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ओबीओ तरही मुशायरा अंक - १७ की सभी प्रविष्टियाँ (ग़ज़लें) संग्रहीत

सद्यः समाप्त हुए तरही-मुशायरा के अंक - 17 की सभी ग़ज़लों / ग़ज़लुमा रचनाओं और एक रुबाई को एक स्थान पर संग्रहीत कर पाठकों की सुविधा के लिये प्रस्तुत किया जा रहा है.


इस बात का भरपूर ध्यान रखा गया है कि किसी शाइर की कोई प्रविष्टि छूटने न पाये.  फिरभी, किन्हीं शाइर साहबान की कोई प्रविष्टि प्रस्तुत संग्रह में सम्मिलित होने से रह गयी है तो अविलम्ब सूचित कर उक्त ग़ज़ल को स्थान दिलवा देंगे.  इस तरह की हुई किसी भूल के लिये अग्रिम क्षमा प्रेषित है.

सधन्यवाद

--सौरभ--

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आदरणीय राजेन्द्र स्वर्णकार जी
=========================

समझ वाले तो घर को स्वर्ग से सुंदर बना लेते
मगर नादान ; मंदिर हाथ से खंडहर बना लेते

जिन्हें दिलचस्पी होती –‘आशियां ख़ुशहाल हो अपना’
वो मेहनत को धरम और फ़र्ज़ को मंतर बना लेते

भगत की भावना का मान ख़ुद भगवान रखते हैं
कहें गिरधर उसे हम पल में मुरलीधर बना लेते

कहां वो यक्ष , वो तड़पन मुहब्बत की कहां है अब
जो इक पानी भरे बादल को नामावर बना लेते

खुले आकाश नीचे धूप में मजदूर सो जाते
बना कर ईंट को तकिया ज़मीं बिस्तर बना लेते

हवेली में बड़े कमरे बहुत हैं जश्न की ख़ातिर
कभी रोने को तहख़ाना कोई तलघर बना लेते

नहीं रहते जहां में लोग हद दर्ज़े के जाहिल अब
जो हर चलते हुए को पीर-पैग़ंबर बना लेते

कहां ईमानदारों के बने हैं घर …भरम है सब –
‘ये मेहनत गांव में करते तो अपना घर बना लेते’

हुए शातिर बड़े औलादे-आदम ; रब भी हैरां है
जो मतलब से उसे अल्लाह औ’ ईश्वर बना लेते

ख़ुदा से क्या ग़रज़ इनको कहां भगवान से मतलब
फ़क़त तफ़्रीह को ये मस्जिदो-मंदिर बना लेते

कला के नाम पर जो हो रहा है … घिन्न आती है
नहीं क्यों बेशरम खुल कर ही चकलाघर बना लेते

गिरेंगे गर्त में कितना , करेंगे पार हद कितनी
सियासतदां करेक्टर का कोई मीटर बना लेते

समाजो-रस्मो-रिश्ते लूट लेते , मार देते हैं
समझते वक़्त पर ; बचने को हम बंकर बना लेते

कमा लेते मियां मजनूं अगर इस दौर में होते
इशक़ के गुर सिखाने के लिए दफ़तर बना लेते

मुई महंगाई ने आटे का टिन भी कर दिया आधा
सजन कहते – ‘अजी , चावल चना अरहर बना लेते’

अहम्मीयत का अपनी उनको कुछ भी था न अंदाज़ा
ख़ुदा उनको , कई आशिक़ कई शायर बना लेते

सुना… उनके हसीं हर राज़ से वाक़िफ़ है आईना
ख़ुदाया ! काश उसको यार या मुख़्बिर बना लेते

खनकती जब हंसी उनकी तो झरते फूल सोने के
अगर राजेन्द्र होते पास तो ज़ेवर बना लेते

(2)
हास्य ग़ज़ल
========

सिकंदर को चुकंदर , मर्द को मच्छर बना लेतीं
बजा कर बैंड ये हसबैंड को जोकर बना लेतीं

बनातीं ज़िंदगी बेहतर कभी बदतर बना लेतीं
मियां को बीवियां मौका मिले’ नौकर बना लेतीं

