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आदरणीया कांता जी, आपने मेरी प्रतिक्रिया को पूरा पढ़ा नहीं शायद... एक बार पुनः पढ़ जाइए फिर धिक्कारिये. सादर
आदरणीया कान्ताजी, अब मुझे कुछ यथार्थ से लाना ही होगा. अनुरोध है कृपया आप तनिक धैर्य से और तार्किकता के साथ सुनियेगा.
मेरे मातहत चेन्नै और सिकन्दराबाद में कई डेवलपर (सॉफ़्ट इन्जीनियर) लड़कियाँ हुआ करती थीं. सभी के अपने-अपने परिवार की अपनी-अपनी कहानियाँ थीं. मैं हैदराबाद की रमा को नहीं भूल सकता जो मात्र खाना बना कर ही नहीं आती, अपने अशक्त (लकवाग्रस्त, बेडरिड्डन) पिता के सारे नित्य कार्य करवा कर, खाना खिलवाकर साढ़े दस बजे हाज़िर हो जाया करती थी. कई बार उसे देर रात तक रुकना पड़ता. वो ज़िन्दग़ी और दुनिया होती ही ऐसी है. एक बार एचआर हेड जोसेफ़ ने तनिक सिम्पथी दिखादी थी तो रमा ने स्ट्रिक्ट हो कर कहा था - प्लीज सर.. दैट्स माइ वर्ल्ड.. आइ एन्जोय माइसेल्फ़ देयरइन.. एण्ड आइ वोण्ट गेट माय फ़ादर एनीह्वेयर फ़ॉर द सेकेण्ड टाइम. हिज प्रेजेन्स इन माइ लाइफ़ इज अ बून फ़ॉर मी.. आइ एम सुपरलेटिवली ब्लेस्ड..
उसकी माँ का देहांत हो गया था. फिर कई और थीं. मैं ऐसे इन्जीनियरों को बहुत नज़दीक से जानता हूँ. चाहे लड़कियाँ या लड़के. कई लेडिज हॉस्टल में साथ-साथ रहती थीं, तो उनके लिए मेस की सुविधा थी. लेकिन जब उनकी बाइ या महाराज भांजी मारता था तो वे ही सब मिलजुल कर खाना बनातीं. कई बार मैं भी उनकी पाककला का लाभ ले लिया करता था. कफ़ेटेरिया होने के बावज़ूद. रमा को कोई अपवाद मत समझ लीजियेगा. यह सामान्य व्यवहार की बात कर रहा हूँ. चैन्नै के सॉफ़्टवेयर वर्ल्ड को बहुत ही शिद्दत से जिया है मैंने.
हम ये, हम वो, या हमारी बेटी ये, हमारी बेटी वो, हमारा बेटा फलाना, हमारा बेटा ढिकाना .. ये सब हमारी दमित इच्छाओं का रौद्र प्रस्फुटीकरण भर है, आदरणीया.
आप अन्यथा मत लीजियेगा. मगर, ऐसा हम उत्तर भारतीयों में कुछ अधिक ही है. वर्ना दक्षिण भारत में चौदह-पन्द्रह वर्षों से ऊपर रह लेने के बाद यह अवश्य लगता है जिस सहजता जीवन को दक्षिण में जिया जाता है, उत्तर के लोगों में स्नॉबिशनेस के कारण ढोंग की तरह जिया दिखता है. थोपी हुई सी सभी अपनी ज़िन्दग़ी जीते हैं.
इसके आगे अब इस विषय में कुछ न कहूँगा.
//बिचारे दो निवालों के लिए भी आश्रित है //
इसे हँस कर न उड़ाइये भाईजी. वे वाकई बेचारे हैं. कई बार होता है कि पूरा का पूरा शहर बन्द हो जाता है. कई बार तो कई दिनों के लिए ! फिर देखिये ऐसों की दशा की दुर्दशा !
पटना शहर में रहने वाले मेरी बातों का मतलब समझ रहे होंगे !
सही कहा आपने सर.
एक बात मैं हमेशा सोचता हूँ कि व्यक्ति जितने भी उद्यम करता है सबका मूल 'पेट' होता है. कहते भी है पहले 'पेट' फिर सब कुछ. यदि वास्तव में यही सत्य है तो कम से कम उस 'पेट' की पूर्ति योग्य तो प्रत्येक व्यक्ति को होना चाहिए. ('व्यक्ति' में पुरुष और महिला सदस्य सम्मिलित है.) सादर
हा हाहा ये पक्ष तो मैंने भी नही सोचा आदरणीय मिथिलेश जी..पुनः धन्यवाद .
आदरणीया सीमा जी, आपकी लघुकथा में दादीजी जैसा लहजा अपनाये अपनी बात कहती है उसमें अनुभव और वात्सल्य दोनों दिखाई दे रहे है और जिससे कहती है उसका भी संकेत सकारात्मक ही है. संभवतः इसी बात ने मुझे इस दिशा में लघुकथा के मर्म को समझने के लिए प्रेरित किया है. सादर
वही तो अर्चना दीदी.. मेरा भी प्रश्न कुछ यही है.. जब आज तक भोजन ग्रहण करना प्रासंगिक है तो बनाना दकियानूसी कैसे हो गया..?
हा हा हा हा ......."भोजन बनाना स्त्री जीवन का पर्याय ".....ये विचार सच में बेहद संकीर्ण सोच को परिभाषित करता है आदरणीय अर्चना जी !
आ० सीमा सिंह जी, मैं इस लघुकथा को पढ़कर मंत्रमुग्ध हूँ I कई बार पढ़ चुका हूँ, जितनी बार पढता हूँ आनंद बहुगुणित होता है I दादी माँ की बात को दकियानूसी कह कर आसानी से नकारा जा सकता है, किन्तु हम जिस समाज का हिस्सा हैं, वहाँ कुछ ऐसी मान्यताएँ हैं जो हमारी संस्कृति की पहचान हैं I आधुनिकता और नारीवाद के चश्मे हटाकर यदि देखा जाये तो स्त्री को विशिष्ट व्यक्तित्व माना गया है I जिस तरह शक्ति देने वाली माँ दुर्गा, विद्या की देवी माँ सरस्वती, और धन-वैभव देने वाली माँ लक्ष्मी सब स्त्रियाँ हैं, उसी तरह अन्नपूर्णा होने का सम्मान भी केवल नारी को ही दिया गया है I मेरा मानना है कि नारी का अन्नपूर्णा होना उसका एक विशिष्ट गुण है जिसमे उसे प्रवीण होना ही चाहिए I इस लघुकथा में कसावट है, सुभाषता है, स्पष्टता है, सन्देश है और अंत में तंज़ भी, अत: यह हर मायने में एक सफल रचना है I इस लाजवाब लघुकथा पर मेरी ढेरों ढेर बधाई स्वीकार करें आ० सीमा सिंह जी I
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