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आदरणीय सुधीजनो,


दिनांक -12 अक्टूबर’ 13 को सम्पन्न हुए ओबीओ लाइव महा-उत्सव के अंक-36 की समस्त स्वीकृत रचनाएँ संकलित कर ली गयी हैं. सद्यः समाप्त हुए इस आयोजन हेतु आमंत्रित रचनाओं के लिए शीर्षक “परम्परा और परिवार” था.

महोत्सव में 25 रचनाकारों नें  दोहा, रोला, कुंडलिया, आल्हा, सवैया, गीत, नवगीत,हायकू, कविता,मुक्तक व अतुकान्त आदि विधाओं में अपनी उत्कृष्ट रचनाओं की प्रस्तुति द्वारा महोत्सव को सफल बनाया.

यथासम्भव ध्यान रखा गया है कि इस पूर्णतः सफल आयोजन के सभी प्रतिभागियों की समस्त रचनाएँ प्रस्तुत हो सकें. फिर भी भूलवश यदि किन्हीं प्रतिभागी की कोई रचना संकलित होने से रह गयी हो, वह अवश्य सूचित करे.

सादर
डॉ. प्राची सिंह
संचालक
ओबीओ लाइव महा-उत्सव

*******************************************************************

1. आ० राजेश कुमारी जी 

(1) 

दुर्मिल सवैया

परिवार वही जिसमे रहते ,कुछ लोग सदा दिल से मिल के

बस रीतिरिवाज वही बढ़िया ,जिनसे मिटते शिकवे दिल के

रस बूँद  बिना निज नेह बिना ,मकरंद पयोधि कहाँ छलके  

*मन सेतु यहाँ ढहते दिखते, जब प्रीत नहीं उर से झलके ॥ 

(2)दो मुक्तक

(१)

रक्त पिपासुओं के सम्मुख ये खंजर क्या तलवार क्या

जो निज  हद को भूल चुके फिर सरहद क्या दीवार क्या

शांत नगर  में आग लगाना ही जिनके मंसूबे हों

उन इंसानों की खातिर  परंपरा क्या परिवार क्या

(२ )

संस्था यदि परिवार है ,परंपरा आधार

बिगड़े दादुर भटक कर,पँहुचे सरहद पार   

परिभाषा परिवार की, यार गए वो भूल   

सिखा रही हैं चींटियाँ ,क्या होते घर बार

2. आ० सौरभ पाण्डेय जी 

नवगीत : परम्परा और परिवार

पीपल-बरगद 
नीम-कनैले 
सबकी अपनी-अपनी छाजन !                      [छाजन - छप्पर, छाया
कैसे रिश्ते, कैसे बन्धन..  

लटके पर्दे से लाचारी 
आँगन-चूल्हा 
दोनों भारी 
कठवत सूखा बिन पानी के                        [कठवत - कठौता, आटा गूँधने के लिए बरतन
पर उम्मीदें 
लेती परथन !                                        [परथन - रोटी बेलते समय प्रयुक्त सूखा आटा 
कैसे रिश्ते, कैसे बन्धन..  

खिड़की अंधी 
साँकल बहरा 
दीप बिना ही   
तुलसी चौरा 
गुमसुम देव शिवाला थामें                         [थामना - सँभालना, निगरानी करना
आज पराये 
कातिक-अगहन ! 
कैसे रिश्ते, कैसे बन्धन..  

कोने-कोने 
छाया कुहरा 
सूरज रह-रह घबरा-घबरा-- 
अपने हिस्से के आँगन में 
टुक-टुक ताके                                         [टुक-टुक ताकना - निरुपाय हो अपलक देखना
औंधे बरतन.. 
कैसे रिश्ते, कैसे बन्धन..  

छागल अलता                                        [छागल - पायल
कोर सुनहरी 
काजल-सेनुर, बातें गहरी                            [सेनुर - सिन्दूर
चुभती चूड़ी याद हुई फिर 
देख रुआँसा 
दरका दरपन ! 
कैसे रिश्ते, कैसे बन्धन..     

3. आ० लक्ष्मण प्रसाद लड़ीवाला जी 

कुंडलियाँ छंद

*पुरखे देते सीख हैं ,रच जाते इतिहास,

वर्षों उस परिवार में, झरती रहे मिठास |

झरती रहे मिठास, सभी मिलजुल कर रहते

रहते सब खुशहाल,  संग सुख-दुख सब सहते 

*सबके मन सद्भाव, रहते न मन से रूखे

परम्परा का भान करा जाते यदि पुरखे ||

(२)

रिश्ते की गरिमा गई, भेद भाव अब आम

नाजुक रिश्ते टूटते, मन को नहीं लगाम |

मन को नहीं लगाम, उदास रहे सब घरमें

टूट रहे परिवार, वृद्ध जन सहते सदमे |

परम्परा की राह, दिखा जाती है पुश्ते,

प्यार अमन सद्भाव बनाते सच्चे रिश्ते | 

4. आ० वंदना जी 

अतुकांत आधुनिक कविता : परम्परा और परिवार 

स्वस्थ परम्पराएं

तराशती हैं

परिवार

ठीक वैसे  ही

जैसे बेतरतीब

किसी जंगल को

सांचे में ढालकर

दिया जाता है

रूप सुन्दर बगीचे का

परम्पराएं

होती हैं पोषित

देश और काल के

अनुशासन में

समष्टि के चिन्तन से

बांधती हैं

मर्यादित किनारे स्वच्छंद नद नालों के

बचा ले जाती है

क्षीण होने से

किसी धारा को

तभी तो

शिव कही जाती हैं

परम्पराएं  !!!