जो खुल्ले सांड-सा चरता , दहाड़ें शेर-सी भरता
उसे पिद्दी-सा पिल्ला , दुमकटा बंदर बना लेतीं

जो कल चिंघाड़ता था , आज मिमियाता नज़र आता
बदलते सीन सारे … वो नई पिक्चर बना लेतीं

मुसीबत दस नई लातीं , गली-बाज़ार जब जातीं
‘ज़रूरत’ फ़ालतू सामान को अक्सर बना लेतीं

लगातीं जेब पर झाड़े , कहें कुछ तो गला फाड़ें
अखाड़े बिन , भिड़ंत के रोज़ ये अवसर बना लेतीं

हमारी भी परेड़ें , और अम्मा से भी मुठभेड़ें
गली के हर निठल्ले-ढीठ को देवर बना लेतीं

नये-नित रोज़ हंगामे , नये-नित रोज़ के ड्रामे
बड़े चंगे-भले घर को ये जलसाघर बना लेतीं

हमें जो बोरला , गलहार , झूमर , कमरबंद कहतीं
हमें ही वक़्त पर वो पांव की झालर बना लेतीं

किराये का शहर में रूम , हथियातीं भी क्या मैडम
ये मेहनत गांव में करतीं तो ‘अपना’ घर बना लेतीं

हुआ करते भले इंसान जो राजेन्द्र ये उनको
कभी कायर , फटा टायर , कभी शायर बना लेतीं

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आदरणीय तिलक राज कपूर जी
=========================

थकी ये देह ढकने को गगन चादर बना लेते
कभी मेरी तरह तुम भी धरा बिस्तनर बना लेते

भुलाकर तल्खि़यॉं मन प्रेम की गागर बना लेते
अगर मन साफ़ रख पाते, खुदा का घर बना लेते।

किसी बच्चे के अधरों पर खिली इक मुस्क राहट का
हुनर हम जानते तो जि़न्दखग़ी बेहतर बना लेते।

हमारे बीच की इन दूरियों में कुछ कमी आती
अगर कड़वे वचन को प्रेम का अक्षर बना लेते।

हमें भी बख्‍शता आलम खुदा गर बेखुदी का हम
तुम्हारी याद को ही खुशनुमा बिस्तदर बना लेते।

खुदा, जब दिल दिया तो साथ में फि़त्रत हमें देता
कभी रोने पे आता तो इसे पत्थ र बना लेते।

यहॉं दिन-रात खट कर ही मिली दो वक्ता की रोटी,
ये मेहनत गाँव में करते तो अपना घर बना लेते।

अगर वाकिफ़ नहीं होते हकीकत से परिन्दों की
नये इक ख्वाँब से पहले नये कुछ पर बना लेते।

समझ हमको अगर होती, बुज़ुर्गों की दुआओं की
जहॉं पग रख दिया मॉं ने, खुदा का दर बना लेते।

बहुत चाहत रही खुद को कभी मस्तीज के आलम में
किसी बच्चीर के पॉंवों में बँधी झॉंझर बना लेते।

भला किस चीज की 'राही' कमी रहती कभी हमको
खुदा के नूर का खुदको अगर दिलबर बना लेते।

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आदरणीय पल्लव पंचोली जी (मासूम)
=============================

जहाँ का हाल थोड़ा और भी बहतर बना लेते
अगर इंसानियत का इक यहाँ मन्दर बना लेते

बहुत उँची इमारत है जिसे अपनी वो कहते हैं
मजा आता अगर वो इस मकाँ को घर बना लेते

गवारा था नहीं सौदा हमें ही रूह का वरना
महल उंचा खुदा की आँख से गिरकर बना लेते

नहीं चलता है बस इनका मेरे इस देश पे वरना
कई नेता महल अपने मज़ारों पर बना लेते

शहर का बोझ ढोकर भी जो सड़कों पर ही सोते हैं
ये मेहनत गाँव मे करते तो अपना घर बना लेते

अगर मालूम होता ये की तोड़ेगा कोई इक दीन
अरज करके खुदा से दिल को हम पत्थर बना लेते

सड़क पे घूमना पड़ता नहीं मासूम तुमको भी
जगह थोड़ी किसी के दिल के अंदर बना लेते

*********************************************************************

आदरणीय अरुण कुमार निगम
========================

ये मेहनत गाँव में करते तो अपना घर बना लेते
या बूढ़े बाप की लाठी को , ताकतवर बना लेते.

