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आपकी लघुकथा की ये पंक्तियाँ -चूल्हे में लकड़ी सजाया और माया की आँखों में देखते हुए माचिस की तिल्ली जला ली।चूल्हे की लपटों में प्रत्युत्तर तलाशती माया को छोड़ बाहर निकल गया। ऐसे अनुत्तरित प्रश्न छोड़ गयी जिसे पाठक सोचने के मजबूर हो जाए | यही इस लघुकथा को उत्तम बना रही है | बहुत बहुत बधाई आदरनीय माला जी
बहुत ही मार्मिक और गहन प्रस्तुति. इस बढ़िया लघुकथा हेतु हार्दिक बधाई आदरणीया माला जी
दुःख चीज़ ही ऐसी है कि बड़े छोटे के बीच कि दूरी पाट ,देती है ,पाठकों के लिए भी प्रश्न छोड़ दिया है आपने , बधाई सशक्त कथा के लिए आपको आदरणीया माला जी
वफादारी को निभाने के बहुत उदाहरण हमारे देश में है और आपने उनमें से कई उदाहरणों को हरिया को चुपचाप बाहर भेजकर एक ही रचना में समाहित कर दिया है| इस अनकही में बहुत कुछ कहा गया है, आपको हार्दिक बधाई इस सुंदर रचना के लिए आदरणीया माला जी|
चूल्हे की लपटों में प्रत्युत्तर तलाशती माया को छोड़ बाहर निकल गया।--- सुन्दर लघुकथा आ. माला जी , बधाई आपको बहुत बहुत
“बदले का हस्ताक्षर”
पिताजी के हृदयाघात से निधन होने से पूर्व उनके कहे हुए ये शब्द आज उसके जेहन में जैसे हथौड़े मार रहे थे, "अकाउंट्स के बाबू ने मेरे जमा कराये हुए रुपयों की बिना हस्ताक्षर की जाली रसीद दे दी और झूठ बोल दिया कि रूपये जमा नहीं कराये| मेरी जगह तुझे नौकरी मिलेगी, उसे जवाब ज़रूर देना..."
अपने पिताजी को तो उसने पहले ही सच्चा साबित कर दिया था और आज जवाब देने का समय आ गया था, वही बाबू उसके सामने हाथ जोड़े अपनी पेंशन और ग्रेच्युटी के अंजाम को सोच डरा हुआ खड़ा था|
उसने दराज से फाइल निकाली और एक चेक पर हस्ताक्षर कर उसे दे दिया| चेक को देख उस बाबू की आँखें आश्चर्य से फ़ैल गयीं, वो पूरी राशि का था|
बाबू ने उसके पैर छू लिये और कहा, "सर, आपने मुझे माफ़ कर दिया... आप हस्ताक्षर न करते तो मैं और मेरा परिवार भूखा मर जाता|"
“मेरे पिताजी ने मुझे किसी को गलत तरीके से मारने के संस्कार नहीं दिए, मेरा यह हस्ताक्षर ही उनका प्रत्युत्तर है|" यह कह कर वो चला गया|
और बाबू वहीँ खड़ा बदला लेने का अर्थ समझने की कोशिश करने लगा|
(मौलिक और अप्रकाशित)
बहुत कसी हुई और बेहतरीन लघुकथा | प्रदत्त विषय पर बेहतरीन रचना , हमेशा की तरह | बहुत बहुत बधाई आ चंद्रेश जी
रचना को पसंद करने और टिप्पणी द्वारा मेरे उत्साहवर्धन हेतु हृदय से आभारी हूँ आदरणीय विनय जी सर|
आदरणीय चंद्रेश जी आप की लघुकथा पढ़ कर बरबस ही ' वाह ' निकल जाती है. बधाई.
आदरणीय ओमप्रकाश जी सर, रचना को अनुमोदन देकर मेरी हौसला अफज़ाई हेतु हृदय से आभार|
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