आदरणीय साथिओ,
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वाह वाह बढ़िया , अद्भुत , दर्द भी और सहारा भी . कथा और सुगठित हो सकती थी .
मुह्तरमा जानकी वाही साहिबा , प्रदत्त विषय को परिभाषित करती सुंदर लघु कथा हुई है जिस
के लिए मुबारकबाद क़ुबूल फरमाएँ ---
प्रदत्त विषय पर बहुत सुन्दर लघु कथा हुई एक सकारात्मक अंत के साथ किला ढहने से बच गया निवारण भी ढूँढ लिया बहुत अच्छी लगी लघु कथा हार्दिक बधाई जानकी जी
जो साहित्य को समर्पित होते हैं उनकी कोई उम्र सीमा नहीं होती वो हमेशा चाहते हैं की अगली पीढ़ी उनसे कुछ सीखे बढती उम्र मन में हींन भावनाएँ न भर सकें इसलिए खुद को व्यस्त रखना ही चाहिए वरना ये जिन्दगी का किला ढहते देर नहीं लगती .बहुत अच्छी लघु कथा लिखी प्रिय जानकी जी बहुत बहुत बधाई
लाज़वाब लघुकथा ।हार्दिक बधाई आदरणीय जानकी जी।आपकी लेखन शैली अदभुत है।कथ्य भी मार्मिक और हृदय स्पर्शी है।
मेरी कल्पना
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अपनी चिदानन्दघन अवस्था में रहते रहते अचानक मेरे मन मेें विचार आया कि एकमेव हूँ अनेक होकर देखूँ क्या होता है। इतना सोचते ही मेरी क्रियात्मक शक्ति ने मेरे मन के एक छोटे से भाग में ही, स्पेस-टाइम में बाँधकर मेरी सगुणता को, इस सृष्टि के रूप में असीमित आकार देकर रच डाले गुरुत्वाकर्षण, ब्लेकहोल, गेलेक्सियाॅं और असंख्य सौर परिवार। इतना ही नहीं वनस्पति सहित असंख्य जीवधारियों की रचना कर, संचर और प्रतिसंचर में इन्हें गतिशील करके ब्रह्मचक्र को पूरा कर दिया। अपेक्षा यह थी कि मेरी ये सभी छोटी बड़ी मानसिक तरंगें अपनी क्रमागत यात्रा करते हुए वापस मेरे पास ही आ जाएंगी परन्तु इस चक्र का पचहत्तर प्रतिशत भाग तय करने के बाद भी पृथ्वीवासी इन मनुष्यों ने तो मुझे बड़े ही असमंजस में डाल दिया है। वे मेरे पास वापस आनेवाले रास्ते को भूलकर धूल के कण से भी छुद्र इस धरती को ही सर्वसुखकारक और आनन्ददायक मानकर अपने को बना बैठे हैं स्वयंभू पृथक सम्राट। नाभिकीय शक्तियों से एक दूसरे को नष्ट करने की धमकी देते, अपने गन्तब्य को बिसारे ये लोग अहंकार, लोभ, मान अपमान, छोटे बड़े, ऊँचनीच, धनी गरीब, प्रबल निर्बल, जैसे न जाने कितने द्वन्द्वात्मक दुर्ग बनाकर ढहाने तुले हैं मानवता के पवित्र मन्दिर को। अपने को मुझसे पृथक मानकर रच डाली हैं भिन्नता और असमानता। मेरी एक कल्पना के भीतर ही अनेक कल्पनाओं में डूबे, मेरे ही इन स्वरूपों को मेरा स्वप्न में भी बिचार नहीं आता। मैं दुखी होकर कभी कभी सोचता हॅूं कि अपना विचार समाप्त कर दूँ लेकिन ‘‘कार्य कारण प्रभाव और क्रिया प्रतिक्रिया नियम‘‘ से बँधी जब तक मेरी ही विचार तरंगें अपनी सगुणता के सूक्ष्मतम भाग को भी उसके कर्मफल का भोग करा कर स्वच्छ नहीं हो जातीं मुझे विवश होकर इनका साक्षी बने रहना होगा।
मौलिक व अप्रकाशित
अत्यंत गूढ़ अर्थ समेटे हुए बेहतरीन रचना के लिए साधुवाद आदरणीय!
आदरणीय सुधीर द्विवेदी जी , विनम्र आभार। आपने कथा की गंभीरता और गहराई तक पहुँचने का प्रयास किया।
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