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सधन्यबाद! आदरणीय महेन्द्र सरजी।
गरीब और कर्ज की मार जो पीढ़ी दर पीढ़ी उसका पीछा नहीं छोडती। जाने पहचाने विषय पर अच्छी लघुकथा। हार्दिक बधाई आदरणीया बबीता जी।
सधन्यबाद! आदरणीया प्रतिभा दी।
....सूखे कंठ से निकलती हुलस...का मतलब? गर हुलस खुशी के अर्थ में है,तो फिर मौका कौन है?खुशी का है क्या?....लघुकथा हेतु बधाई आ.बबीता जी।
सधन्यबाद! आदरणीय मनन सरजी।
आ. रवि भसीन शाहिद जी ,आपकी कथा आज दिन ब दिन बढ़ते विवाद को सुलझाने की सीढ़ी हो सकती है।हार्दिक बधाई आपको
आदरणीया अर्चना त्रिपाठी साहिबा, लघुकथा पसंद करने के लिए और प्रोत्साहन देने के लिए आपका तह-ए-दिल से शुक्रगुज़ार हूँ।
सादर नमस्कार। आदरणीया अर्चना त्रिपाठी जी ने बहुत ही बड़ी और महत्वपूर्ण बात अपनी टिप्पणी में कह ही दी है। यही आपकी चिरपरिचित कथानक वाली सहज रचना का मुख्य संदेश है। हार्दिक बधाई जनाब रवि भसीन 'शाहिद' साहिब। हमारे देश के पर्यटन स्थलों की धरोहरों के निर्माण में हिंदुस्तानी कारीगरों/श्रमिकों की सहभागिता में सर्वधर्म समभाव का व वसुधैव कुटुम्बकम का बेजोड़ अस्तित्व है, गहराई है। वैसे ताजमहल संदर्भ में मैंने ऐसा होते नहीं देखा या सुना...//ताज महल की एक दीवार पर लिखने लगा//.. लेकिन परिसर में अवश्य हो सकता है। समझाइश देने वाली महिला भी हमारे देश की धरोहर है। ऐसे स्वयंसेवी देशभक्तों की भी हमें ज़रूरत है। वर्तमान में चुनौती देती 'विषाणु जनित महामारी' को देश में नियंत्रित करने के लिए भी ऐसे ही समर्पित स्वयंसेवकों की हमें आवश्यकता है।
आदरणीय शेख़ शहज़ाद उस्मानी साहिब, सादर नमन। आपकी बधाई और प्रोत्साहन के लिए हार्दिक आभार।
//वैसे ताजमहल संदर्भ में मैंने ऐसा होते नहीं देखा या सुना...//ताज महल की एक दीवार पर लिखने लगा//.. लेकिन परिसर में अवश्य हो सकता है।//
जी आप सहीह फ़रमा रहे हैं, इसे कहानी में पेश करते समय थोड़ा और सोचना चाहिए था। आपकी पैनी नज़र को सलाम पेश करता हूँ।
//ऐसे ही समर्पित स्वयंसेवकों की हमें आवश्यकता है।//
जी आपसे पूरी तरह सहमत हूँ, मुहतरम।
बहुत शानदार लघुकथा आदरणीय रवि भसीन साहिब। प्रतिपादित विषय को अत्यंत कुशलता से परिभाषित करती इस लघुकथा में राष्ट्रीय चेतना का स्वर प्रतिध्वनित हो रहा है। संकीर्ण सोच से उपर उठकर देखे जाए तो ताजमहल केवल भारतीय ही नहीं अपितु वैश्विक धरोहर है। एक नज़र देखने पर यह एक साधारण आदर्शवादी लघुकथा होने का भ्रम देती है परंतु गहनता से देखें तो राहुल-प्रियंका को कथित आधुनिक सोच के प्रतीकार्थ और अधेड़ स्त्री को परंपरागत भारतीय सोच के प्रतीकार्थ देखा जा सकता है। सदियों से शान से सिर ऊँचा करके खड़े ताजमहल की 'सफेदी' को कोयले की क्षणभंगुर 'कालिख' से 'काला' नहीं किया जा सकता। अत्यंत गहन और प्रभावशाली संदेश छिपा है इस लघुकथा में।
/ "हो सकता है आपके किसी पूर्वज ने इस ताज महल के पत्थर तराशे हों, या मेरे ख़ानदान में से किसी ने यहाँ मज़दूरी की हो। / इन पंक्तियों से मुझे एक किस्सा याद आ गया जिसका जिसको बताना समीचीन होगा। कहते हैं कि भारत-पाकिस्तान बँटवारे के बाद पूर्वी पाकिस्तान (बांग्लादेश) से एक सज्जन पश्चिमी पाकिस्तान गया और इस्लामाबाद की चमकती और चिकनी सड़के देखकर उसने झुककर सजदा किया। पूछने पर उसने बताया कि मुझे इसमें ढाका की पटसन की महक आ रही है। तो आपके इस कथ्य के इस लघुकथा को नई ऊँचाई तक पहुँचा दिया है।
शानदार लघुकथा सहित आयोजन में सहभागिता हेतु हार्दिक साधुवाद। सादर
आदरणीय रवि प्रभाकर साहिब, आप की दाद-ओ-तहसीन के लिए तह-ए-दिल से आपका शुक्रगुज़ार हूँ।
//सदियों से शान से सिर ऊँचा करके खड़े ताजमहल की 'सफेदी' को कोयले की क्षणभंगुर 'कालिख' से 'काला' नहीं किया जा सकता// सर, आपकी गहरी नज़र और ऊँची सोच को सलाम पेश करता हूँ।
बहुत ही ख़ूबसूरत और प्रसंगोचित क़िस्सा सुनाया आपने, इसके लिए हार्दिक आभार।
//लघुकथा का शीर्षक प्रदत्त विषय को ही बनाया गया है जिससे बचना चाहिए था।// ये महत्वपूर्ण जानकारी देने के लिए (आदरणीया बबिता गुप्ता जी की लघुकथा पर) के लिए बहुत धन्यवाद। सादर
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