आदरणीय साथिओ,
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आदरणीय तसदीक अहमद जी, बहुत ही बढ़िया विषय वस्तु है लघु कथा की । बधाई स्वीकार करें ।
मुह तरमा नीलम साहिबा, लघुकथा पसंद करने और आपकी हौसला अफज़ाई का बहुत बहुत शुक्रिया |
डर और सहम के साये में विचरण करती बच्चियों का दर्द उभर कर सामने आया है आ० तस्दीक अहमद खान साहिब. रचना के सकारात्मक अंत से यह भी सिद्ध होता है कि निराशा के इस माहौल में भी आशा की किरने कहीं न कहीं से नमूदार हो ही जाती है. इस उत्तम लघुकथा हेतु हार्दिक बधाई प्रेषित है. वैसे रेहाना के स्थान पर गुड्डी नाम देकर रचना का दायरा और विस्तृत किया जा सकता था.
मुहतरम जनाब योगरज साहिब , लघुकथा पर आपकी सुंदर प्रतिक्रिया से लिखना सार्थक हो गया | आपकी हौसला अफज़ाई का बहुत बहुत शुक्रिया | आपका मशविरा सही है |मूल रचना में गुड्डी कर लूंगा | सादर
सकारात्मक सोच का संचार करती बेहतरीन लघुकथा के लिए हार्दिक बधाई स्वीकार करें आदरणीय तस्दीक़ अहमद साहब ।
मुहतरम जनाब आरिफ साहिब, लघुकथा पसंद करने और आपकी हौसला अफज़ाई का बहुत बहुत शुक्रिया |
हार्दिक बधाई आपको आ. तस्दीक अहमद खान जी । डर विषय को उम्दा तरीके परिभाषित कर रही हैं आपकी कथा।
मुह तरमा नैना साहिबा, लघुकथा पसंद करने और आपकी हौसला अफज़ाई का बहुत बहुत शुक्रिया |
डर
‘‘ क्यों दादा ! उस दूकान पर नौकरी करने वाले ये सज्जन कौन हैं, उम्र के अंतिम समय में भी बड़ी तल्लीनता से जुटे रहते हैं, किसी से बातचीत भी नहीं करते और हमेशा प्रसन्न ही देखे जाते हैं’’
‘‘ कौन ? वो ‘किराने’ की दूकान पर ?
‘‘ हाॅं , वही ।’’
‘‘ जानकर क्या करोगे, मैं उन्हें अच्छी तरह पहचानता हॅूं परन्तु उन्होंने अपने बारे में किसी से कुछ भी बताने के लिए मना किया है ।’’
‘‘ पर क्यों , क्या किसी का कत्ल करके छिपा हुआ है ?’’
‘‘ नहीं , ऐसा तो स्वप्न में भी न सोचना, समझे ? ’’
‘‘ तो ऐसा रहस्य क्या है जो गोपनीय रखा गया है ?’’
‘‘ अरे क्यों कुरेदते हो, बात स्वाभिमान की है और कुछ नहीं ।’’
‘‘ अरे भाई ! मैं जान जाऊंगा तो कौनसी मुसीबत आ जाएगी, जानकर हम भी प्रोत्साहित होंगे और दूसरों को भी प्रोत्साहित करेंगे। ’’
‘‘ यही तो डर है, उन्हें पता चल गया तो वे उसी क्षण चले जाएंगे और मैं नहीं चाहता कि वह यहाॅं से जाएं ’’
‘‘ तो तुम अपने किसी स्वार्थ के लिए ... ?’’
‘‘ नहीं , नहीं , वह बात नहीं है वास्तविकता पता चल जाने पर यहाॅं उन्हें कोई भी व्यक्ति अपने घर में नहीं रखेगा; मैं नहीं चाहता कि इतना आदरणीय विद्वान व्यक्ति मुझ रिटायर्ड फौजी के कारण व्यर्थ ही कष्ट उठाए ।’’
‘‘ अब तो आपने और अधिक उत्सुकता बढ़ा दी है, मैं कसम खाता हूॅं किसी को नहीं बताऊंगा परन्तु सच्चाई जानकर मैं अपने को धन्य ही समझूंगा।’’
‘‘ तो सुनो, जहाॅं मैं सैनिक था उसी राजदरवार में यह सज्जन मंत्री थे, बड़े ही विद्वान और सबके आदरणीय। अचानक उनके मन में यह बात आई कि केवल अपना पेट पालने के लिए मैं राजा की झूठी प्रशंसा कब तक करता रहॅूंगा; उसकी हाॅं में हाॅं कब तक मिलाता रहॅूंगा, जिस काम के लिए यह जीवन मिला है वह तो कभी कर ही न पाऊंगा और, अगले ही क्षण वे किसी को बिना बताए अपनी सम्पत्ति और उस राज्य दोनों को छोडकर वेश बदलकर यहाॅं छः घंटे काम करने लगे, शेष समय में अपना असली काम।’’
मौलिक व अप्रकाशित
अपनी अंतरात्मा के मरने का डर,
और सच्चाई के उजागर होने का डर,
विश्यन्तार्गत उत्तम प्रस्तुति
प्रदत्त विषयांतर्गत बहुत ही दिलचस्प, प्रवाहमय प्रेरक और विचारोत्तेजक उम्दा बेहतरीन सृजन के लिए तहे दिल से बहुत-बहुत मुबारकबाद मुहतरम जनाब त्रैलोक्य रंजन शुक्ल साहिब। शीर्षक बढ़िया है, लेकिन कोई बेहतर नया भी सोचा जा सकता है। सादर।
हालांकि अस्वाभाविकता का दोषारोपण किया जा सकता है।
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