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गुरू शिष्य के पवित्र संबंधों की बदलती परिभाषा को समझाती सुन्दर लघुकथा आ. अर्चना जी। बहुत बहुत बधाई।
गुरु-शिष्य की उत्कृष्ट परिभाषा दुर्गन्धयुक्त सड़न में परिवर्तित हो रही थी।--सच कहा गुरुशिष्यों के पवित्र रिश्तों की परिभाषा के मायने ही बदल गए हैं आजकल किस और दिशाहीन कारवाँ चला जा रहा है आज दुनिया का | बहुत अच्छी लघु कथा कही है अर्चना जी हार्दिक बधाई |
सही है. आदमी कब किसतरह की घटिया भाव का शिकार हो जाय कहा नहीं जा सकता. एक अच्छी प्रस्तुति के लिए हार्दिक धन्यवाद आदरणीया अर्चनाजी. वैसे यह विषय अब बहुत आकर्षित नहीं करता है.
सर्वोपरि, हम गुरुजी और पेड कर्मचारी ’टीचर’ के फ़र्क़ को समझना शुरू करें. हर किसी को ’गुरु’ उद्बोधन-सम्बोधन देना किसी तौर पर उचित नहीं है. गुरु की अवधारणा इतनी घटिया नहीं हुआ करती कि ऐसे किसी ऐरे-गैरे ’पेड कर्मचारी’ को दिया जाय. हर पढ़ाने वाला गुरु नहीं होता. या, यह भी हो सकता है, वास्तविक ’गुरु’ शैक्षणिक विभाग से ताल्लुक ही न रखता हो.
और ये अनेकों क्या शब्द है ?
सादर
पूर्व प्रकाशित होने के कारण यह रचना आयोजन से हटा दी गई है I
विषय आधारित "परिभाषा"
सद्भावना
बेटे की ज़िद के आगे, नहीं झुकने का उसने प्रण कर लिया था। स्कूल फेन्सी ड्रेस कॉम्पिटिशन में सलमा का बेटा कृष्ण बनना चाहता है।
माँ के विरोध में लोक का भय........ , समाज की हाय विद्यमान थी।
पीर ....फ़क़ीर ........,पैगम्बर ......कोई भी बन जाओ बेटा .....! नहीं माँ , वह तो मेरे मित्र गणेश बन रहा है, मैं तो कृष्ण ही बनूंगा। माँ, हमारी मेडम कहती है, यह सब एक ही तो है।
जो बात कृष्ण ने कही गीता में कही, वही पैगम्बर सहाब ने कही है। सब ने शान्ति और सदभावना का सन्देश दिया है। समझते समझते माँ बेटे से हार गई।
मंच से बनावटी ,सजावटी नहीं, बल्कि शांति और साम्प्रदायिक सद्भावना की वास्तविक परिभाषा पर निरन्तर तालियों की गड़गड़ाहट गूंज रही थी।
विजय जोशी 'शीतांशु' रचना मौलिक व अप्रकाशित है।
"सच्ची बहादुरी"
उसने विद्यालय के शौचालय में घुस कर चारों ओर देखा, किसी को न पा कर, जेब में हाथ डाला और अस्थमा का पम्प निकाल कर वो पफ लेने ही वाला था कि बाहर आहट हुई, उसने जल्दी से पम्प फिर से जेब में डाल दिया|
अंदर उसका एक मित्र रोहन आ रहा था, कई दिनों बाद रोहन को देख वो एकदम पहचान नहीं पाया, रोहन के पीले पड़े चेहरे पर कई सारे दाग हो गये थे, काफी बाल भी झड़ गये थे| उसने रोहन से पूछा, "ये क्या हुआ तुझे?"
"बहुत बीमार हो गया था|"
"ओह, लेकिन इस तरह स्कूल में आना? कम से कम कैप तो लगा लेता|"
"नहीं, जैसा मैं हूँ वैसा दिखने में शर्म कैसी?"
यह सुनकर वो हतप्रभ सा रह गया, लगभग भागता हुआ शौचालय से बाहर मैदान में गया, अस्थमा का पम्प जेब से निकाल कर पहली बार सबके सामने लिया और अपने असली स्वरुप के साथ खुली हवा में ज़ोर की सांस ली|
(मौलिक व अप्रकाशित)
बहादुरी मात्र शारीरिक ही नहीं मानसिक भी होती है... और सच्चा बहादुर वही है जो जो अपनी मानसिक दुर्बलता पर विजय पा सके.. सीख देती कथा के लिए हार्दिक शुभकामनाये एवं बधाई चंद्रेश जी.
रचना को पसंद करने हेतु बहुत आभार आदरणीया सीमा सिंह जी
आदरणीय चंद्रेश जी बहुत बढ़िया लघुकथा हुई है. हार्दिक बधाई. रचना पर पुनः उपस्थित होता हूँ. सादर
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