आदरणीय साथिओ,
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आदरणीय तस्दीक़ जी, आपकी लघुकथा पढ़कर मुझे "मोहल्ला 47" नामक मेरी उस कहानी की याद आ गयी जो मैंने लगभग डेढ़ वर्ष पूर्व व्यंग्यात्मक शैली में लिखी थी. आपकी कथा भी उसी बात की तरफ़ इशारा करती है कि इंसान के सर पर जब नफ़रत का भूत सवार होता है तो वह इस ज़द में इंसान क्या पशु-पक्षियों को भी शामिल कर लेता है. आपकी लघुकथा की शुरुआत बहुत शानदार हुई लेकिन इसे जिस प्रकार का अन्त मिलना चाहिए था, वैसा नहीं मिला. यह और बेहतर हो सकता है. //क्या बता सकते हो इसके खून को देख कर कि यह हिंदू के खून जैसा है या मुसलमान के लहू जैसा// ऐसा ही संवाद हम फ़िल्म 'क्रांतिवीर' में भी सुन चुके हैं जो खासा चर्चित हुआ था. लघुकथा का यह अन्त इसके फर्स्ट हाफ की मौलिकता को क्षीण कर रहा है. इसलिए आपसे निवेदन है कि इस पर पुनर्विचार करें. यह एक उम्दा लघुकथा है. मेरी तरफ़ से दिल से बधाई स्वीकार कीजिए. सादर.
'सर' कहके शर्मिन्दा मत कीजिए मुझे. आप मुझसे उम्र और अनुभव दोनों में बहुत बड़े हैं. मैं आपके छोटे भाई के रूप में ही ख़ुश हूँ. सादर.
"सर" महेंद्र कुमार जी को "सर" कह कर संबोधित मत करें भाई उस्मानी जी :)))))))))))))
अरे सर, आप भी न! :)))))))))))))
यदि मेरी टिप्पणी से आपको कष्ट पहुँचा हो तो क्षमा चाहूँगा. सादर.
आदरणीय तस्दीक साहब , कथा का विषय बढ़िया है , खून से कोई बता दे हिन्दू है या मुस्लिम , सुंदर सन्देश दे रही है आपकी यह कथा | हार्दिक बधाई |
प्रदत्त विषय पर लघुकथा कहने का अच्छा प्रयास है जिस हेतु बधाई प्रेषित है. हालाकि रचना में नाटकीयता ज़रूरत से ज्यादा है. भाई महेंद्र कुमार जी की बैटन का संजीदगी से संज्ञान लें आ० तसदीक़ अहमद खान साहिब.
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