5.आ० कल्पना रामानी जी 

दोहा मुक्तक-

 

छू लेगी ऊँचाइयाँ, वंशबेल फलदार।

परम्परा के बाग में, सहज रोपिए प्यार।

संस्कारों की खाद से, सुदृढ़ होगी नींव,

भाव सलिल से सींचिए, महकेगा परिवार।

 

परम्पराएँ जोड़तीं, बनता शक्त समाज।

भारत के एकत्व का, यही एक है राज़।

भिन्न बोलियाँ, प्रांत हों, महानगर या गाँव,

अलग-अलग परिवेश हैं, मगर एक अंदाज़।

 

जश्न देखकर देश का दुनिया होती दंग।

हर अवसर पर हर्ष से, जब जन होते संग।

रीति-नीति का मेल भी, चढ़ जाता परवान,

सज्जनता सत्कर्म के, गहरे होते रंग।

 

नव पीढ़ी के हित बने, एक सुरक्षित द्वार।

परम्परा से जोड़िए, घर की हर-दीवार। 

अपनेपन के हों अगर, गुंजित हर दिन गीत,

सपने सबके ‘कल्पना’, होंगे तब साकार।

6. आ० सत्यनारायण सिंह जी 

छंद सरसी

संक्षिप्त विधान - प्रत्येक पद 16, 11 पर यति, कुल 27 मात्राएँ , पदांत सम तुकांत तथा गुरु लघु x ४ 

 

प्रथम पाठशाला जीवन की, कहलाता परिवार।

मानव की उन्नति  का हर पल, होता जहाँ विचार ।।

परम्परा में निहित श्रेष्ठ सब, कुलाचार व्यवहार।

सारी रीतिरिवाज कुल प्रथा, संस्कृति शिष्टाचार ।१।

 

दोनों पूरक हैं आपस में, परम्परा परिवार ।

चोली दामन वाला रिश्ता, समझो मेरे यार ।।

परम्परा का करें निर्वहन,  यदि विवेक अनुसार।

विकसित हों परिवार हमारे, सुखमय हो संसार ।२।

                                      

7.आ० सुरिंदर रत्ती जी 

उन लहरों का मचलना,  मिलन करे किनारों से

यह ज़िन्दगी भी पनपती, खिले वो परिवारों से

इन रिवाजों के भवंर का, कुछ तो होता है असर

दे सदा आबाद कुनबे, ऊँचे बड़े मीनारों से

क़ुरबानी की बुनियाद पे, उम्मीद टिकी सदियों तलक

जांबाज़ की तस्वीर भी, सजती रही दीवारों से

नाते-रिश्तों की जंजीरें, मज़बूत हैं फोलाद सी

महक़ उठती प्यार की, दिल के गलियारों से

वक़्त की दुश्वारियां, लेती रहेंगी इम्तेहां

खानदान महफूज़ "रत्ती" , बचाये गुनहगारों से .....

8. आ० सचिन देव जी 

कहाँ हैं वो परम्परा कहाँ अब परिवार जा रहे हैं

पहले सा वो प्यार कहाँ सब सिमटते जा रहे हैं

खत्म होती माँ के दूध पिलाने तक की परम्परा

बच्चे भी अब बोतल के दूध से पाले जा रहे हैं

दूर होता बच्चों से माँ का आँचल अब तो  

दुधमुँहे भी आया के साये मैं पाले जा रहे हैं

पालन की इस नई परम्परा पालने वालों को

फिर भी बच्चों मैं श्रवणकुमार नजर आ रहे हैं

पर इस परम्परा मैं पलते श्रवण कुमार

माँ – बाप को अब तीरथ – धाम नहीं

वृद्धावस्था मैं वृद्धाश्रम लेकर जा रहे हैं

9. आ० विन्ध्येश्वरी त्रिपाठी विनय जी 

आर्यपुत्र आ लौट (रोला गीत)
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हम ऋषि के संतान, विश्व परिवार हमारा।
शांति शांति बस शांति, यही था अपना नारा॥
भूले हम यह ज्ञान, बने फिरते बेचारा।
आर्यपुत्र आ लौट, देश ने तुझे पुकारा॥

भारतवंशी जाग, आत्मगौरव को पाओ।
स्वर्ग सदृश यह देश, इसे फिर स्वर्ग बनाओ॥
सत्य, अहिंसा, त्याग, त्याग पश्चिम स्वीकारा।
आर्यपुत्र आ लौट, देश ने तुझे पुकारा॥

