आदरणीय साथिओ,
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आदरणीया शशि बंसल जी आदाब,
प्रदत्त विषय के साथ न्याय करती और भरपूर सामयिकता का पुट लिए सशक्त लघुकथा । हार्दिक बधाई स्वीकार करें ।
हार्दिक बधाई आदरणीय शशि बंसल जी।लघुकथा मार्मिक है लेकिन यह काल खंड की चपेट में आगयी।प्रयास कीजिये, शायद बाहर निकल आये।सादर।
जी आद0 तेज़ वीर सिंह जी , अपनी ओर से तो पूर्ण प्रयास रहता है कालखंड दोष न आये पर सुधीजनों की सलाह है तो पुनः इस रचना पर कार्य कर संशोधित करती हूँ ।आपकी मार्गदर्शन देती प्रतिक्रिया के लिए हृदय से आभार प्रेषित करती हूँ ।सादर ।
सादर आभार एवं धन्यवाद आद0 मोहम्मद आरिफ़ जी
सुंदर कथा के लिए हार्दिक बधाई आ शशि जी|
आदरणीय शशि बंसल जी आप को इस बढ़िया लघुकथा के लिए बधाई .
बहुत अच्छी लगी आपकी लघुकथा आ. शशि बंसल जी. बस थोड़ा सा संपादन कर देंगी तो यह और निखर जाएगी. ढेरों बधाई स्वीकार कीजिए. सादर.
बहुत मार्मिक कथा कही है आदरणीया शशि जी . अपनों के साथ बिताया कोई पल इतिहास बने उसके पहले उसे जी भर जी लेना चाहिए ..हार्दिक बधाई आपको इस कथा पर
मार्मिक और एक अच्छा सन्देश देती हुई रचना कही है आदरणीय शशि जी| सादर बधाई इस सार्थक सृजन हेतु| कहीं-कहीं कुछ जल्दीबाजी में कही गयी सी भी प्रतीत हो रही है|
जैसा अतीत वैसा वर्तमान (लघुकथा)
जनवरी की कड़कड़ाती सर्दी की शाम होने को है। सूरज अभी मजदूरी करके लौटा है। सूरज का घर रेलवे ब्रिज के पास एक स्लम एरिया में है। घर क्या! बस बॉस के खम्बों के ऊपर प्लास्टिक से ढँका एक छत। छत के ऊपर फ़टे टायर वगैरह रखे हुए हैं ताकि तेज हवा में छत उड़ न जाये। घर के अंदर एक मोटी साड़ियों की बुनी हुई लेवा और ओढ़ने के नाम पर फ़टी कम्बल है जिसमें ठंडी किस कदर जाती होंगी, यह उसे ओढ़ने वाला ही बता सकता है। कुछ एलुमिनियम के बर्तन और एक पुरानी सन्दूक।
सूरज को घर आया देख, उसका लड़का जो स्लम के दूसरे बच्चों के साथ खेल रहा था, दौड़ कर आ गया। वह भी इस उम्मीद में कि पापा टॉफी नमकीन आदि लाये होंगे जो अक्सर ही शाम का राशन खरीदते समय फूटकर पैसे न होने से दुकानदार उसके पापा को दे देता है। पर आज दिहाड़ी न मिलने से वह न ही राशन ला पाया और न ही टॉफी। लड़के के बदन पर ही गरीबी अपना असर दिखा रही थी। शर्ट के बटन गायब, पैंट में छेद ही छेद। पैर में गंदगी की मोटी पर्त जमीं हुई है। जूते चप्पल तो जैसे उसके पास है ही नहीं।
सूरज उसको देखते ही पूँछ बैठा- "दिन भर खेल रहे हो। आज स्कूल नहीं गए थे क्या?"
लड़का-"पापा गए तो थे पर आज स्कूल चला नहीं"
सूरज- "क्यों? क्या हुआ?"
लड़का-"जब हम स्कूल पहुँचे तो कुछ लोग उसे बंद करवाने आ गए, वे लोग किसी फ़िल्म का विरोध कर रहे हैं। कह रहे है कि इतिहास के साथ छेड़खानी नहीं चलेगी। अपनी जाति का अपमान बर्दास्त नहीं करेंगे।
सूरज खुद से बड़बड़ाते हुए बोला-"यह भी एक समस्या है सरकारी स्कूल के साथ। आए दिन कुछ न कुछ होता रहता है।"
"पापा! ये जाति क्या होती है?" लड़के ने जिज्ञासा लिए पूछा।
सूरज लड़के को समझाते हुए बोला-"बेटा! जात-पात सब इंसानो का बनाया हुआ ढकोसला है। हम तो दुनिया मे सिर्फ दो ही जाति समझते हैं, एक अमीर की और एक गरीब की।"
"और पापा! ये इतिहास क्या होता है?" लड़के ने दूसरा प्रश्न दागा
सूरज -"बेटा जो पहले की घटना हो वह आज के लिए इतिहास होती है।"
लड़का- "पापा सबका इतिहास होता होंगा?"
सूरज- "हाँ! होता तो सभी का है।"
लड़का - "तो पापा हम लोगों का भी इतिहास होगा। बताइये ना हम लोगों का इतिहास क्या है?"
सूरज- "बेटा हम गरीब लोग हैं। गरीबों की किस्मत में जैसा कल वैसा आज। हमारा सदा से सिर्फ एक ही इतिहास रहा है 'रोज कुआ खोदना रोज पानी पीना'।"
(मौलिक व अप्रकाशित)
ओह,इतिहास का असर वर्तमान के साथ भविष्य पर पड़ना ।बेहद दुखद है ।काश! लेंगे समझते ?बधाई इस कथा के लिये आद० सुरेन्द्र नाथ कुशक्षत्रप जी ।
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