इबादत काम की करते औ ‘ होता खेत ही मंदिर
कुदाली , हल को अपनी देह का जेवर बना लेते.

लुटाते गाँव में खुशियाँ , बहाते प्यार का अमृत
जहर पी -पी के अपने आप को शंकर बना लेते.

अगर सूखा पड़ा होता , पसीना यूँ बहाते हम
कभी गेहूँ बना देते , कभी अरहर बना लेते.

सुबह गाते भजन औ रात को कजरी सुनाते हम
अरुण गर शहर ना आते तो अपना घर बना लेते.

(2)
निगोड़े ध्यान से पढ़ते तो चारागर बना लेते
जरा कमजोर रह जाते तो कम्पाउंडर बना लेते.

शरारत खूब करते हैं,ऊधम मस्ती भी करते हैं
ये अच्छा खेलते होते तो तेंदुलकर बना लेते.

ये अपनी बात मनवाने को हाई पिच में चिल्लाते
अगर सुर साधते थोड़ा , इन्हें सिंगर बना लेते.

पसारें पाँव ना ज्यादा, अकल इतनी सी आ जाती
ये अपने बाप की तनख्वाह को चादर बना लेते

शहर की वादियों में रह जरा बिगड़े हैं शहजादे
ये मेहनत गाँव में करते तो अपना घर बना लेते.

*********************************************************************

आदरणीय सतीश मापतपुरी जी
========================

वफ़ा की जानते वो कद्र दिल में घर बना लेते.
मुहब्बत में ज़िगर को मस्जिदे- मंदर बना लेते.

अगर थोड़ी सी हिम्मत और भी वो कर लिए होते.
तो फिर क्या बात थी वो शब को ही सहर बना लेते.

भला कैसे कहें कि याद अब आते नहीं हैं वो.
अगर ये हाथ में होता तो दिल पत्थर बना लेते.

शहर ने पेट को रोटी दी तन को मुट्ठी भर कपड़े.
ये मेहनत गाँव में करते तो अपना घर बना लेते.

कैसे माँगने आये थे हमसे ही हमारा वोट.
तब मालूम होता हार को खंज़र बना लेते.

(2)
अगर ये खुश हैं तो ओसारे को कोहबर बना लेतीं.
अगर नाराज़ हों तो कमरे को कोटर बना लेतीं.

ना जानें किसने सबला को कहा था अबला पहली बार.
ये तगड़े शौहर को भी झट से बस नौकर बना लेतीं.

है नारी शक्ति का पर्याय इनका वश चले तो बस.
पढ़े- लिखे पति को पल में ही जोकर बना लेतीं.

किराए का मकाँ भी खोजने में मरद थक जाए.
ये मेहनत गाँव में कर दे तो अपना घर बना लेतीं.

दफ़्तर से आकर शाम को हर दिन यही सोचें..
या अल्लाह! आज भी कल की तरह शौहर बना लेतीं.

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आदरणीय दिलबाग़ विर्क
===================

बचाते रिश्तों को तो ज़िन्दगी बेहतर बना लेते
ये मेहनत गाँव में करते तो अपना घर बना लेते।

न होते दुनिया से हम, पत्थरों के बदले देते फल
सफल हो जाता जीवन, खुद को अगर शजर बना लेते ।

न समझे ईंट-पत्थर से मकां बनते, न बनते घर
मकानों में न उलझते, काश कोई घर बना लेते ।

तबाह कर रहे हो दुनिया को क्योंकर, तुम बताओ तो
बम बनाने वालो कोई हसीं मंजर बना लेता ।

न देते दिल को अहमियत, न करते बात उल्फत की
हसीं होता सफर अगर खुद को पत्थर बना लेते ।