परम्परा वह राम, भरत, लक्ष्मण के जैसी।
सकल विश्व को छान, कहाँ पाओगे ऐसी॥
भौतिक सुख का लोभ, समझ मृग- तृष्णा सारा।
आर्यपुत्र आ लौट, देश ने तुझे पुकारा॥

मात- पिता, गुरुश्रेष्ठ, धरा के देव कहाए।
पर्यावरण बचाव, हेतु जड़ पूज्य बताए॥
भारी है अन्याय, सत्य झूठे से हारा।
आर्यपुत्र आ लौट, देश ने तुझे पुकारा॥

धर्म अहिंसा श्रेष्ठ, किन्तु कायरता है क्यों?
भरत वंश के लाल, शत्रु से डरता है क्यों?
सीमा पर घुसपैठ, शत्रु ने फिर ललकारा।
आर्यपुत्र आ लौट, देश ने तुझे पुकारा॥

भारत राज्य अखण्ड, खण्ड फिर क्यों करते हैं?
एक मनुज परिवार, जाति में क्यों बंटते हैं?
टूट रहा परिवार, नष्ट है भाई चारा।
आर्यपुत्र आ लौट, देश ने तुझे पुकारा॥

10. आ० सविता अग्रवाल जी 

चौका :

परम्पराये
निभाओ तो उसूल 
न निभाओ तो 
हैं अवधारणाये 
वक़्त सहेजे 
उर में ये अपने 
आज में देखे 
बीते हुए सपने 
जटिल होते 
जो गर जाये थोपे 
कभी न बने 
अनचाही रूढ़ियाँ 
मिटाए गर 
रिश्तो में से दूरियां 
थोडा जटिल 
गर बने सरल 
सहेज लेंगे 
कोमल भावनाये
ये परिवार 
परम्पराये ही तो 
होती आधार 
रिश्तो के वृक्ष पर 
बन रहती 
विश्वाश की लतायें
मजबूती से 
थामे हैं जब 
आज में बीता कल 
तभी बनती 
परम्परा -विश्वाश 
परिवार की साँस........

11आ० सरिता भाटिया जी 

(1) दोहे 

परिवार की परम्परा, है जीवन आधार 
संस्कारों का निर्वहन महकाता परिवार//

अभिवादन सुन्दर सरल करें जो नमस्कार
बसता है चैनों अमन,संस्कारी परिवार//

पुरखों की तुम सीख को देना हरपल मान
साथ हो परिवार अगर बढता है सम्मान//

पूजनीय रिश्ते बनें उनमें अगर मिठास
परम्परा निभती रहे ले सुन्दर अहसास//

परिवार इकाई प्रथम देता सुदृढ़ समाज 
अब बिखरे परिवार हैं जैसे बिगड़ा साज //

नवीनता की होड़ में टूट रहे परिवार
अब संयुक्त विलुप्त हैं एकल हैं स्वीकार//

*संशोधित दोहे 

(2)

परम्पराएँ न निभाओ यारो
अब रावण न जलाओ यारो|

पर स्त्री पर नज़र जो डाली
उसको अच्छा सबक सिखाया 
उसकी एक बुराई लेकर ,
अब तक उसको खूब जलाया
विद्द्वान पंडित की दुर्दशा कर,
बच्चों को न कुछ भी सिखाया
राम ने लक्ष्मण को भेजक़र
रावण से थी सीख दिलाई 
ऐसे विद्वानों से सीख लो 
बुराई का फल बुरा हुआ है 
अपनेआप को जीत लो पहले
फिर किसी को हराओ यारो|

परम्पराएँ न निभाओ यारो 
अब रावण न जलाओ यारो|

रावण जैसे मंहगाई बढ़ गई 
भ्रष्टाचार,कालाबाज़ारी
और धोखाधड़ी आम हो गई 
अंदर है जो कुंभकर्ण सोया 
नींद से उसको जगाकर 
अब तो सरकार हटाओ यारो 
पहले जिसने पाप न किया हो 
वोही पुतला जलाओ यारो|

परम्पराएँ न निभाओ यारो 
अब रावण न जलाओ यार|

गली गली जो रावण बैठा
नेता रावण पंडित रावण 
फिर कैसा रावण दहन ? 
इनको अच्छा सबक सिखाकर 
कानून की जो धज्जियाँ उड़ायें 
उनको सही रास्ते लाकर 
बलात्कार,भ्रूणहत्या के जहर से 
माँओं बहनों को बचाकर 
परिवार समाज बचाओ यारो|

परम्पराएँ न निभाओ यारो 
अब रावण न जलाओ यारो|

पुरानी परम्पराएँ तोड़कर 
नया सवेरा फिर से लाकर 
स्नेह से परिवार को सींचों 
अब न तुम रेखाएं खींचो 
दूसरों पर आरोप से पहले 
दस बुराइयाँ मार कर अपनी
दशावतार जगायो यारो|

