आदरणीय साहित्य प्रेमियो,
जैसाकि आप सभी को ज्ञात ही है, महा-उत्सव आयोजन दरअसल रचनाकारों, विशेषकर नव-हस्ताक्षरों, के लिए अपनी कलम की धार को और भी तीक्ष्ण करने का अवसर प्रदान करता है. इसी क्रम में प्रस्तुत है :
"ओ बी ओ लाइव महा उत्सव" अंक-175
विषय : "विश्वासघात"
आयोजन अवधि-14 जून 2025, दिन शनिवार से 15 जून 2025, दिन रविवार की समाप्ति तक अर्थात कुल दो दिन.
ध्यान रहे : बात बेशक छोटी हो लेकिन 'घाव करे गंभीर’ करने वाली हो तो पद्य- समारोह का आनन्द बहुगुणा हो जाए. आयोजन के लिए दिये विषय को केन्द्रित करते हुए आप सभी अपनी मौलिक एवं अप्रकाशित रचना पद्य-साहित्य की किसी भी विधा में स्वयं द्वारा लाइव पोस्ट कर सकते हैं. साथ ही अन्य साथियों की रचना पर लाइव टिप्पणी भी कर सकते हैं.
उदाहरण स्वरुप पद्य-साहित्य की कुछ विधाओं का नाम सूचीबद्ध किये जा रहे हैं --
तुकांत कविता, अतुकांत आधुनिक कविता, हास्य कविता, गीत-नवगीत, ग़ज़ल, नज़्म, हाइकू, सॉनेट, व्यंग्य काव्य, मुक्तक, शास्त्रीय-छंद जैसे दोहा, चौपाई, कुंडलिया, कवित्त, सवैया, हरिगीतिका आदि.
अति आवश्यक सूचना :-
रचनाओं की संख्या पर कोई बन्धन नहीं है. किन्तु, एक से अधिक रचनाएँ प्रस्तुत करनी हों तो पद्य-साहित्य की अलग अलग विधाओं अथवा अलग अलग छंदों में रचनाएँ प्रस्तुत हों.
रचना केवल स्वयं के प्रोफाइल से ही पोस्ट करें, अन्य सदस्य की रचना किसी और सदस्य द्वारा पोस्ट नहीं की जाएगी.
रचनाकारों से निवेदन है कि अपनी रचना अच्छी तरह से देवनागरी के फॉण्ट में टाइप कर लेफ्ट एलाइन, काले रंग एवं नॉन बोल्ड टेक्स्ट में ही पोस्ट करें.
रचना पोस्ट करते समय कोई भूमिका न लिखें, सीधे अपनी रचना पोस्ट करें, अंत में अपना नाम, पता, फोन नंबर, दिनांक अथवा किसी भी प्रकार के सिम्बल आदि भी न लगाएं.
प्रविष्टि के अंत में मंच के नियमानुसार केवल "मौलिक व अप्रकाशित" लिखें.
नियमों के विरुद्ध, विषय से भटकी हुई तथा अस्तरीय प्रस्तुति को बिना कोई कारण बताये तथा बिना कोई पूर्व सूचना दिए हटाया जा सकता है. यह अधिकार प्रबंधन-समिति के सदस्यों के पास सुरक्षित रहेगा, जिस पर कोई बहस नहीं की जाएगी.
सदस्यगण बार-बार संशोधन हेतु अनुरोध न करें, बल्कि उनकी रचनाओं पर प्राप्त सुझावों को भली-भाँति अध्ययन कर संकलन आने के बाद संशोधन हेतु अनुरोध करें. सदस्यगण ध्यान रखें कि रचनाओं में किन्हीं दोषों या गलतियों पर सुझावों के अनुसार संशोधन कराने को किसी सुविधा की तरह लें, न कि किसी अधिकार की तरह.
आयोजनों के वातावरण को टिप्पणियों के माध्यम से समरस बनाये रखना उचित है. लेकिन बातचीत में असंयमित तथ्य न आ पायें इसके प्रति टिप्पणीकारों से सकारात्मकता तथा संवेदनशीलता अपेक्षित है.
इस तथ्य पर ध्यान रहे कि स्माइली आदि का असंयमित अथवा अव्यावहारिक प्रयोग तथा बिना अर्थ के पोस्ट आयोजन के स्तर को हल्का करते हैं.
