आदरणीय साथिओ,
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विनम्र आभार आदरणीय तेजवीर सिंग जी।
आदरणीय टी. आर. शुक्ल जी, इसमें कोई दो राय नहीं है कि आप लघुकथा के अद्भुत कथानक ढूँढ ढूँढ कर लाते है. ऐसे विषय का चुनाव और उस पर ऐसी सधी शैली. आपने कथोपकथन शैली में कमाल कर दिया. टूटते परिवारों के मूल में छिपे मनोविज्ञान को क्या खूब शाब्दिक किया है.वाह. आनंद आ गया इस लघुकथा को पढ़कर. इसमें मेरा छोटा सा सुझाव है कि 'तीन साल' की अवधि को 'एक साल' किया जाए और नायिका से यह भी कहलवाया जाए कि 'अभी समय ही कितना हुआ है' तो मनोवैज्ञानिक प्रयोग को और बल मिलेगा. दूसरा स्त्री-पुरुष की उपमा ऐसी हो कि वो एक दुसरे के संपूरक लगे. एक दुसरे पर आश्रित नहीं. बहरहाल इस शानदार विषय के चयन और उस पर सधी शैली में लिखी इस सफल लघुकथा हेतु हार्दिक बधाई. सादर
विनम्र आभार आदरणीय मिथिलेश जी। हमेशा की तरह आपके मूल्यवान सुझावों का आदर। प्रथम सुझाव से सहमत। द्वितीय सुझाव के सम्बन्ध में निवेदन है कि कथा में प्रयुक्त किये गए उद्धरण सम्पूरकता ही प्रकट करते हैं न कि आश्रयदाता। सादर।
विनम्र आभार आदरणीय महेंद्रकुमार जी।
क्या तुमने इस धरती पर बिना पहिए का कोई वाहन चलते देखा है ? अथवा क्या बिना तार की वीणा बजते देखी है ?‘‘ बिना पति के नारी की कल्पना कैसे की जा सकती है | ये नारी का साहस इस कहानी को सफल बना रहा है | बहुत बहुत बधाई डॉ. सुकुल साहब
सुसंगत टीप के लिए विनम्र आभार आदरणीय लक्ष्मण जी।
भारतीय नारी की सहनशीलता को दर्शाती रचना विषय पर, बहुत बहुत बधाई आपको
आदरणीय सुनील वर्माजी आप ने बहुत खूब कहा. जोड़िया ऊपर से बन कर आता है. बधाई आप को इस शानदार लघुकथा के लिए.
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