परम्पराएँ न निभाओ यारो 
अब रावण न जलाओ यारो||

12. आ० गीतिका वेदिका जी 

विधा : दोहा मुक्तक

कमरा खिड़की गृहस्थी औ कोई दीवार

परिजन होते साथ जब कहलाता परिवार

परंपरा थाती हुयी बढ़ें वंश के संग

परम्परा परिवार मिल बनते है आधार

परम्परा पिछली कई बनतीं है गलफाँस

जीना भी मुश्किल करें, लेना दूभर साँस

मिले अगर कुछ नम्यता, हो जीवन उपचार

या फिर सड़ता जान दें, फाँस मे फँसा माँस

 

13.आ० अविनाश बागडे 

(1)कुण्डलियाँ 

परंपरा परिवार की चलती सालो साल। 

बड़े बुजुर्गों ने रखा इसको खूब  संभाल।।  
इसको खूब संभाल,आज है बारी अपनी। 
इसे जतन से थाम  ,नहीं तैयारी अपनी।।
कहता है अविनाश ,जमा है कितना कचरा !
रुग्ण हुये परिवार ,थक चुकि आज परंपरा।।
(रोले  )
परंपरा की डोर ,बंधे परिवार समय के। 
जुड़े हुए है बन्ध ,परस्पर यहाँ ह्रदय के।। 
पुलकित है वो पंथ,जहाँ है आज सुघड़ता। 
तरल तरल हर बात ,नहीं थोड़ी भी जड़ता। 
कहता है अविनाश ,मिले बस वहीँ  सफलता।।
परम्परा का फूल, जहाँ पे हर पल खिलता। 
कहते हैं परिवार ,सफलता  की  है  धूरी। 
परम्परा का  वास ,  करे हर मन्नत पूरी।।

(2)ऐसी नहीं होती परम्पराएँ !

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गर्भ में ही बच्चियों को मार गिराए !
ऐसी नहीं होती परम्पराएँ !
दहेज़ की बलिवेदी पे बहुएं जलाये !
ऐसी नहीं होती परम्पराएँ !
प्रेमियों को नफ़रत की आंच दिखाए !
ऐसी नहीं होती परम्पराएँ !
ऊँच-नीच की दीवारों तले रौब दिखाए !
ऐसी नहीं होती परम्पराएँ !
बेटा जन्मे तो ख़ुशी,बेटी पे मातम मनाये! 
ऐसी नहीं होती परम्पराएँ !
प्रवचन के नाम पे ईश्वर को बेचा जाये !
ऐसी नहीं होती परम्पराएँ !
बलात्कारीयों  को धर्म की  आड़ बचाए !
ऐसी नहीं होती परम्पराएँ !
धर्म के नाम पे आस्तिक-जनों को डराए! 
ऐसी नहीं होती परम्पराएँ !
परम्पराएँ तो वो है जो नई राह दिखाए। 
परम्पराएँ तो वो है जो इतिहास बताये।
परम्पराएँ तो वो है जो पहचान बनाये। 
परम्पराएँ तो वो है जो परिवार सजाये। 
अपने स्वार्थ की धुरी पर जो मुस्कुराये 
ऐसी नहीं होती परम्पराएँ !
ऐसी नहीं होती परम्पराएँ !

14.आ० नीरज कुमार नीर जी 

(1)

मोटे जड़ वाला बरगद का घना पेड़

बचाता रहा धुप  और पानी से

जेठ की तपती दुपहरी में भी

भर देता शीतलता भीतर तक

निश्चिन्तता के साथ आती खूब गहरी नींद

बरगद से निकल आयी अनेकों जड़ें

थाम लेती  फैलाकर बाहें

हर मुसीबत में,  और देती  उबार

बरगद को चढ़ाते है लाल सिंदूर

और बांधते है धागे एकता के

बरगद के साथ अपनी एकात्मता जताने के लिए

लेकिन अब बरगद की जड़ें काटी जा रही है

बरगद की जगह लगा रहें है

बोगन वेलिया के फूल .

(2)

तात, मात , भ्रात, भगिनी

सूत, सूता , जीवन संगिनी

होते जहाँ जीवन आधार

सुखमय इस संसार में

कहते हैं इसको परिवार

 

सुख में, दुःख में साथ रहे

पीड़ा सब मिल बाँट सहे

बड़ों का आदर, छोटों को प्यार

सुखमय इस संसार में

कहते हैं इसको परिवार.

 

तीन पहर उमंग में संग

चौथे पहर की लाठी

हर दिवस बीते ऐसे

जैसे मनता हो त्यौहार

सुखमय इस संसार में

कहते हैं इसको परिवार.