उमर बीती हमारी विर्क बस धन जोड़ने में ही
जो दोस्त बनाते कुछ तो खुशगवार सफर बना लेते ।

*********************************************************************

सौरभ पाण्डेय
===========

तेरी आँखें जो बुनती हैं, वही मंजर बना लेते
झुकी पलकें लिये तेरी नज़र-झालर बना लेते

न तुमको रू-ब-रू पाया, न दिल की बोल ही पाये
मिले जो काश तब होते, घड़ी सुन्दर बना लेते

मठाधीशी है वो फितरत, सियाही फेर देती है
चढ़ी होती न ये सर पे, न दिल पत्थर बना लेते ..

मशीनी ज़िन्दग़ी बीते, यहाँ दर है न ओसारा
ये मिहनत गाँव में करते तो अपना घर बना लेते

बहारें मांग उजड़ी ले, दिखे, बेवा बेचारी सी
सभी संयत जिये होते धरा मनहर बना लेते

मेरे जानिब लगी है आग बाज़ारों में कीमत की
सियासतदाँ अगर चाहें, हलक को तर बना लेते

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मोहतरमा अज़ीज़ नाज़ां
===================

शिकस्ता हसरतों को अपना जो रहबर बना लेते
हम अपनी ज़ात के अन्दर भी इक महशर बना लेते

हमारे दिल की आतिश सर्द होती जाती है वरना
हम अपनी बेड़ियों को ढाल कर खंजर बना लेते

हम अपने हौसलों को अब भी जो थोड़ी हवा देते
पसीने को भी अपने अंजुम ओ अख्तर बना लेते

अगर परवाज़ अपनी साथ दे देती इरादों का
जुनूँ की ज़र्ब से हम आसमाँ में दर बना लेते

मज़ा होता अगर इस सहबा ए उल्फत में थोडा भी
तो दिल की किर्चियों को जोड़ कर साग़र बना लेते

मिली है दौलत ए यास ओ अलम, मिलती न तो भी हम
दिल ए वहशी को यूँ भी रंज का खूगर बना लेते

तलब होती अगर दौलत की साहब हम फकीरों को
नज़र के शबनमी कतरों को हम गौहर बना लेते

बड़ा एहसान है जो हम तुझे करते हैं याद अब तक
जो जिद पे आ ही जाते दिल को हम पत्थर बना लेते

हमें सय्याद ने आज़ाद बस कर ही दिया वरना
ये मुमकिन था क़फ़स में भी हम अपना घर बना लेते

पराए शहर में जितना पसीना सर्फ़ कर आए
"ये मेहनत गाँव में करते तो अपना घर बना लेते"

अभी 'मुमताज़' इतना तो न था जज्बा परस्तिश का
तुझे किस्मत का अपनी किस लिए महवर बना लेते

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आदरणीय धर्मेन्द्र कुमार सिंह जी
==========================

न पक्की छत अगर बनती तो हम छप्पर बना लेते
ये मेहनत गाँव में करते तो अपना घर बना लेते

मैं अक्सर सोचता हूँ इडलियाँ ये देख गालों की
के मौला काश खुद को आज हम साँभर बना लेते

नज़र से भी हैं गिरते बम अगर हम जानते हमदम
तो दिल अपना कसम से लौह का बंकर बना लेते

तुम इतने ध्यान से समझोगी गर मालूम ये होता
हम अपने आप को एक्ज़ाम का पेपर बना लेते

तुम्हारी हर जफ़ा का बीज दिल में खार बन उगता
न गर हम सींच आँसू से इसे बंजर बना लेते

*********************************************************************

भाई अतेन्द्र कुमार सिंह ’रवि’
======================

ज़िन्दगी के हर शय को अपना हम गर बना लेते
बेरंग सी तस्वीर को भी नया मंज़र बना लेते

क्या होती है ख़ामोशी होते इससे अंजान हम
सबमें बाटने आदत यूँ हम गर बना लेते

लहलहाते खेत अगर संग होता बस कुदाल का
"दो वक़्त की रोटी" परिभाषा से इतर बना लेते

करते रहे हिकमत जो माटी से यूँ दूर होकर
ये मेहनत गावँ में करते तो अपना घर बना लेते

