आदरणीय साथिओ,
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आ. विरेन्द्र जी आपकी टिप्पणी से हौसला अफ़जाई होती हैं सो हमेशा प्रतिक्षा रहती है. धन्यवाद आपका
शशी तुम्हे रचना पसंद आई. इस हेतु धन्यवाद
आभार सर
अच्छे भाव युक्त बहुत बढ़िया लघु कथा । बधाई आपको ।
धन्यवाद अनुपमा जी
बियाबान मन जंगल * (अनकहा )
" कई साल से रंग-रोगन के बिना घर बदहाल हो रहा है।"
कटोरे में पानी और चम्मच को पास रखी मेज पर रखते हुए पत्नी थके अंदाज़ में बैठ गई।
" जब तन -मन में ही घुन लग जाए तो कुछ नहीं भाता।न तारों भरा आसमान न सुबह की अरुणिमा।"
अटक-अटक कर पति बोला।पत्नी को लगा पति के मुँह से आये इन चन्द शब्दों ने मुँह से बाहर आने में युगों का सफ़र तय किया हो।
" जब घर ख़रीदा तो ठीक करने के लिए पैसे नहीं थे।फिर दोनों नौकरी में व्यस्त हो गये तो समय नहीं मिला अब पैसा और समय दोनों हैं तो शरीर नहीं है।"
पत्नी अपनी ही रौ में बोलती रही।उसकी आँख में छुपे सपने अपनी अंतिम साँस ले रहे थे।पति ने इशारे से पानी माँगा।
चम्मच से मुँह में पानी को बूँद की तरह टपकाते हुए पत्नी ने ठिठोली की।
"बिल्कुल उस चातक की तरह लग रहे हो जो स्वाति नक्षत्र में गिरी बूँद को निगलने के लिए आसमान की ओर ताकता रहता है।"
" अच्छा परिहास कर लेती हो।"
इतना बोलने में ही पति थक गया और आँखें बन्द कर ली।
" कुछ दिन से दोनों बेटों से कह रही हूँ , अब अकेले ये सब नहीं कर पा रही हूँ ।किसी लड़के को रख लेते तो मदद कर देता मेरी।अब देखो ना आपको कपड़े भी नहीं पहना पाती हूँ।घण्टा लग जाता है मुझे।"
ब्रेड को मसल कर पति के मुँह में डालते हुए पत्नी को मालूम है इस एक या आधी ब्रेड खिलाने में भी एक घण्टा लग जायेगा।
" हूँ... "
पति ने आँख खोलकर पत्नी को निहारा।
" कहते हैं ज़माना बहुत ख़राब है। नौकर रखने से घर की सुरक्षा खतरे में पड़ जायेगी ।हम चारों तो सुबह के गये शाम को ही लौटते हैं।कहीं तुम दोनों को मार कर फ़रार हो गया तो ?"
" तो अभी कौन सा जिन्दा हैं।"
पति बोला और दो बूँद आँखों की कोर से बह निकली।शायद अपनी विवशता पर।
" चप्पल बुरी तरह घिस गई है जब भी लाने को बोलती हूँ तो दोनों यही बोलते हैं ले आएंगे।छह महीने हो गये ये सुनते -सुनते।"
पत्नी की आँख भर आई कहते हुए।पति ने बेबसी से देखा और बोला-
" खुद जाकर ले आओ।"
" कैसे लाऊँ ?आप तो एक पल को भी अपनी आँखों से ओझल नहीं होने देते।"
कुछ समय दोनों के बीच गहरी ख़ामोशी पसरी रही।फिर पति ने मुँह खोला-
" और भी कुछ कहना है ?"
"नहीं ।"
फिर हौले से बुदबुदाई कहना तो बहुत कुछ था।पर कैसे कहूँ , दो साल से बिस्तर पर पड़े हो। तिल-तिल छीज रहे हो ।कुछ कहकर आपका मन ही दुखाऊंगीं।"
कुछ बोली क्या तुम?"
"नहीं तो।"
पत्नी को देख पति ने कहना चाहा-
,"मन का बोल ही दे ,तुम्हारी मदद तो नहीं कर पाऊंगा पर सुन कर दुःख तो बाँट पाऊंगा।" पर शब्द अस्पष्ट बुलबुलों के रूप में निकले जो पत्नी समझ न पाई।
अब पत्नी मुस्कुराई और बोली-
अक्सर मुझे लगता है कभी हमारे सपनों का ये घर एक सघन वन में तब्दील हो गया है जिसके बियाबान मैं और तुम बातों की जुगाली करते हैं।"
फिर हौले से अपने हाथों में पति का बेज़ान हाथ लेकर सहलाने लगी।अब दोनों की ज़ुबान चुप है पर आँखें बहुत कुछ सवाल-ज़वाब बूझ रही हैं।
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