15.आ० महिमा श्री जी 

नवरात्री आ गई

सोच रही हूँ माँ तुम्हें

गंगा स्नान के बाद

आज भी लगाती हो तुम आलता

पायल सजे पैरो में

देवी पूजन से पहले

सजती हो देर तक

फिर तैयार करती हो पूजन सामग्री

भोग के लिए खीर , पुए , चूरन , चरणामृत

फल , फुल

हवन समाग्री की लिस्ट को एक बार

मिलाती कहीं कुछ छुट तो नहीं गया

सजाती हो रंगोली

हल्दी , चावल और कुमकुम से

फिर कलश स्थापना करती हो

माँ दुर्गा की सजी तस्वीर

बैठा चुकी होती हो चौकी पर

गंगा जल अंजुरी भर कर

ओउम पवित्रो पवित्र: का सस्वर पाठ  कर

सबके कल्याण के लिए कर जोड़

शुरू करती हो दुर्गासप्तशती

साथ में जलता है नौ दिन अखंड  दिया

माँ  जानती हो

इनदिनों  मेरे लिए तुम

साक्षात् देवी हो जाती हो

मैं  तुम्हें अपलक निहारा करती हूँ

परम्परा की ये थाती

मैं भी संभालुंगी एक दिन

जानती हूँ

16.आ० रमेश कुमार चौहान 

(1)हाइकू

टूटता घर,
अपना परिवार,
स्नेह दुलार ।

रूठे अपने,
टूट रहे सपने,
ढूंढे छुपने ।

कहीं दिखे है ?
एकसाथ हैं भाई ?
दुलार करें ।

संस्कार लुप्त,
परम्परा सुसुप्त
कौन है तृप्त ?

संस्कार क्या है ?
कौन नही जानता ?
कौन मानता ??

नवाचारीय,
कैसे बनी कुरीति ?
अपनी रीति ।

मान सम्मान,
परम्परा का पालन
मनभावन ।

17.आ० केवल प्रसाद जी 

दोहे 

संयोंजन गुरू-मात का, दया ज्ञान उपकार।
परम्परा  परिवार  से, दृढ़  होता संसार।।1

मां की ममता छावं में, फुटकर  से  है  धूप।
आंचल में बस दूध है, आदि शक्ति अनुरूप।।2

कोटि-कोटि सुख साथ में, संयम का अभिचार।
पुष्ट  करे  परिवार  को,  पिता  एक  आधार।।3

सूर्य ज्ञान प्रकाश यहां, नव बिम्बों  के रंग।
परम्परा  उदगार  है,   त्यौहारो  के  संग।।4

नर-नारी उपक्रम हुए, मात-पिता सा नाम।
उत्पादन जन-जीव है,  बने  इकार्इ  धाम।।5

परिवारों  की  देन  है, गांव-समाज-सुदेश।
फलीभूत सुसंस्कृति से, परम्परा औ वेश।।6

एकाकी  परिवार  से,  सुध्दृढ़  रहे  संयुक्त।
संस्कार नित प्रेम मिले, आशीष स्नेह युक्त।।7

18.आ० अरुण कुमार निगम जी 

तू जिसको घर कहता पगले , जिसको कहता है संसार
उसको  तो  मैं  पिंजरा  मानूँ, जिसमें पंछी हैं कुल चार ||
नील गगन उन्मुक्त जहाँ हो, दसों दिशाओं का विस्तार
वही  कहाता  है  घर - आंगन , वही  कहाता  है परिवार ||

राम – लक्ष्मण जैसे भाई –भाई में निश्छल था प्यार
दादा - दादी, ताऊ – ताई  का मिलता था  जहाँ दुलार ||
चाचा– चाची,बुआ बहनिया,माँ की ममता अपरम्पार
बेटे – बेटी  की  किलकारी  और  पिता  थे  प्राणाधार ||

साझा चूल्हा नहीं जला औ’, सुख की बहती थी रसधार
चाहे सीमित थी  सुविधायें, घटा नहीं  सुख का भण्डार ||
परम्परा  पल्लवित  जहाँ  थी , पोषित होते थे संस्कार
कहाँ  गये  वे  दिवस  सुनहरे, कहाँ खो गये वे घर-बार ||

अंडे  से  चूजे  ना  निकले , चले  घोंसला अपना छोड़
सुविधाओं की भाग-दौड़ में, रिश्तों से अपना मुँह मोड़ ||
नई  सभ्यता  पापन आई , किया नहीं था अभी प्रहार
परम्परा  के  जर्जर  पर्दे ,  दरक  गई  घर  की  दीवार ||

पश्चिम से यूँ चली आँधियाँ, दे बरगद के तन पर घाव
बूढ़ी आँखें  देख  न  पाईं , जड़  से  शाखा का अलगाव ||
नागफनी  चहुँदिश  उग  आई , हुये  बाग के सपने चूर
परम्परायें   सिसक  रही  हैं ,  संस्कार  भी  है  मजबूर ||

तुम्हीं बताओ कैसे समझूँ, पिंजरे को अब मैं घरद्वार
साँकल  की हैं  चढ़ी  त्यौरियाँ, आंगन-आंगन है दीवार ||
कटे  हुये  पर धुँधली आँखें, क्या देखूँ नभ का विस्तार
बंदीगृह – सी   लगे   जिंदगी ,  आँसू - आँसू  पहरेदार ||