न होती चाह हमें यूँ शहरों की ऊँची मंजिलों का
अपने ही घर को हम प्यार का मंदर बना लेते

होती नूर की बरसात और हर पल भींग जाते
लुफ्त उठाने की आदत खेतों में गर बना लेते

हती महंगाई भी अब आपसे हो रही दुरिया
गर गावँ में ही मेहनतकश हर सहर बना लेते

है कौन हवा-ख्वाह ज़मी पर अब अपना बता
क्यूँ न गुलों को ही अपना तो सहचर बना लेते

नुगाफ्तां है अब तो प्यारे यूँ दयार-ए-दास्ताँ
अपने दिल को ही क्यूँ ना अब पत्थर बना लेते

हसीं तो होता तेरा भी कारवां-गाहे-दिलकश
गर "रवि" के संग-संग तो अपना यूँ सफ़र बना लेते

*********************************************************************

आदरणीय अविनाश एस बागड़े जी
==========================

कोई टोपी जो मिल जाती तो अपना सर बना लेते,
सियासत में जो रहते माल हम डटकर बना लेते !

शहर ने चाट खाया है,हमें कंकाल बनने तक,
ये मेहनत गाँव में करते तो अपना घर बना लेते.

अभी ही झांक आयें हैं,सभी वो मौत का कुआँ
उसी में डूब जाते गर उसी को डर बना लेते!

सवंर जाती थी बेटी भी,कनिमोजी के सत्संग में,
कोइ नेता बनाते या कोई अफसर बना लेते .

जो होती पास जानेमन यही बेहतर तकाजा था,
बढ़ी है ठण्ड मौसम की उसे मफलर बना लेते.

जो मिलते जींस नेता के हमें भी यूँ विरासत में,
कभी तोपें,कभी चारा इन्हें डिनर बना लेते!

गुलगुले गाल यूँ लेकर अगर मिलती जो महंगाई,
निशां पंजे क़े गुस्से में बड़े बेहतर बना लेते.

(2)

दबाते पैर पी. ए.बन उन्हें अफसर बना लेते.
जो घर में बॉस है बीबी यही दफ्तर बना लेते.

करें हम ब्याह मूसल से किसी के बाप का डर क्या.
यूँ परमानेंट ऊखल को सजा-ये-सर बना लेते.

मिले जो तेल हमको भी खुशबूदार चमेली का
तो खुद को आज से ही हम छछूंदर बना लेते.

सभी को बैल कोल्हू का बना देता है ये जीवन,
ये मेहनत गाँव में करते तो अपना घर बना लेते.

किसी ऐय्याश नेता के भंवर में फंस गई भंवरी,
अगर तिनका भी हम होते उसे निडर बना लेते

*********************************************************************

योगेन्द्र बी. सिंह आलोक सीतापुरी
=========================

तुम्हारी तरह से खुद को जो हम खुदसर बना लेते,
तो अपने आप को इन्सां नहीं पत्थर बना लेते|

हमारे साथ चलते तो जरा तुम हमसफ़र बनकर,
ये दुनिया देखती रहती हम वो मंजर बना लेते |

ना जाने कितने रिदों की भलाई हो गयी होती,
सुराही आपको अपने को जो साग़र बना लेते |

हमें मंजूर है सब कुछ सितम हो या करम तेरा,
कभी सरताज कहते तुम कभी नौकर बना लेते |

तुम्हारा साथ मिल जाता पहुंचते चर्ख-ए-हफ्तुम पर,
नहीं हैं बाल-ओ-पर अपने मगर हम पर बना लेते |

वो हमको क़त्ल तो करते कफ़न मिलता या ना मिलता,
हम अपने पैरहन को जिस्म की चादर बना लेते |

कटी है ज़िंदगी फुटपाथ पर परदेश में भाई,
ये मेहनत गाँव में करते तो अपना घर बना लेते |

किसी नेता की क्यों चमचागिरी करते न 'आलोकं',
ब-फैज--ए-मसलहत वो आपको फादर बना लेते |

(2)
मान्यवर ने कहा मैडम से अपना गर बना लेते.
खड़े क्यों बाग़ में रहते जो अपना घर बना लेते .

