आदरणीय साथियो,
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जी आदरणीय योगराज जी,आपका बहुत बहुत आभारी हूं कि आपने मेरी लघुकथा को मान बख्शा।आपकी सलाह के अनुरूप लघुकथा में परिमार्जन अवश्यंभावी है, सादर।
आदरणीय योगराज भाई जी,आपकी सलाह के अनुरूप मैने अपनी उक्त लघुकथा में किंचित परिमार्जन किया है।प्रस्तुत है लघुकथा का नवीन स्वरूप:
प्रिय सहेली शीलू,
चिट्ठी लिखने में देर हुई।क्षमा करना।तुमने मेरा पिछला पत्र पढ़कर उसमें उद्भाषित हुई मेरी उद्विग्नता का जिक्र किया था।भरोसा रखने की नसीहत भी दी थी। पर सखि, भरोसा रखते रखते जब वह खंडित होता है,तब आदमी थका हुआ महसूस करने लगता है।ऐसा ही मेरे साथ भी हुआ है।जोर देती हो तो लो सुन लो:
मैं नई नई कॉलेज़ में गई थी।एक दिन छात्र -सभा हुई।अमीश नाम के सुंदर गठीले एक उच्च दर्जे के छात्र के भाषण से मैं बहुत प्रभावित हुई।पूछताछ पर पता चला कि वह स्नातकोत्तर का था।उसके चाल चलन और चरित्र के काफी चर्चे थे।सुना कि सभी जरूरतमंद छात्र छात्राओं की वह मदद भी करता था;चाहे पढ़ाकर या अन्यथा भी। मैं अचंभित थी कि खुद की पढ़ाई करते हुए वह कैसे कॉलेज की जरूरतमंद मंडली की सहायता करता होगा।
धीरे धीरे मैं उसके करीब आने लगी। आ भी गई।बड़ा आसान लगा यह सब।कितना सरल व्यक्तित्व है उसका, मैं सोचती;कहां वह उच्च वर्ग लड़का,कहां मैं कॉलेज में नितांत नई।जूनियर भी हूं।पर उसने पास आने दिया।यह उसका बड़प्पन ही तो है।
नजदीकी भरोसे का शक्ल अख्तियार कर गई। दुर्गापूजा की छुट्टी में भी मैं उसके कहने पर घर नहीं गई।हॉस्टल में ही रह गई कि इस दरम्यान वह मेरी तैयारी पूरी करा देगा।अलग से ट्यूशन की जरूरत न होगी।
फिर उस दिन शाम को उसके कमरे में गई,क्योंकि दिन में आने से उसने मना किया था।बोला था ,पूजा का दिन है।थोड़ी कर लेंगे।फिर शाम को ढंग से अभ्यास करेंगे।उसने उत्साहपूर्वक मेरा स्वागत किया। मैं अंदर आई। दरवाजा बंद हुआ।उसने हमेशा की भांति मेरे कंधे पर हाथ रख स्नेह जताया।सीने से भी लगाया। ।पर और दिनों की तरह मुझे प्रेम करके अपने से अलग नहीं किया।उसका एक हाथ अब मेरी पीठ पर फिसलने लगा।उसने अपनी दूसरी तलहथी मेरे नथुनों के पास कर दी। मैं अचेत होने लगी।
फिर जब मेरी आंख खुली,मैं निढाल पलंग पर थी।वह मेरे चेहरे पर दुलार कर रहा था। मैं उसका चेहरा देखती रही,वह गर्व से सीना फुलाए सिगरेट के कश लगाता रहा बोला,' कपड़े पहन लो।जाओ। हां,आती रहना।'
मैंने गुस्से से उसे देखा,तो पलटकर बोला, 'कोई भरोसा नहीं करेगा।इसलिए अच्छा हो, जुबान न खुले।'
अब मैं टूटे भरोसे वाली छात्राओं की टोली बना रही हूं। उस हरामजादे का उत्सव मनेगा। उसका भरोसा वाला दुर्ग ढहेगा। तुम्हे भी बुलाऊंगी।अपने कॉलेज का यह उत्सव देखना, प्रिय सखि!'
तुम्हारी,
मीनू
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मेरे कहे को मान देने के लिए हार्दिक आभार आ० मनन कुमार सिंह जी.
आदाब। आपकी पिछली प्रविष्टियों से भिन्न अधिक शब्दों की अच्छी रचना। हार्दिक बधाई आदरणीय मनन कुमार सिंह जी। मैं आदरणीय सर श्री योगराज जी की टिप्पणी से सहमत हूँ। सांकेतिकता और कम शब्दों में यह रचना आप बेहतर कह सकेंगे।
आपका आभार आ.उस्मानी जी।
आदरणीय मनन कुमार सिंह जी, वाह वाह वाह क्या कहने अंतर्मन को भेदती हुई लघुकथा। हार्दिक बधाई स्वीकार करें।
आपका आभार आ.रचना जी।
आ. भाई ममन जी, सादर अभिवादन। बहुत सुन्दर लघुकथा हुई है । हार्दिक बधाई ।
आपका दिली आभार आ.भाई लक्ष्मण जी।
अच्छी लघुकथा है आ० अनीता रश्मि जी. बधाई स्वीकार करें. 'डॉ.' को 'डॉक्टर' कर लें.
आ. अनीता बहन, सुन्दर लघुकथा हुई है । हार्दिक बधाई।
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