आदरणीय साथिओ,
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संवेदनशील कथा के लिये बधाई आद० मनन कुमार सिंह जी ।कितना तकलीफदायक होता है जब निर्दोष लोग कुत्सित राजनीति का शिकार हो जाते है ।
बहुत-बहुत आभार आ. नीता कसार जी. उम्मीद करता हूँ कि आपकी यह टिप्पणी मेरी लघुकथा के लिए ही होगी. सादर धन्यवाद.
हार्दिक आभार आदरणीय सतविन्द्र जी। बहुत-बहुत शुक्रिया। सादर।
अंतहीन उड़ान (लघुकथा)
सूरज ढलने को है। मैं अकेला चौपाल में बैठा उन दिनों के याद में खोया हूँ जब शाम होते ही यहाँ जमघट लग जाती थी। पर आज सिवाय कुछ छुट्टा पशुयों के, कोई नजर नहीं आ रहा है। मैं सुनहरे अतीत को वक़्त के हाथों बर्बाद होते देख वक़्त को कोस ही रहा था कि वक़्त ने आवाज दी-
"अरे गाँव भाई! आप उदास लग रहे हो। सब ख़ैरियत तो है?"
मैं वक़्त की ओर रुख करते हुए बोला - "क्या बताऊँ वक़्त भाई! अपने स्वावलंबी स्वरूप को नष्ट होते इन्ही आँखो से देख रहा हूँ। मैं उदास इस बात से हूँ कि भौतिकवादी विकास किस तरह जड़ों से काट कर हर किसी को परजीवी और बेकार बना रहा है।"
"विकास तो अच्छा ही होता है। और विकास तो समय की माँग है। फिर तुझे विकास से ऐतराज क्यों है गाँव भाई?" वक़्त ने तल्ख होकर प्रश्न दागा।
मैनें भी उसी स्वर में अपनी बात कह दी- "विकास से ऐतराज नहीं है वक़्त भाई! पर विकास के साथ गिरते मानवीय मूल्यों और सामाजिकता को एकाकीपन में बदलते देख मन खिन्न है। एक छप्पर उठाने को जहाँ पूरा गाँव चल पड़ता था आज वहीं जनाजा उठाने के लिए भी बमुश्किल से कंधे मिल पा रहे हैं।"
"परिवर्तन तो सत्य सनातन नियम है गाँव भाई। और तुम इससे वाकिफ़ भी हो, फिर? ।" वक़्त उसी बेरुखी से बोला।
मैं लम्बी साँस खिंचते हुए बोला- "हाँ वक़्त भाई! यह परिवर्तन ही तो है। पहले जहाँ पूरा गाँव बाग बगीचे से घिरा रहता था आज वहाँ एक भी पेड़ दिखाई नहीं दे रहा है। जहाँ दूध की नदियाँ बहती थीं, आज पावडर का दूध बाजार से खरीदा जा रहा है। जिस गाँव में बच्चे बाजरे की रोटी शौक से खाते थे आज पिज्जा बर्गर खा रहे हैं।"
"यह तो लोगों की जीवनशैली में सुधार का नतीजा है, इस बात को क्यों नहीं कह रहे हो। आज लोगों का जीवन पहले से कई गुना बेहतर हो गया है।" वक़्त ने तर्क दिया।
मैं वक़्त की बात बीच में काटते हुए बोल पड़ा- "पर लोगों ने खुद को मशीन के अधीन कर लिया है, आप इसे क्यों नहीं कहते? अब तो संबंध भी फोन पर निभाये जा रहे हैं। त्योहार, लोक संस्कृति, लौकिक रीति रिवाज और परम्पराएं सब बेमानी हो गईं सी लगती हैं।"
वक़्त मुझे समझाते हुए बोला- "केवल नकारात्मक पहलू ही क्यों देख रहे हो गाँव भाई? भले यह समय बाजारवाद का है पर इसने लाखों लोगों को रोजी-रोटी भी दिया है। इसी को नई दुनिया कहते हैं।"
मैं चेहरे पर एक व्यंग्यात्मक हँसी लिए बोल पड़ा- ‘‘सच में यह नई दुनिया है वक़्त भाई जो सिर्फ लाभ कमाना चाहती है। सम्बन्ध बनावटी तथ बाजारू हो गए हैं। कभी नंगे और भूखे पेट चहकने वाला गाँव, विदेशी जूतों की आभा देख अचानक कुंठित और अतृप्त नजर आ रहा है। नौजवानों की नई पीढ़ी दारू, पान, बीड़ी और पाउच की दीवानी हो गयी’’
वक़्त ने भी मुझपर तंज कसा- "क्या गाँव भाई! आप भी दकियानूस और लकीर के फकीर सी बात करते हो। आज का युवा पहले से ज्यादा शिक्षित और समझदार है।"
मैं झल्लाते हुए बोला-"हाँ, क्यों नहीं। माँ-बाप ने पढ़ाया-लिखाया, बेटा पत्नी के साथ बाहर जाकर बस गया। उसके पास बच्चों और पत्नी के लिए पैसा है पर माँ-बाप के लिए न पैसा है और न वक़्त। बूढ़ी आँखे इंतिजार करते-करते दम तोड़ दे रही हैं। क्या इसी को आप शिक्षित और समझदार बोलते हो?"
वक़्त इस बार मेरे विपरीत कोई तर्क न दे सका। वह बोला-" हाँ गाँव भाई! मैं भी तुमसे सहमत हूँ। शाम के समय तो पंछी भी अपने नीड़ की ओर रुख कर देते हैं। पर यह इंसान! यह तो ऊँची उड़ान के चक्कर मे वास्तविक रास्ता ही भटक गया है।"
(मौलिक व अप्रकाशित)
आदरनीय सुरेन्द्र नाथ जी आप ने गाँव और वक्त के माध्यम से बहुत अच्छी बात कही है. रचना बहुत बढ़िया बन पड़ी है. बधाई आप को इस सामायिक विषय को नए ढंग से उठाने के लिए.
आद0 ओमप्रकाश क्षत्रिय जी सादर अभिवादन। मेरे सृजन को आपसे मान्यता मिली। लेखन सार्थक हुआ। बहुत बहुत आभार आपका।
बहुत बढ़िया और सचाई को दर्शाती रचना प्रदत्त विषय पर, बहुत बहुत बधाई आपको
आद0 विनय कुमार जी सादर अभिवादन। आपको लघुकथा पसन्द आयी, लेखन सार्थक हुआ। बहुत बहुत आभार
जनाब सुरेंद्र नाथ साहिब, प्रदत्त विषय पर सुन्दर लघुकथा हुई है ,मुबारकबाद क़ुबूल फरमायें।
आद0 तस्दीक अहमद खान जी सादर अभिवादन। लघुकथा पसन्द करने और हौसला अफजाई के लिए कोटिश आभार।
आ० सुरेन्द्र जी , आपने जिस विषय को उठाया और जैसा उसका निर्वाह किया उसके लिए आपको बधाई .मैंने इस मानवीकरण और कहन का पूरा आनंद लिया . पर अंत में जब आपने कथा को नीद की ओर से से जोड़ा तो स्वाभाविकता बाधित सी हो गयी . ऐसा लगा जैसे विषयांतर हो गया . नी\ड की और में एक उत्कंठा एक ललक और तड़प का भाव है . सारी उद्यमता के बाद पक्षी शाम को अपनी नीड की ओर उन्मुख होते हैं .- नीड -- एक ठिकाना , एक विश्राम स्थल . एक बार फिर आपकी वैचारिक संपदा को बधाई . सादर
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