्रता पुर्वक सादर आग्रह है। संकलन में रचना को स्थान मिल सके। या नियमानुसार जैसा आपका आदेश होगा। साहित्य हित में स्वीकार्य करता हूं ।
आदरणीय योगराज प्रभाकर सर जी हमेशा की तरह त्वरित गति से संकलन को लाना निस्संदेह आपकी कार्यक्षमता और कर्तव्यनिष्ठा को सहज ही दिखाता है। गोष्टी की सफलता और संकलन के लिए हमारी ओर से पूरी ओबीओ टीम सहित आप को हार्दिक बधाई। सादर स्वीकार करे। संकलन में मेरी सामान्य रचना को शामिल कर आपने मेरे उत्साह को जो बरकरार रखा है उसके लिए आप को तहे दिल से शुक्रिया आदरणीय सर जी, सादर ..../\.... प्रणाम स्वीकार करे।

आदरणीय योगराज भाई जी, ओ बी ओ लाइव  लघुकथा गोष्ठी अंक -१२ के सफ़ल आयोजन और संकलन हेतु हार्दिक बधाई! आपकी कार्य शैली , अदभुत कार्य क्षमता और लघुकथा  लेखन विधा के प्रति आपके समर्पण से हम सभी पूर्ण परिचित हैं! उसकी पुनः चर्चा करना बेमानी होगा! आपकी छत्र छाया में हम जो कुछ भी सीखे हैं या सीख रहे हैं वही आपके सम्मुख ले कर आते हैं! और हमारी सदैव यह कामना होती है कि आप हमें हमारी त्रुटियां इंगित करें! परंतु इस बार मुझे ऐसा लगा जैसे मेरी रचना, लघुकथा  गोष्ठी के मानकों पर खरी नहीं उतरी क्योंकि उस पर आपकी कोई प्रतिक्रिया या टिप्पणी नहीं आयी! हालांकि कुछ लोगों ने उसे सराहा! कुछ लोगों ने उस लघुकथा के उद्देश्य और संदेश को लेकर प्रश्न भी उठाये! यथा संभव मैंने उनका  स्पष्टीकरण भी दिया पर शायद वह किसी ने नहीं देखा! लेकिन मेरे लिये  उन सबकी राय और टिप्पणियों सेअधिक महत्व आयोजन के प्रधान संपादक की राय रखती है ,जो कि मुझे हांसिल नहीं हुई! जब हमें हमारी त्रुटि का पता नहीं चलेगा तो हम उसे सुधारेंगे कैसे! इसलिये अंत में आपसे मेरा  केवल यही निवेदन है कि मेरी लघुकथा को आयोजन की अंतिम सूची  में सम्मिलित नहीं किया जाय! क्योंकि मेरे विचार से वह इस गोष्ठी के स्तर की लघुकथा प्रतीत नहीं होती ! कुछ अनुचित लिखा गया हो तो क्षमा प्रार्थी! सादर!

एक बार फिर बहुत बहुत बधाई आ योगराज सर को जिनके अथक समर्पण का परिणाम है ये गोष्ठी| इस बार सभी रचनाएँ नहीं पढ़ पाया था, अब सभी रचनाएँ पढ़ूँगा और उनका आनंद लूंगा| 

लघुकथा गोष्ठी के कुशल संचालन के लिये आपको बहुत बहुत बधाईयां आद०योगराज प्रभाकर जी,संकलन का गोष्ठी की समाप्ति के उपरांत आ जाना ख़ुशनुमा अहसास करा गया ।हर बार की भाँति इस बार भी सीखने मिला है ।औ बी औ की टीम को बहुत बहुत बधाईयां व सादर आभार ।

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