मेरे तन-मन में अंदर तक समा जाते लहर बनकर.
समंदर तुम बने रहते मुझे गागर बना लेते..

दुहाई राम की देकर अगर मंदिर बना लेते.
तो अपनी सल्तनत तुम हिंद के अंदर बना लेते.

वफादारी से जनता का भरोसा जीत सकते थे.
मोहब्बत एकजहती से धरा अम्बर बना लेते..

ये मैंने कब कहा जानम मुझे अफसर बना लेते.
ज़माना औरतों का है मुझे चाकर बना लेते.

ये खादिम हर तरह से आपके ही काम आ जाता.
कभी नौकर बना लेते कभी शौहर बना लेते..

*********************************************************************

आदरणीय संजय मिश्रा ’हबीब’ जी
=========================

उरूजे हसरते दिल को अगर अस्गर बना लेते ।
बलन्दी ए रूहों जाँ आप ही बरतर बना लेते ।1।

गुलाबों की पनाहों में चुभेंगे खार लाजिम है,
सुनाते दर्दे दिल खुद को कभी शायर बना लेते ।2।

सहारा तुम बने होते गरीबों का भला होता,
सियासत को गवायत की जगह खुशतर बना लेते ।3।

कहाँ अब छांव मिलते हैं झुलसते से नजारों में,
कदर पेड़ों की करते तो जहाँ कौसर बना लेते ।4।

बहारे मिल ही जायेंगी फजाओं की कमी क्या है,
के हिम्मत को उड़ानों के लिये दो पर बना लेते ।5।

उजालों को निगल पाता न सूरज बेइमानों का,
जरे ईमान से दिल की दिवारो दर बना लेते ।6।

उमीदों की तरह खुद को ढहाते क्यूँ हबीब ऐसे,
ये मेहनत गाँव में करते तो अपना घर बना लेते ।7।

*********************************************************************

आदरणीय अम्बरीष श्रीवास्तव जी
==========================

वो उल्लू अपना सीधा तो कदम छूकर बना लेते,
उन्हें जब वोट मिल जाता हमें बन्दर बना लेते.

किसी के इश्क में पड़कर हुए बर्बाद तुम साथी,
अगर माँ-बाप की सुनते तो अपना 'ज़र' बना लेते.

गधे को बाप कह कर भी बनाना काम ना आया,
अक्ल से काम गर लेते तो उसको 'सर' बना लेते.

ये मंदिर और ये मस्जिद सियासत से नहीं बनते,
शराफत को बसा दिल में इबादतघर बना लेते.

ये बंगला और ये गाड़ी है मैडम की मेहरबानी,
तरक्की और करते गर हँसी मंजर बना लेते.

हजारों खा चुके धोखे इन्हीं उल्फत की गलियों में,
कलेजा मोम का ही काश हम पत्थर बना लेते.

न जाने क्या मिला हमको महानगरों की गलियों में,
ये मेहनत गाँव में करते तो अपना घर बना लेते.

तुम्हें करनी थी अम्बर' तब मोहब्बत इस कदर उनसे,
के उनको दूध औ अपने को तुम शक्कर बना लेते.

*********************************************************************

आदरणीय संजीव वर्मा ’सलिल’ जी
==========================

न नयनों से नयन मिलते न मन-मंदिर बना लेते.
न पग से पग मिलाते हम न दिल शायर बना लेते..

तुम्हारे गेसुओं की हथकड़ी जब से लगायी है.
जगा अरमां तुम्हारे कर को अपना कर बना लेते..

यहाँ भी तुम, वहाँ भी तुम, तुम्हीं में हो गया मैं गुम.
मेरे अरमान को हँस काश तुम जेवर बना लेते..

मनुज को बाँटती जो रीति उसको बदलना होगा.
बनें मैं तुम जो हम दुनिया नयी बेहतर बना लेते..