रचनाओं पर टिप्पणियाँ यथासंभव देवनागरी फाण्ट में ही करें. अनावश्यक रूप से स्माइली अथवा रोमन फाण्ट का उपयोग न करें. रोमन फाण्ट में टिप्पणियाँ करना, एक ऐसा रास्ता है जो अन्य कोई उपाय न रहने पर ही अपनाया जाय.
फिलहाल Reply Box बंद रहेगा जो 14 जून 2025, दिन शनिवार लगते ही खोल दिया जायेगा।
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बहुत खूब आदरणीय, हृदयस्पर्शी रचना ! हाल ही वह घटना मुझे याद आ गयी, सटीक शब्दों में मन को झकझोर देने वाली प्रस्तुति !
आभार रक्षितासिंह जी
आ. भाई अजय जी, सादर अभिवादन। प्रदत्त विषय पर सुंदर रचना हुई है। हार्दिक बधाई।
धन्यवाद भाई लक्ष्मण धामी जी
आदरणीय अजय अजेय जी,
आपकी प्रस्तुति के लिए बधाई के साथ-साथ धन्यवाद भी। कि, इस पटल पर, इस खुले आयोजन में कुछ परिचित से छंदॊं के अलावा एक अरसे बाद किसी अन्य छंद में कोई रचना प्रस्तुत हुई है। आपने अपने ’अस्वीकरण’ में गीतिका छंद को लेकर जो कुछ कहा है, वह आपका निजी प्रयास है और एक सीमा तक उचित भी है। मैं इस पटल पर इस छंद के मूलभूत विधान को लेकर जो कुछ उपलब्ध है, उसका लिंक साझा कर रहा हूँ -
http://www.openbooksonline.com/group/chhand/forum/topics/5170231:To...
अवश्य ही इस छंद का विन्यास उर्दू बहर बहरे रमल मुसम्मन महजूफ की तरह ही है। परंतु, दोनों के विन्यास-व्यवहार में मूलभूत अंतर होता है। सर्वोपरि, हिंदी भाषा और इसकी मान्य लिपि देवनागरी को लेकर एक तथ्य अवश्य समझना होगा। वह है, व्यंजन वर्णों के साथ स्वर की मात्राओं के मध्य सम्बन्ध, जो उर्दू के वर्णों और उनके साथ जुड़ी मात्राओं के सम्बन्ध से बिल्कुल भिन्न होता है।
वस्तुतः, उर्दू के वर्ण और उसकी मात्राएँ साथ-साथ होने के बावजूद प्रच्छन्न इकाइयाँ होती हैं। जबकि देवनागरी लिपि में व्यंजनों के साथ स्वर की मात्राएँ ’लग’ कर उसी व्यंजन का अन्योन्याश्रय भाग हो कर एक वर्ण हो जाते हैं। अत, उर्दू की रचनाओं के काफिया एवं तुकान्त शब्दों की समान्तता के व्यवहार में मूलभूत अंतर हो जाता है। इसी कारण, उर्दू रचनाओं के लिए समान्तता या काफिया किसी मात्रा को लेकर हो सकती है। लेकिन, हिंदी भाषा और इसकी लिपि देवनागरी के साथ ऐसा नहीं होता। देवनागरी लिपि में हिंदी भाषा की रचानाओं की समान्तता स्वर मिश्रित वर्णॊं की होती है।
अतः,
क्या पता था तह हृदय की थी कपट से ही ढकी
क्या पता था थी विनय उस की कुटिलता से भरी .... तुकान्तता को लेकर ऐसी समान्तता, जहाँ केवल स्वर की मात्रा की समान्तता हो, नेष्ट है। जबकि तुकान्तता के लिए ऐसी समान्तता, या काफिया, उर्दू भाषा और उसकी लिपि में संभव ही नहीं, अत्यंत प्रचलित भी है।
इसी तरह, हिंदी भाषा की रचनाओं में ’इक’ का प्रयोग मान्य नहं है। लेकिन अब ’इक’ शब्द हिंदी में भी प्रचलन में आ गया है।
जहाँ तक रचना का प्रश्न है, यह एक अत्यंत ही संवेदनशील रचना बन पड़ी है। आदरणीय, आपकी रचना न केवल पठनीय है, बल्कि श्लाघनीय भी है। गीतिका छंद को लेकर आपका प्रयास वस्तुतः स्तुत्य है। आप प्रयासरत रहें।
