आदरणीय साथियो,
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लघुकथा - माल (बाजार)
अमर बाबू चाय की चुस्की लेते हुए बेटे, बहू से बोले, "मुझे बंगलौर तुम्हारे पास आए कई दिन हो गए, बारिश की वजह से कहीं जा भी नहीं पाए"
बहू ने अख़बार पढ़ते हुए कहा, "आज मेरी छुट्टी है, घर का सामान भी लाना है, आप तैयार हो जाएं"
अमर बाबू बेटे, बहू के साथ टैक्सी में बाजार के लिए रवाना हो गए l रास्ते में किराना, डेरी, कपड़े की दुकानें आयीं मगर टैक्सी कहीं नहीं रुकी l
अमर बाबू ने बहू से कहा," दुकानें तो सारी निकल गईं"
बहू ने कहा, " आगे चल कर लेना है "
कुछ ही देर में जब सब्जी मंडी भी निकल गई तो अमर बाबू बोले, " बेटा सब्जी कहाँ से लेना है"
बेटे ने जवाब दिया, " आगे से लेना है"
अमर बाबू सोच में पड़ गए कि अचानक टैक्सी एक बड़े माल के सामने रुक गई
अमर बाबू जब अन्दर गए तो देख कर दंग रह गए
बेटे ने फिर कहा," पिता जी यहाँ एक जगह हर चीज़ उचित कीमत पर मिलती है, अगर भूक लगे तो खाने का रेस्टोरेंट भी है"
अमर बाबू मन ही मन सोचने लगे कि बाज़ार में जगह जगह धक्के खाने से अच्छा है किसी माल में जाकर ख़रीदारी करना l
(मौलिक एवं अप्रकाशित)
आ. तसदीक जी,गोष्ठी का आगाज करने हेतु शुक्रिया।आज के बाजार की स्थिति का बढ़िया चित्रण किया है आपने।आज मॉल संस्कृति खूब फल -फूल रही है,क्योंकि उपभोक्ता की जरूरत की हर जिंस वहां उपलब्ध होती है।मनोरंजन की भी व्यवस्था होती है।
लघुकथा पसंद करने और आपकी इस हौसला अफजाई का बहुत बहुत शुक्रिया मनन साहिब
आदाब। बहुत बढ़िया। हार्दिक बधाई जनाब तस्दीक़ अहमद ख़ान साहिब। वैसे यह रचना भ्रष्टाचार बाज़ार/मॉल पर भी संकेत कर रही है पूरी तरह उस पर भी केंद्रित रचना कही जा सकती है, ऐसा लगा।
लघुकथा पसंद करने और आपकी इस हौसला अफजाई का बहुत बहुत शुक्रिया जनाब शेख शहजाद साहिब
आ. भाई तस्दीक अहमद जी, सादर अभिवादन। अच्छी लघुकथा हुई है हार्दिक बधाई।
फलीभूत होती माॅल संस्कृति का बढ़िया चित्रण.. बहुत-बहुत बधाई, सर
आदाब, तस्दीक अहमद साहब! समसामयिक विषय ' बाजार' को लेकर आपने अच्छी लघुकथा कही! लघुकथा समारोह में निरन्तर आपकी प्रस्तुति प्रेरणा दायक होगी, ऐसा मेरा मानना है!
ऑनलाइन खरीद
विक्रम बेताल को कंधे पर लादे हुए चल रहा है।उसके सारे सवालों के जवाब उसने दे दिए हैं। फलतः,बेताल को ढोना उसकी मजबूरी है।चलते -चलते विक्रम को एक तरकीब सूझी जिससे बेताल से पीछा छुड़ाया जा सके।उसने सोचा,क्यों न बेताल से इस शर्त पर कुछ सवाल पूछे जाएं कि यदि वह उन सवालों के सही उत्तर न दे पाएगा,तो उसे विक्रम के कंधे पर से उतर जाना होगा। यह सोचकर विक्रम मन -ही -मन खुश हुआ।
वह बोला,"बेताल भाई,एक बात कहूं?"
"कहो।"
"यही कि मैं तुमसे कुछ सवाल पूछूंगा,जैसे कि तुमने मुझसे पूछे।"
"फिर?"
"सही जवाब हुए,तो मेरे कंधे पर लदे रहना।"
"नहीं,तो? उतर जाऊं क्या??"
"हां।"
"पूछो।"
"तुम्हें ढोते -ढोते मेरे सारे कपड़े पुराने हो चले हैं।कुछ फट भी गए हैं।खरीदूं कैसे?तुम तो कहीं रुकने देते नहीं।"
"ऑनलाइन ले लो।चलते चलते डिलीवरी होगी।पेमेंट भी ऑनलाइन कर देना।"
"पसंद न आए तो?"
"तो रिटर्न मारो।"
"गर पसंद कर ही लेना चाहूं तब?"
"फिर सीओडी करो।कैश ऑन डिलीवरी।"
"मौलिक व अप्रकाशित"
आदाब। जवाब तो हैं न... हाज़िर जवाब। विषयांतर्गत उम्दा रचना हेतु हार्दिक बधाई जनाब मनन कुमार सिंह साहिब।
आपका आभार आ.उस्मानी जी।
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