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मजबूरी क्या नहीं करवाती ..नसीहतें देने में तो हम लोग पीछे नहीं हटते जरा भी देर नहीं लगाते किन्तु हालात क्या हैं कैसे हैं जो भुगतता है वही जानता है कहते हैं न कब्र का हाल मुर्दा ही जाने ..किन हालातों से जूझते हुए रूपा ने ये निर्णय लिया होगा ....
जिन्दगी के इस पहलू को बखूबी दिखाया आपने इस लघु कथा में ,हार्दिक बधाई आपको सीमा जी.
पहचान
रमेश काफी समय बाद गांव आया था। शहर मे हाड तोड काम कर कुछ पैसे जोडे थे, वही अपने परिवार मे दिये। ४ बहिने और मां-बाप है, परिवार मे। सभी खुश भी थे और असंमजस मे भी थे, कि अब रमेश दुबारा शहर जाएगा या नही। शरीर जर्जर हो गया था उसका, दिन मे घर के बाहर खाट पर लेटा वह भी सोच रहा था, कहा सुबह से शाम तक आराम नही, कहा वो आराम से ही तंग आ गया एक ही दिन मे, कब जाउ, यहा पडे-२ क्या होगा। ये तो अन्धा कुआ है कितना ही भरु कैसे पुरा होगा? "रमेश ओ रमेश" उसके एक पुराने दोस्त के बुलाने पर वो आश्चर्य मे पड जाता है कि फिर वो "ओ रिक्शा" "ओ रिक्शा" किसका नाम है।
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मॊलिक व अप्रकाशित
फिर वो "ओ रिक्शा" "ओ रिक्शा" किसका नाम है।....शानदार पंक्तिया.
वाह वाह वाह, बहुत खूब आदरणीय गौड़ साहिब। ओपनबुक्स परिवार में आपका स्वागत है। नाम गुम हो जाने का मंज़र बहुत प्रभावशली तरीके से प्रस्तुत किया है।
राजेन्द्र जी
एक नए अंदाज में प्रस्तुति . अच्छी प्रस्तुति है .
अलग अलग जगह , अलग अलग पहचान । बढ़िया प्रस्तुति , बधाई आदरणीय..
आदरणीय राजेंदर जी
बहुत बेहतरीन और बिलकुल नए तरह की लघुकथा
पूरी तरह से सफल लघुकथा
आपको हार्दिक बधाई इस प्रस्तुति पर
संभवतः आयोजन में आपकी पहली प्रस्तुति है और वो भी धमाकेदार
बहुत ही बढ़िया अंत किया आपने लघुकथा का भाई जी, मैं कई बार अपने साथ लेपटॉप नहीं रखता हूँ तो कितने ही लोग कहते हैं कि अधूरा लग रहा हूँ| पहचान रिक्शे की थी लेकिन रमेश के नाम से कायम हो गयी, बहुत बढ़िया रचना है !!
वाह ,वाह सिर्फ वाह अति सुंदर कथा शीर्षक को पूर्णत सार्थक करती हुई |बधाई आ. राजेन्द्र गौर जी सादर
शहर के भागमभाग की जिन्दगी में कब पहचान बदल जाती है पता ही नहीं चलता. आदरणीय राजेन्द्र कुमार जी अच्छी लघुकथा हुई है बधाई स्वीकार कीजिये.
स्थान के अनुसार आदमी की पहचान बदली रहती है. तो आवश्यकता स्थान बदलवाती है.
बहुत अच्छी कोशिश के लिए हार्दिक बधाई.
इस मंच पर स्वागत है आपका, आदरणी.
एक अच्छी लघुकथा के लिए बधाई आपको आदरणीय
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