आदरणीय साथिओ,
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आदरणीया अंजलि जी , सुंदर लघुकथा के लिए बधाई हो, बहुत ही अर्थ भरपूर रचना
आदरणीय मोहन बेगोवाल जी, हौसला अफ़ज़ाई के लिए बहुत शुक्रिया
वाह ताजगी से भरी रचना। शिल्प भी कसा हुआ। हार्दिक बधाई आदरणीया अंजली गुप्ता जी
हार्दिक बधाई आदरणीय अंजली जी ।प्रतीकों के माध्यम से बहुत सुंदर संदेश देती बेहतरीन लघुकथा।
आदरणीय तेजवीर जी, उत्साहवर्धन हेतु दिली शुक्रिया
आदरणीया प्रतिभा जी, उत्साहवर्धक टिप्पणी हेतु दिली शुक्रिया
आदरणीया तेजवीर जी ,उत्साहवर्धक टिप्पणी हेतु दिली शुक्रिया
आदाब। घमंडी रूपेण पहचान का वजूद अल्पकालिक भी हो सकता है। अस्तित्वहीन भी बना सकता है। प्रतीकों के कथोपकथन माध्यम से बेहतरीन सबक़ देती बढ़िया रचना के लिए हार्दिक बधाई आदरणीया अंजली गुप्ता जी।
आदरणीय sheikh shahzad usmani sir, उत्साहवर्धक टिप्पणी हेतु हार्दिक आभार
अस्तित्व
आज एन.जी.ओ.में काम खत्म करते करते सुबोध को बहुत देर हो गई थी।थके हुए सुबोध ने रास्तेमें ही डिनर करने के विचार से एक ढाबे पर गाड़ी रोक दी।उसे देखकर मालिक ने आवाज़ दी,'छोटू ..कहाँ मर गया।सामने वाली टेबल पर कपड़ा मार,और साहेब से आर्डर ले।'
'जी मालिक'।प्लेटें धोना छोड़ कर दस साल का छोटू कपड़ा उठा कर टेबल की तरफ दौड़ पड़ा।मालिक का गुस्सा वो जानता था।'साहेब क्या लाऊँ'?टेबल पर कपड़ा मारता हुये छोटू ने पूछा।
'पहले बता,कपड़े कब से नहीं धोये?हाथ का कपड़ा ज्यादा साफ़ है'।
छोटू सकपका गया।'साहेब गलती हो गई।आज रात को ही धो लूँगा।
'छोओटूऊऊ' नाम सुनते ही छोटू के हाथ तेज़ी से चलने लगे।
'साहेब क्या लाऊँ'।
'तुम कितने साल के हो?
'साहेब बात करना मना है।'
इतने में उसे पीछे से लात पड़ी।जितनी तेज़ी से गिरा,उतनी ही तेजी से खड़ा भी हो गया।
तभी सुबोध की कड़क आवाज़ कानों में आई,"क्यों मार रहे हो" ?
"साहेब पक्का कामचोर है"।कहता हुआ मालिक अपनी सीट की ओर चल पड़ा।पर छोटू जानता था कि आज उसे रात का खाना नहीं मिलेगा और मार पड़ेगी सो अलग।
"साहेब बताओ खाने में क्या लाऊँ?"
"एक दाल,चार रोटी और सलाद"।छोटू ने रसोई में जा कर बताया और दूसरी टेबल पर आर्डर लेने चला गया।
सुबोध छोटू को ध्यान से देख रहा था।लड़के,छोटू,छोरे,ओये जैसी आवाज़ आने पर वह भाग कर वहीं चला जाता।दुबला, पतला ,पपड़ी जमे होंठ...ऐसा लग रहा था कि सुबह से कुछ खाया ही न हो।छोटू अब उसकी टेबल पर खाना लगा रहा था।अचानक सुबोध ने मालिक को कहा" एक दाल और चार रोटी और।"इससे पहले मालिक छोटू को कहता,
सुबोध बोल पड़ा,"यह मेरे साथ खाना खायेगा।"छोटू को जबरदस्ती पास बिठा लिया,और अपनी प्लेट उसकी ओर खिसका दी,"खा लो"।छोटू के साथ ऐसा कभी नहीं हुआ था।एक तरफ मालिक का गुस्सा दूसरी तरफ साफ प्लेट..जिसमें जूठन नहीं थी।
"साहेब,जाने दो"।पर सुबोध ने कस के हाथ पकड़ लिया,"बैठे रहो"।
"क्या नाम है तुम्हारा"?छोटू ने कोई जवाब नहीं दिया।
"डरो मत,मालिक कुछ नहीं कहेगा,मैं बात कर लूँगा।बताओ क्या नाम है?सुबोध ने प्यार से पूछा।हालांकि छोटू जानता था कि आज उसे बहुत मार पड़ने वाली है पर,प्लेट में रोटी का मोह छोड़ नहीं पाया।इसलिए प्लेट अपनी ओर थोड़ी और खिसका कर धीरे से बोला "जी,जो मर्जी कह लो।"
"कुछ तो नाम होगा,परिवार कहाँ है?"
"जी, कोई नहीं है।"कह कर जल्दी जल्दी खाना खाने लगा।एक तो सुबह का भूखा और अब क्या पता आगे क्या हो।
"आराम से खाओ,कोई तुम्हें कुछ नहीं कहेगा।"यहाँ कब से हो "?
….
मेरे साथ चलोगे?छोटू का हाथ मुंह में ही रुक गया।
"कहाँ ?मालिक नहीं जाने देगा।माई ने दो साल पहले तीन सौ रूपये उधार लिए थे।कर्जा दिया नहीं,और मर गई।मैं कहीं नहीं जा सकता।"
"अगर उसे मैं पैसे दे दूँ तो? बस जब मैं उससे बात करूँ तो मेरा हाथ मत छोड़ना।उसे मनाना मुश्किल है पर वो मान जायेगा।तुम डरना नहीं।"छोटू की आंखों में चमक आ कर चली गई।"साहेब आपका भी ढाबा है?"सुबोध मुस्कुराया और बोला नहीं,तुम्हें पढ़ने स्कूल भेजूंगा।जाओगे?"छोटू की आंखों की चमक वापिस आ गई।
"साहेब,माई 'रमेस' कहती थी"।
जल्दी से पानी के गिलास से वहीं हाथ धोये,और साहेब का हाथ कस के पकड़ लिया।
मौौौलि व अप्रकाशित
मार्मिक चित्रण , प्यारी लघुकथा हेतु बधाई आ० रचना जी
अंजलि गुप्ता जी आपका बहुत बहुत शुक्रिया ।
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