19.आ० सुशील जोशी जी 

परंपरा एवं परिवार

एक मंत्री जी के नेता सुपुत्र पर

उसकी पत्नी ने लगाया

दूसरा विवाह करने का आरोप,

इस पर भी सुपुत्र ने छोड़ी नहीं ‘होप’,

वह पहले तो बौखलाया, फिर झल्लाया,

और अंत में खूब सोचकर अपने मंत्री पिता के साथ

मीडिया के समक्ष आया,

कहने लगा –

“भाइयों मैं आपसे करता हूँ एक सवाल,

मेरे विवाह पर क्यों मचा है बवाल,

हाँ यह सच है कि मैं दूसरा विवाह कर रहा हूँ,

लेकिन मैं तो अपने परिवार की परंपरा का

निर्वाह कर रहा हूँ,

मेरा तो दूसरा ही अधर में पड़ा है,

वह देखो,

वह मेरी चौथी माँ का बेटा खड़ा है।“

इस बात पर मीडिया वाले चौंके,

माइक का मुँह मंत्री जी की ओर होते ही

मंत्री जी गुस्से में भौंके,

“अरे झूठ बोलता है ससुरा,

हमें तो यह ख़बर ही बबाल लगती है,

सच कहें तो विपक्ष की चाल लगती है,

हमारा बेटा भी उनकी बातों में आ रहा है,

खुद को बचाने के लिए हमको फँसा रहा है,

जिसे वह अपनी चौथी माँ बताता है,

उससे तो हमारा केवल कुछ पलों का ही नाता है।”

इतना सुनते ही वहाँ उपस्थित भीड़ ने

दोनों बाप-बेटे को जमकर पीटा,

वहाँ से थाने तक घसीटा,

आज दोनों ही जेल में बंद होकर

आह भर रहे हैं,

और शायद नेताओं की एक और परंपरा का

निर्वाह कर रहे हैं।

20.आ० गिरिराज भंडारी जी 

दोहे – सात
परम्परा ही होत है , हर कुटुम्ब आधार
*सुख शान्ति का मूल यही, कर ले तू स्वीकार

परम्परा जो जोड़ती , वो ही सच के पास
जो खाई खोदे वहाँ , मत करना विश्वास

मिल जुल दुख सुख सब सहें, यह कुटुम्ब का सार
भाई भाई लड़ मरें , ये कैसा परिवार

चरण छुवे छोटे सभी , बड़े देत आशीष

परम्परा कहती यही , रोज नवायें शीश

पहले पावक भोग दें, तब गौ भोग लगाय

इष्ट परोसा फिर करें, तभी गृहस्थी खाय

कुटुम्ब जो संयुक्त हो, दुख सब रेत समान
पर्वत मिल सब तोड़ दें, ऐसी ताकत जान

हर कुटुम्ब को जोड़ती, मुँह के मीठे बोल
मन से कालिख पोंछ के, शब्द शब्द को तोल

21.आ० अखिलेश कृष्ण श्रीवास्तव जी 

परम्परा - परिवार से होगा भारत का उद्धार ॥  

                                                                    

टूट  रही  हैं  परम्परायें, बैसाखी  पर  है  परिवार ।                                        

ऐसी चली पश्चिम से आँधी, बिखर गये लाखों परिवार॥                                 

 

सांस्कृतिक प्रदूषण फैलाये, बरसों भारत पर राज किये।                                   

ऐसे लुटेरे , गुरु हमारे, स्वास्थ्य, शिक्षा सब है व्यापार॥   .

 

पब, रेव-पार्टियाँ, डिस्को, बार, यही शहर की संस्कृति है।                                      

युवा पीढ़ी को  होश कहाँ है, लगते  बरसों के बीमार ॥    

 

भाषा विदेशी, शिक्षा  विदेशी, सोच हमारी  विदेशी है ।                                  

शुरुवात में अच्छा लगता है, पर बाद में सब कुछ बंटाढार॥

 

तन से हम आजाद हुये, पर मन से गुलामी करते हैं ।                                  

हर व्यक्ति यहाँ पे बिकाऊ है, हर रोज यहाँ लगता बाज़ार॥               

 

ऊँचे लोग, ऊँची पसंद, पर सोच है जिनकी उधार की।                                      

क्या ऐसे ही लोग करेंगे, सनातन - भारत का उद्धार॥      

 

अट्टहास करता मैकाले, हमारी - तुम्हारी बेवकूफी पर।                                    

एक अकेला सब पर भारी, या हम ढोर हैं या हैं गंवार॥

 

मर्यादाहीन, स्वेच्छाचारी, यह जीवन बीच भँवर में है ।                                    

परिवार की नैया पार लगेगी, परम्परा यदि है पतवार ॥

22.आ० बृजेश नीरज जी 

आहट

 

कभी हँसती-खेलती

इठलाती पगडंडी

आज उदास, खामोश है

घास के बीच

दुबली-पतली लकीर सी

 

पेड़ से झड़े

सूखे पत्तों से

ढक गया तन

 

यह राह ठिठक जाती है

उस मकान के द्वार

जो स्मृतियों के बोझ तले

ढहने लगा है 

 