किसी की देखकर उन्नति जला जाता है जग सारा
न लगती आग गर हम प्यार को निर्झर बना लेते..

न उनसे माँगना है कुछ, न उनसे चाहना है कुछ.
इलाही! भाई छोटे को जो वो देवर बना लेते..

अगन तन में जला लेते, मगन मन में बसा लेते.
अगर एक-दूसरे की ज़िंदगी घेवर बना लेते..

अगर अंजुरी में भर लेते, बरसता आंख का पानी.
'सलिल' संवेदनाओं का, नया सागर बना लेते..

समंदर पार जाकर बसे पर हैं 'सलिल' परदेसी.
ये मेहनत गाँव में करते तो अपना घर बना लेते..

*********************************************************************

आदरणीय राज बतालवी
==================

ज़मीं की बन्दगी करते तो उसको जर बना लेते ।
यह मेहनत गाँव में करते तो अपना घर बना लेते ॥ 1

कहाँ पर घाव हैं मेरे , कहाँ पर आँख है उनकी ।
कहीं वो भूल से कहते तो खुद की कबर बना लेते ॥ 2

जिधर से वोह गुजर जायें कयामत सी ही आ जाये।
कहीं पर कतल हो जाते , कहीं शायर बना लेते ॥ 3

खुदा या कुछ रहम हम पर भी तो फरमा कभी आकर ।
किसे मसजिद बना लेते ,किसे मंदिर बना लेते ॥ 4

बगावत जिंदगी हर पल करे है मौत से ऐसे ।
जो साँसे आ रही 'लाली' अता पत्थर बना लेते ॥ 5

*********************************************************************

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Reply to This

Replies to This Discussion

saurabh ji

sari rachanaye AT A GLANCE dekhane ka aanand hi kuchh aur hai

sadhuwad aapke is prayas ka.

avinash bagde.

सभी ग़ज़लों ने मन को मोहा

एक बार फिर से सभी गज़लकारों को हार्दिक बधाई

mujhe gazal sayari samajh me nahi aata hain hamare liye to ye wahi bat huin bhais ke aage bin bajaye bhais kare pagurai

आदरणीय सौरभ जी ! ग़ज़लों का यह संकलन देखकर मन प्रसन्न हो गया ! इस श्रमसाध्य कार्य के लिए आपको बहुत-बहुत बधाई मित्र ! :-)

आपकी पोस्ट आज के चर्चा मंच पर प्रस्तुत की गई है
कृपया पधारें
<a href="http://charchamanch.blogspot.com/2011/12/722.html">चर्चा मंच-722:चर्चाकार-दिलबाग विर्क</a>

इबादत काम की करते औ ‘ होता खेत ही मंदिर 
कुदाली , हल को अपनी देह का जेवर बना लेते.

अगर परवाज़ अपनी साथ दे देती इरादों का
जुनूँ की ज़र्ब से हम आसमाँ में दर बना लेते 

वाह वाह 

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लक्ष्मण धामी 'मुसाफिर' replied to Admin's discussion "ओ बी ओ लाइव महा उत्सव" अंक-168
"आ. भाई सुशील जी, सादर अभिवादन। सुंदर छंद हुए हैं। हार्दिक बधाई।"
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Sushil Sarna replied to Admin's discussion "ओ बी ओ लाइव महा उत्सव" अंक-168
"रोला छंद . . . . हृदय न माने बात, कभी वो काम न करना ।सदा सत्य के साथ , राह  पर …"
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लक्ष्मण धामी 'मुसाफिर' commented on सालिक गणवीर's blog post ग़ज़ल ..और कितना बता दे टालूँ मैं...
"आ. भाई सालिक जी, सादर अभिवादन। अच्छी गजल हुई है। हार्दिक बधाई।"
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Chetan Prakash replied to Admin's discussion "ओ बी ओ लाइव महा उत्सव" अंक-168
"सतरंगी दोहेः विमर्श रत विद्वान हैं, खूंटों बँधे सियार । पाल रहे वो नक्सली, गाँव, शहर लाचार…"
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