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आदरणीय योगराज प्रभाकर जी, बहुत ही बेहतरीन लघुकथा लिखी है आपने। हम सब को आप से बहुत कुछ सीखने की ज़रूरत है – भाषा, डायलॉग, आरंभ, अंत, टंकण, आपकी लघुकथा में सभी कुछ अचूक पाया। कृपया दाद और बधाई स्वीकार करें।
आदरणीय, मैं आपसे एक सवाल पूछता चाहता हूँ – लघुकथा में ज़ियादा से ज़ियादा कितने शब्दों की सीमा होती है? मैं ये जानकारी मंच पर कहीं ढूँढ नहीं पाया, इसलिए यहाँ पूछ रहा हूँ। सादर
आपकी ज़र्रानवाजी का मशकूर हूँ आ० रवि भसीन 'शाहिद' जी. आपने सराहा तो मेरी मेहनत सफल हुई. आपने लघुकथा में शब्दसीमा के बारे में पूछा है; तो मैं ये अर्ज़ करना चाहूँगा कि लघुकथा अपना आकार स्वयं तय करती है. वैसे 300-350 शब्द एक लघुकथा के लिए काफ़ी माने जाते हैं, लेकिन मेरा मानना है कि यदि कथानक की माँग हो तो शब्द बढ़ाए भी जा सकते हैं और घटाए भी. कृपया निम्नलिखित लिंक पर जाकर लघुकथाविधा पर मेरा एक आलेख अवश्य पढ़ें.
http://www.openbooksonline.com/forum/topics/5170231:Topic:637805
आदरणीय योगराज प्रभाकर जी, मार्गदर्शन के लिए आपका हृदयतल से आभारी हूँ। दरअस्ल, मेरा ज़हन एक नंबर माँग रहा था, जो आपने दे दिया (300-350)। मैं OBO के मंच पर लघुकथाएँ पढ़ कर अंदाज़े से ही लिखने लगा था, और ये सवाल शुरू से मन में खटकता था। जो आलेख आपने पढ़ने की सलाह दी है मैं ज़रूर पढ़ लूँगा सर, बहुत बहुत शुक्रिया।
आपकी लघुकथा पढ़ कर हमेशा कुछ न कुछ सीखने को मिलता है सर। साम्प्रदायिकता जैसे संवेदनशील मुद्दे पर कैसे एक गम्भीर लघुकथा लिखनी चाहिए यह रचना उसका सटीक उदाहरण है। एक चीज़ है जिसकी तरफ़ अक्सर लेखक नहीं ध्यान देते वो है तार्किकता। किसी का हृदय परिवर्तन इतनी आसानी से नहीं होता, ख़ासकर किसी भीड़ का। लेखक अक्सर यहाँ जल्दी कर बैठते हैं। एक उग्र साम्प्रदायिक भीड़ को शान्त होने के लिए कितना वक़्त और तार्किकता चाहिए उसे इस रचना से सीखा जा सकता है। रचना में सहज प्रवाह है और शीर्षक हमेशा की तरह सटीक। मेरी तरफ़ से दिल से ढेर सारी बधाई प्रेषित है।
//बाबा ने कहा उत्तर देने की बजाय प्रश्न किया// "बाबा ने उत्तर देने के बजाय प्रश्न किया"
सादर।
आपकी मुक्सतकंठ प्रशंसा से मेरा उत्साहवर्धन हुआ भाई महेंद्र कुमार जी. हार्दिक आभार स्वीकार करें. इंगित त्रुटी संकलन के समय दुरुस्त कर लूँगा.
आदाब। आपकी इस समीक्षा से हम सभी बहुत लाभांवित हुए। हार्दिक धन्यवाद आदरणीय महेंद्र कुमार साहिब।
आदाब। ये अन्य बाहर वाले ही तो सब गड़बड़ करते हैं। वरना इतनी बढ़िया तरीक़े से समझाने वालों के बीच में बाधक स्वर गूंजने पर भी मसाइल हल हो जाते हैं। अंतिम पंचपंक्ति की तरह ही समझाने वाले का कोई न कोई संवाद/बात भटकते लोगों के सीधे दिल और दिमाग़ पर असर कर उनका हृदयपरिवर्तन कर सही मार्ग प्रशस्त कर दिया करती है। हार्दिक बधाई आदरणीय सर श्री योगराज प्रभाकर साहिब इस प्रवाहमय, भावपूर्ण व प्रेरक सृजन के लिए। बिना पात्र नामों के और बिना धर्म-स्थल-नामों के और बिना धर्म-नाम उल्लेख के व्यापक फलक दिया गया है लघुकथा को। अंतिम पंचपंक्ति व कथ्य के अनुसार बेहतरीन शीर्षक ने भी हमको बहुत कुछ सिखाया है। सादर।
रचना को सराहने के लिए हार्दिक आभार भाई उस्मानी जी.
हार्दिक बधाई आदरणीय योगराज प्रभाकर भाई जी।गज़ब की लघुकथा।आपकी लघुकथायें अपने आप में एक शिक्षण संस्थान होती हैं।सादर।
रचना पसंद करने हेतु तह-ए-दिल से आपका शुक्रिया आ० तेजवीर सिंह जी.
हार्दिक आभार आ० मनन कुमार सिंह जी.
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