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सिर्फ वार्ता के माध्यम से लघुकथा लिखने के प्रयास सराहनीय होते हैं और आपका प्रयास भी सार्थक है श्रीमती चौबे जी।
कथा में पंच है जो इसे जानदार बना रही है।
स्वीकारें बधाई
बहुत बढ़िया लघुकथा कही है आ० बबिता चौबे जी I बधाई स्वीकारें I
समाज की बदलती धारणाएं .पैसे की खातिर कोख को किराये पर देना से ले कर बच्चे की जान को ही तवज्जो देना .आकांक्षा की तीव्रता को प्रस्तुत करती आपकी रचना .
हार्दिक बधाई आदरणीय बबिता जी ! बहुत अच्छी लघुकथा है!बेहद मार्मिक विषय का चुनाव किया है और प्रस्तुतीकरण भी सराहनीय हैं!लोग अपने वंश को आगे बढाने में कितने गिर जाते हैं!अति सुंदर!
बहुत मार्मिक रचना प्रदत्त विषय पर , बहुत बहुत बधाई
आकांक्षा – ( लघुकथा ) -
सिने तारिका मीनाक्षी के महलनुमा बंगले में लगभग दो दर्ज़न काम करने वाले थे!इनमें ही एक विधवा शकीला भी थी!जिसका इकलौता सात आठ साल का बेटा सुल्तान सिंह था!शकीला रसोई का काम देखती थी!
कभी कभी स्कूल की छुट्टी के दिन सुल्तान भी उसके साथ आ जाता था!मीनाक्षी ने सुल्तान सिंह के नाम पर सवाल किया तो सुल्तान ने बताया कि उसकी मॉ मुसलमान है और पापा हिन्दू राजपूत थे,उन्हें कट्टर पंथियों ने इस विवाह के कारण मार दिया था!
मीनाक्षी ने एक दो बार सुल्तान को कुछ रुपये देने चाहे मगर सुल्तान ने यह कह कर मना कर दिया,"मेरे पापा ने मुझे सिखाया था कि पैसा सिर्फ़ मेहनत की कमाई का ही लेना चाहिये अन्यथा वह भीख कहलाता है!मीनाक्षी अब सुल्तान से छोटे मोटे काम करा लेती और आर्थिक मदद कर देती!
मीनाक्षी दीवाली,ईद,नया साल आदि त्यौहारों पर अपने सभी कामगारों को सपरिवार दावत देती थी!सभी को तोहफ़े भी देती थी!इस बार भी सभी को दीवाली पर दावत का निमंत्रण था!मीनाक्षी ने सोचा कि सुल्तान सिंह के पास दावत में पहनने के लिये अच्छे वस्त्र नहीं होंगे अतः उन्होंने सुल्तान के हम उम्र अपने पुत्र के कुछ पुराने मगर बेहद कीमती वस्त्र शकीला को दे दिये!
दीवाली की दावत वाले दिन मीनाक्षी ने देखा कि सभी अन्य बच्चे उसके दिये चमकीले और भडकीले कीमती वस्त्र पहने थे मगर सुल्तान सिंह एक मामूली सी पोशाक पहने था!मीनाक्षी को बुरा लगा!उसने सुल्तान को पूछ लिया,
"क्यों सुल्तान, क्या तुम्हारी यह पोशाक मेरे दिये वस्त्रों से अधिक कीमती और सुंदर है"!
"नहीं मैडम कदापि नहीं,मेरी यह पोशाक आपके दिये वस्त्रों का मुक़ाबला किसी भी द्रष्टिकोण से नहीं कर सकती"!
"फ़िर क्या वज़ह थी जो तुमने मेरी दी पोशाक नहीं पहनी"!
“मैडम ,मेरे पापा की सदैव एक ही आकांक्षा थी कि उनका परिवार ईद और दीवाली पर हमेशा नये वस्त्र पहने और वह भी मेहनत की कमाई से"!
मौलिक व अप्रकाशित
पिता द्वारा बोया गया खुद्दारी का बीज जरूर एक विशाल ह्रदय से युक्त देश को गौरव देने वाला नागरिक बनेगा। पढ़कर मन में एक सकारात्मक ऊर्जा का प्रवाह मायने महसूस किया है। बहुत ही सुन्दर व् सार्थक लघुकथा बन पड़ी है आज आदरणीय तेजवीर जी। बधाई स्वीकार करें।
हार्दिक आभार आदरणीय कांता जी !
हार्दिक आभार आदरणीय सतविंदर जी !
हार्दिक आभार आदरणीय शेख उस्मानी जी !
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