किवाड़

खुलने के नाम पर

कराह उठते हैं

 

भीतर घोंसले में है  

एक जोड़ा कबूतर

 

किलकारियों से गूँजने वाले

आँगन में

अब हर तरफ है

प्रतिध्वनियों की सांय-सांय

 

दिन भर जलने वाले

चूल्हे में उभर आईं

दरारें

 

ओसारे में

कुछ किरचियाँ सी चुभती हैं

 

पास के कुएँ की ईंटें

दरक गई हैं

 

जगह-जगह उग आयें हैं

खर-पतवार

न शहनाई, न मातम

न बरता है दिया

देहरी पर

 

रोज साँझ ढले

अस्त होते सूर्य की

किरनें

आ जाती हैं

टटोलने कोई आहट 

23.आ० कवि राज बुन्देली जी 

मत्त-गयंद सवैया :-
==============
रीति रिवाज़ सबै हित कारक, दॆत हमैं सुचि ज्ञान प्रकाशा !! 
नीक लगै बहु सीख मिलै नित, प्रीत बढ़ै हिय हॊइ हुलासा !!
आरति वंदन गीत सु-मंगल, दीपक ज्यॊति करै तम नाशा !!
कंठ सुकंठ कथा सबहीं मिलि, बाँचहिं मानस मंजुल भाषा !!

माघ नहाँइ सबै सखियाँ मिलि, वॆद पुराण रहॆ ऋषि भाषी !!
फागुन फाग मचै हुड़-दंगल, चैतहिं चित्त चढ़ै मद साखी !!
दॆह जरै  बइसाख तपै जब, जॆठ उड़ैं मधु  कैटभ  माखी !!
आइ अषाढ़ गयॊ सखि झूमत,सावन भूल सकै नहिं राखी !!

नॆह दुलार भरा अस आँगन, सागर बीचि भरा जस पानी !! 
शील सुशील सनॆह सुहावन, भाँषति सुन्दर बॊलि सु-बानी !! 
ज्ञान विकास सदा करती वह, मॊहि रही मन रॊज कहानी !! 
मातु सुनावत साँझि भयॆ नित, कौनहुँ रॊज सुनावत नानी !!

है परिवार वही सुचि सुंदर, एक रहैं सबु नीक भलाई !!
नॆह सनॆह सदा बरषै गृह,मातु-पिता भगिनी अरु भाई !!
सूझहिँ बूझहिँ बात परस्पर,पूछहिँ क्षॆम सदा कुशलाई !!
हॊंइ सदा सनमान शिरॊमणि,बूढ़न कै कुल पै परछाई !!

24.आ० अजीत शर्मा 'आकाश' जी 

दो कुण्डलियाँ

[1]

देखो कैसी चल पड़ी है पश्चिमी बयार

टूट रहे हैं लोग अब, बिखरे हैं परिवार .

बिखरे हैं परिवार, न कोई साथी संगी

दिन  बेचैनी युक्त  और  रातें  बेरंगी .

अब पश्चिम का मोह हटाओ,त्यागो,फेंको

भारतीय सुविचार  बन्धु  अपनाकर देखो .

 

[2]

अग्रज को सम्मान दें और अनुज को प्यार

प्रेमामृत बरसायेँ तो  पुलकित  हो  परिवार .

पुलकित हो परिवार, यही  तो परम्परा है

पितृ तुल्य आकाश  और  माँ वसुन्धरा है .

लें पावन आशीष और पायें विजयी ध्वज

दिखलाते  हैं मार्ग  हमेशा  हमको  अग्रज .

25.आ० मंजरी पाण्डेय जी 

परिवार सब  बंट गए

विवादों से पट गए !

मौके  बेमौके  कभी

ज़रूरत पर सट गए !

         किताबों मे पढाया जाता

         परिवार की परिभाषा !

         माता पिता और बच्चे

         परिवार मे अंट गए  !

परम्पराएं छूट  रहीं

सब मायने बदल गए  !

मदर्स फ़ादर्स  डे  के

आयोजनों मे सिमट गए !

           कहां –कहां से सारी. दुनिया

           काशी दौडी आय  रही !

           यहां धर्म के नाम पर

           चूना लगाने मे डट गए  !

कोई मस्ती नही यहां पर

नाच गाने धमाल बगैर !

अखबारों के आधे पन्ने

इन सबसे  पट गए  !

                मानवता हो रही शर्मसार

               रिश्ता हो रहा तार-तार  !

               आधुनिकता के नाम पर

               अपनों से  कट गए   !

 अधिक क्या कहें क्या -क्या

 “परिवार  बनाम  परंपरा” !

 बन कर महज़ विषय एक

 वाद-विवाद मे बंट गए !

                डर है खो न जाएं कहीं

                झंझावातों में हम पड्के !

                आओ“मञ्जरी”वाद छोड सब

                काम करें  कुछ हट के  !

