आदरणीय लघुकथा प्रेमिओ,
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जबरदस्त तमाशा ! भाई पंकज जी क्या खूब ! बधाई भाई जी
पंकजजी लघुकथा लेखन को आत्मसात करने का आपका झनुन ही आपको ओबोओ तक ले आया है। ओबोओ मे कथा पोस्ट करने का साहस और अपनी गलतिया कबूल करने की विनम्रता आपको आपकी आगे की कथाओ मे अच्छा मार्गदर्शन देगी। लगता है आपके दिमाग मे तमाशबीन कथा का जोरदार प्लॉट था मगर समय अभाव के कारण आप उस पर पूरा समय नहीं दे पाये। ईस सुंदर प्रयास के लिए बधाई हो पंकजजी आपको।
आदरणीय पंकज जी, कथा पर सुधी जनों के दिये सुझावों पर ध्यान दें. सादर.
अच्छी लघु कथा के लिए हार्दिक बधाई आदरणीय पंकज जोशी जी यद्यपि कहानी "तमाशबीन" कि जगह "तमाशा" पर आधारित लगी क्योकि जो तमाशबीन के रूप में मीटिंग में मेंबर बैठे थे उनकी कोई भूमिका नजर नहीं आई | सादर
विषयवस्तु का चुनाव निःसंदेह बहुत ही अच्छा है आदरणीय पंकज जोशी जी सर, तमाशबीन से अलग रख कर देखें तो स्वतंत्र रूप से बहुत अच्छी रचना हुई है, सादर बधाई स्वीकार करें| एम्.डी. साहब के व्हाट्सएप्प पर वीडियो फ़्लैश होने के स्थान पर वीडियो का पहले ही फ़ोन में रखा होना अधिक उचित लग रहा है, क्योंकि रचना के अनुसार एम.डी. साहब बोर्ड की मीटिंग के पहले ही सब कुछ जानते थे (आइडियल परिस्थिति के अनुसार)| हालाँकि इस गोष्ठी में आपकी रचना पर गुरुजनों और सुधीजनों की राय को आपने जिस विनम्रता से ग्रहण किया है वो आपको और अधिक सार्थक लेखन की तरफ मोड़ रही है| मेरी सादर शुभकामनाएं स्वीकार करें| सादर,
आदरणीय पंकज जी लघुकथा बहुत बढ़िया हुई है.
तमाशबीन
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खूब मचे हो-हल्ले के कारण वह उठ गया. बिस्तर से निकल कर वह सीधा भागता हुआ बालकनी में आया. बाहर उसे सिर्फ़ सिर ही सिर दिख रहे थे. उसके सबसे ख़ास दोस्त के बाबूजी कल रस्सी से झूल गये थे. इसबार के ओलों और लगातार होती बेमौसम की बारिश ने उसके दोस्त के बाबूजी से क्या से क्या करवा दिया था ! आज दोस्त की माँ से मिलने एक कद्दावर नेताजी आये थे.
वह कल से चुपचाप सारी गतिविधियों को देख रहा था. तभी एक चीखती हुई आवाज़ में एक नारा उठा जो आये हुए नेताजी की शान में लगा जयकारा था. उस भीड़ में शामिल कई अनचीन्हे लोगों ने पूरे जोश में उस नारे को दुहराया.
उसका दोस्त अपने से दो साल छोटी बहन के साथ अपनी माँ की गोद में चिपका हुआ बड़ी-बड़ी आँखों से सबकुछ होता हुआ देख रहा था. एक आदमी उसकी माँ को बार-बार समझा रहा था, ’मुँह खोल दे सत्तो, मुँह खोल दे, नेता जी मेहरबान हैं, पूरी थैली खोल देंगे..’
दोस्त के बाबूजी ऑफ़िस-ऑफ़िस गिड़गिड़ाते हुए जब घूम रहे थे, तब तो किसीको उनकी परवाह नहीं थी, आज आये हैं थैली का मुँह खुलवाने !
उसके कमरे की दीवार पर लटके कैलेण्डर में राष्ट्रपिता की मुस्कुराती हुई जगत-प्रसिद्ध तस्वीर थी. छत से लगे पंखे की हवा से कैलेण्डर के साथ वह तस्वीर भी बार-बार हिल रही थी.
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(मौलिक और अप्रकाशित)
आदरणीया अर्चनाजी, जैसा आपने कहा, वही होता दिख रहा है. प्रस्तुति पर आने और अपनी बातें कहने के लिए आपका सादर धन्यवाद.
प्रस्तुति निर्द्वंद्व टिप्पणी केलिए सादर धन्यवाद, आदरणीय विजयशंकर जी.
शुभ-शुभ
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