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बिलकुल इसी जवाब की जरुरत है लड़के वालों के लिए , बढ़िया विषय चुना आपने । बधाई इस बढ़िया प्रस्तुति के लिए
आपकी सराहना और सारगर्भित टिप्पणी के लिए विनम्र आभार, आदरणीय singh sahab।
बहुत-कुछ सोचने को विवश करती है आपकी कथा !! बधाई !!
बहुत आभार आदरणीय सुधीरजी !
सटीक टिप्पणी के लिए विनम्र आभार, आदरणीय नीताजी !
संकल्प और विकल्प के दुरूह व्यूह में उलझी सामाजिकता को अभिव्यक्त करती इस लघुकथा के लिए हार्दिक बधाई, आदरणीय टी.आर. शुकुलजी.
सादर
‘महोदय! जहाॅं तक मैं जानता हॅूं, ‘संबंध‘ का अर्थ है ‘सम प्लस बंध‘, अर्थात् दोनों परिवारों की ओर से प्रेम और आकर्षण के एक समान बंधन, इक्वल बाॅडस् आफ लव एन्ड अफेक्शन ,.................वाह आदरणीय बहुत अच्छा विषय लेकर सुन्दर ताना बाना बुना है ,हार्दिक बधाई आपको
आँखों के जाले ( संकल्प )
भुवन के तो दिमाग़ का फ्यूज़ ही उड़ गया था। पिछले ही हफ्ते तो वह आफिस से छुट्टी ले कर, एक हज़ार रूपए लगा कर पिता जी का चश्मा बनवा कर लाया है और इधर पिता जी हैं कि आंखें मिचमिचा कर अखबार देख रहे हैं, बिना चश्मा लगाए।
”पिता जी, रही-सही आंखें भी फुड़वा कर चैन लेंगे क्या ?“ भुवन गुस्से से भुनभुना रहा था ” जब चश्मा बनवाया है तो लगाते क्यों नहीं ?“
शर्मा जी ने अखबार पटकते हुए कहा था ” पढने को तुम हरामजादे पत्रकार छापते ही क्या हो ? रोज़ वही अपहरण, बलात्कार और हत्याओं के समाचार। एक भी तो समाचार ऐसा नहीं जिसके लिए चश्मा लगाना पड़े। हैडलाइन्स बिना चश्मे के दिख ही जाती हैं, पढा और फैंक दिया। “
भुवन निरूत्तर रह गया, पिता जी सच ही तो कह रहे थे। उसके बाद तो पिता जी का रूटीन यही बन गया। भुवन देखता और शर्मिन्दा हो कर चुप रह जाता। .और फिर एक दिन ऐसा भी आया कि उपेक्षित हो कर चश्मा दराज में बंद भी हो गया।
”भुवन ! ओ भुवन , ज़रा मेरा चश्मा तो लाना “ एक सुबह पिता जी की उत्साह भरी पुकार सुनी तो भुवन चश्मा उठा कर भागा गया था और बोला ” आज ऐसा क्या छपा है जो चश्मे की ज़रूरत आन पड़ी ?“
शर्मा जी अखबार की एक हैडलाइन पर अपनी कांपती ऊंगलियां फिरा रहे थे और बहुत खुश थे “ ले देख, तू भी पढ लेना लेकिन पहले मैं पढ लूं। ” पिता जी हैडलाइन सुना रहे थे ” पुलिस वाले ने मालिक को ढूंढ कर खोया पर्स लौटाया ...“
आज पिता जी की आँखों में जो तेज आलोक था , वह चश्मे के मोटे लेंस से निकल कर भुवन की आँखों में जा रहा था और उसकी आँखों के जाले साफ़ होते जा रहे थे।
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( मौलिक एवं अप्रकाशित )
वाह !!! क्या खूबसूरत कथा पेश की है आपने आदरणीय प्रदीप नील जी मन जैसे एकदम हुलास से भर गया। एक बेहद महीन मनोवृत्ति को आपने यहां सधे हुए तरीके से विस्तार दिया है। बहुत -बहुत बधाई आपको।
आपने मेरी लघुकथा की मुक्त-कंठ से जो प्रशंसा की है उसे सहेज कर रखने के प्रयास में लगा हूँ।
धन्यवाद तो छोटा सा शब्द है कांता जी मगर कृपया स्वीकार कर लीजिए
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