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Replies to This Discussion

       आदरणीय अरूण निगम जी , रचना के लिये बधाई स्वीकारें ! ऐसे आयोजन और ऐसी रचनायें ही परंपराएं सहेज रही हैं ! अन्यथा इस पीढी को तो कुछ पता भी न लगे  !

           साझा चूल्हा नहीं जला औ’, सुख की बहती थी रसधार
चाहे सीमित थी  सुविधायें, घटा नहीं  सुख का भण्डार ||
परम्परा  पल्लवित  जहाँ  थी , पोषित होते थे संस्कार
कहाँ  गये  वे  दिवस  सुनहरे, कहाँ खो गये वे घर-बार ||

आदरणीय अविनाश बागडे जी बहुत बहुत बधाई सारगर्भित रोले, कुन्डलियों के लिये   !

            

      आदरणीया सरिता जी सुन्दर दोहों के लिये साधुवाद !

                              परिवार की परम्परा, है जीवन आधार 
                             संस्कारों का निर्वहन महकाता परिवार//     

       आदरणीय विन्ध्येश्वरी त्रिपाठी जी बहुत सुन्दर रोला गीत हेतु बधाई ! 

            मात- पिता, गुरुश्रेष्ठ, धरा के देव कहाए।
पर्यावरण बचाव, हेतु जड़ पूज्य बताए॥
भारी है अन्याय, सत्य झूठे से हारा।
आर्यपुत्र आ लौट, देश ने तुझे पुकारा॥

    

    आदरणीय लक्ष्मण प्रसाद लडीवाला जी  कुण्डलियां मिठास घोलती हैं मन सरस होता है ! बधाई !

        पुरखे देते सीख हैं ,रच जाते इतिहास,

       वर्षों उस परिवार में, झरती रहे मिठास |

        आदरणीया वंदना जी, रचनाधर्मिता हेतु बधाई !

आदरणीय डॉ साहिबा महोत्सव के सफल सञ्चालन एवं संकलन प्रकाशन हेतु बधाई एवं साधुवाद ....

आ० नीरज जी 

सादर धन्यवाद !

मित्रो,  सबसे पहले विजय दशमी की शुभ कामनायें । पिछले कई महीनो से मैं व्यस्तता के कारण ओबो से दूर हो गया हूँ,  कई बार रचना लिखने के बाद पोस्ट नहीं कर पाया, आप जैसे गुनी जानो की संगत से अपनी कलम को तेज़ बनाना चाहता हूँ -   "ओ बी ओ लाइव महा उत्सव" अंक - 36 - सफलता के साथ संपन्न हुआ इसका श्रेय प्रबंधन टीम को जाता है। शनिवार को किन्ही कारणो से फिर आपकी टिप्पणियाँ नहीं पढ पाया उसके लिए मैं क्षमा चाहता हूँ । मैं गिरिराज भंडारी जी , सरिता भाटिया जी, केवल प्रसादजी, अविनाश बागडे जी, डोक्टर प्राची सिंह जी, महिमा श्री, कल्पना रमणी जी, वंदना जी, ब्रिजेश नीरज जी, अरुण कुमार निगम, अखिलेश श्रीवास्तव जी, सौरभ पाण्डेय साहब, अरुण शर्मा जी, गणेश बागी जी, लक्ष्मण प्रसाद जी, सुशिल जोशी जी, गीतिका 'वेदी" जी,  जीतेन्द्र गीत जी आप सब का आभारी हूँ आपने मेरी छोटी से रचना को सराहा और सारे कवियों की रचनायें एक साथ पड़ने को मिलीं वह भी बड़ा सराहनीय कार्य है ओबो प्रबंधन टीम का भी आभारी हूँ - सुरिन्दर रत्ती - मुंबई 

आदरणीय सुरेंद्र जी... आपने अपनी निजी व्यस्तताओं के बाद भी साहित्य के साथ अपना रिश्ता निभाया, यही हम सब के लिए गौरव की बात है.... इसमें क्षमा माँगने जैसी कोई आवश्यकता नहीं है..... कई कार्य ऐसे होते हैं जिन्हें नज़रंदाज नहीं किया जा सकता.... फिर भी आप जितनी देर के लिए भी मंच पर पधारे, इसके लिए हम कृतज्ञ हैं..... सादर

आदरणीय सुरिंदर रत्ती जी 

कई बार व्यस्तताएं हमें मजबूर किये रखती हैं... फिर भी हम सब ही गुंजाइश भर अपने अपने जीवन से पल चुरा कर साहित्य को समर्पित करते हैं... मूल में यह समर्पण भाव ही हम सबको नया सीखने के अवसर सुलभ कराता है.. 

यह समर्पण बना रहे.. यही शुभकामना है

आयोजन में और संकलन में आपकी उपस्थित इस समर्पण के प्रति आश्वस्त करती है..

सादर.

आदरणीया प्राची जी बहुत बहुत धन्यवाद संकलन के माध्यम से रचनाओं को फिर से पढना सुखद लगा

आदरणीय बृजेश जी की रचना आहट नहीं पढ़ी थी शानदार रचना है बहुत2 बधाई  

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