हार्दिक शुभकामनाएँ और अशेष बधाइयाँ
शुभ-शुभ
विस्तृत मार्गदर्शन और इतना समय लगाकर सभी विषयवस्तु स्पष्ट करने हेतू हार्दिक आभार आदरणीय सौरभ जी। रचना पर आपका आना, इसे प्रोत्साहन देना और छन्द का लिंक देकर ज्ञान बढ़ाने के लिए भी दिल से आपको नमन करता हूँ।
हिंदी तुकांतता पर आपका मार्गदर्शन पहले भी प्राप्त हुआ है और प्रयास रहता है कि नेष्ट तुकान्त का प्रयोग न हो। इस रचना पर समय न मिलने से यह त्रुटि जानते-बूझते भी रह गई। मूल रचना में इसे अवश्य बदल लूँगा।
पुनः आभार।
आपसे यह भी आग्रह रहेगा कि हो सके तो अगला “ चित्र से काव्य छंदोत्सव “ आयोजन इसी छंद में रखें। नए छंद पर काम करने का उत्साह बना रहेगा
सादर
विश्वासधात- दोहे
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रिश्तों में विश्वास का, भले बृहद आकाश।
लेकिन उस पर घात की, बातें करे हताश।१।
*
करते हैं विश्वास पर, सब बढ़चढ़ आघात।
झूठी पड़ती आजकल, विश्वासों की बात।२।
*
विश्वासघात की बढ़़ी, जब से जग में रीत।
दुश्मन लगता है भला, बुरा लगे अब मीत।३।
*
छलनी करने में लगे, सब जग में विश्वास।
ऐसे में किससे रहे, कहो साँस को आस।४।
*
जब देखा विश्वास पर, होता हमने घात।
तब से लोगो छोड़ दी, उस पर करनी बात।५।
*
नित्य तोड़ते हों जहाँ, विश्वासी विश्वास।
वहाँ कभी मत कीजिए, जीवन में आवास।६।
*
दुश्मन से जन्मी कहाँ, कहो घात की रीत।
वह घाती विश्वास का, जो हो मन का मीत।७।
*
पड़ी नहीं विश्वास की, जिस जीवन में धूप।
वही विश्वासघात का, देख सका हर रूप।८।
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रंग विश्वासघात के, फैल रहे चहुँओर।
जिससे गिरगिट सी हुई, ये रिश्तों की डोर।९।
*
जिनके मन में है बसी, यूँ तन-धन की प्यास।
घात लगाकर प्रीत में, तोड़ रहे विश्वास।१०।
*
अपना बन विश्वास पर, होता है आधात।
ऐसा कर पाये कहाँ, भला शत्रु औकात।११।
*
करो नहीं विश्वास पर, भूले से भी चोट।
देता है विश्वास ही, हर संकट में ओट।१२।
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मौलिक/अप्रकाशित
बहुत खूब आदरणीय,
"करो नहीं विश्वास पर, भूले से भी चोट।
देता है विश्वास ही, हर संकट में ओट।"
वास्तव में संकट के घड़ी में एक विश्वास ही तो है जो धैर्य बनाए रखता है और इसके साथ ही आपने विश्वासघात को भी अनेक दोहों के माध्यम से खूब प्रस्तुत किया !
आ. रक्षिता जी, दोहों पर उपस्थिति, और उत्साहवर्धन के लिए धन्यवाद।
अच्छे दोहे हुए हैं भाई लक्ष्मण धामी जी। एक ही भाव को आपने इतने रूप में प्रकट किया है जो दोहे में आपकी सिद्धहस्त होती क्षमता का परिचायक है। साथ ही यह आपकी वैचारिक विविधता का भी द्योतक है। बहुत खूब।
विश्वासघात जैसे पंचकल+त्रिकल से लय बाधित हो रही है। ज्ञानीजनों की राय इस पर संशय दूर करने के लिए बहुत आवश्यक रहेगी।
सादर
आ. भाई अजय जी, सादर अभिवादन। दोहों पर उपस्थिति और उत्साहवर्धन के लिए आभार।
पंचकल त्रिकल के प्रयोग पर गुणीजनो का मार्गदर्शन मैं भी अपेक्षित समझता हूँ । सादर..
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