आदरणीय साथियो,
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आ. रवि भसीन ' शाहिद' आपका अशेष आभार, लघुकथा की संस्तुति हेतु, बंधु !
प्रदत्त विषय पर लघुकथा कहने का सद्प्रयास हुआ है. लेकिन यह प्रयास और भी अच्छा हो सकता था, यदि संप्रेषण बेहतर बनाया जाता. इस प्रस्तुति पर मेरी हार्दिक बधाई प्रेषित है प्रो. चेतन प्रकाश जी.
आ. भाई योगराज प्रभाकर साहब, अतिशय आभार आपका ! मैं आपकी राय से सहमत हूँ। इस पक्ष पर मुझे अतिरिक्त ध्यान देना होगा । इति !
आदरणीय चेतन प्रकाश जी
कुछ संवाद देखिये//प्रेम की विह्लता में प्रेमातुर//दरअसल आनंदातिरेक// आदि आदि। पति पत्नी के बीच के संवादों का,सहज बोलचाल की भाषा में न होना अखर रहा है।विवरण में इस तरह की भाषा का प्रयोग ठीक है।इन सबके इतर लघुकथा अपना मर्म पाठकों तक संप्रेषित करने में सफल रही है। हार्दिक बधाई
आ. सु श्री प्रतिभा पाण्डे जी, अशेष आभार, आपने मेरी प्रस्तुति, 'प्रतीक्षा' समय देकर आशीष दिया। संवाद के
संदर्भगत अंश वस्तुत: पति - पत्नि के मध्य असहज क्षणों में दाम्पत्य सूत्र में तनाव चरम पर पहुँचते समय बोले गए और सर्वथा योजित हैं, और, दोनों अपना - अपना स्वतंत्र पक्ष रख रहे हैं ! अत: संवाद की भाषा तत्सम व साहित्यिक हो चली है । साभार
इंतिज़ार
“राजू मेरा पैग बना लाना," चौहान साहिब ने आवाज़ दी।
"जी बाबू जी," राजू ने जवाब दिया।
राजू को चौहान साहिब के पास अब एक साल से ज़ियादा हो चला था। वो उनका रसोईया, ड्राइवर, सहायक सभी कुछ था, और कुछ महीने पहले आये स्ट्रोक के बाद तो चौहान साहिब उस पर पूरी तरह निर्भर हो गए थे, क्यूँकि अब उन्हें उठने और चलने-फिरने के लिए भी सहारे की ज़रुरत पड़ती थी। अच्छा लड़का था, सभ्य और आज्ञाकारी, और दसवीं पास भी था।
"खाने के लिए कुछ लाऊँ, बाबू जी?" राजू ने ड्रिंक मेज़ पर रखते हुए पूछा।
"नहीं, नहीं... बैठ जाओ," चौहान साहिब ने जाम उठाते हुए कहा।
"अच्छा बताओ, राजू, ज़िन्दगी में वो कौन सा काम है जो हम सब से ज़ियादा करते हैं?" चौहान साहिब ने महँगी शराब का एक घूँट भर कर पूछा।
"जी काम-काज, मतलब मेहनत-मज़दूरी," राजू ने कुछ सोच कर जवाब दिया।
"हाँ वो भी है, लेकिन जो काम हम सबसे ज़ियादा करते हैं वो है इंतिज़ार।"
"जी वो कैसे?"
"राजू, ज़िन्दगी नाम ही इंतिज़ार का है – बड़े होने का इंतिज़ार, पढ़ाई ख़त्म होने का, नौकरी मिलने का इंतिज़ार, फिर शादी होने का और बच्चे होने का इंतिज़ार, उसके बाद तरक़्क़ी मिलने का, शेयर बाज़ार के ऊपर जाने का, अमीर होने का इंतिज़ार, फिर बच्चों के बड़े होने का इंतिज़ार..."
बच्चों का ज़िक्र करके चौहान साहिब शून्य में ताकने लगे। उनके दो बेटे और एक बेटी थी, और तीनों ही विदेश रहते थे। दो-तीन वर्ष के बाद ही मिलना हो पाता था।
"लेकिन अब तो आप को किसी चीज़ का इंतिज़ार नहीं होगा, बाबू जी," राजू ने कहा।
"क्यूँ नहीं, अब भी तो मैं इंतिज़ार ही कर रहा हूँ। मैंने कहा ना तुम से, ज़िन्दगी नाम ही इंतिज़ार का है।"
"अब किस चीज़ का इंतिज़ार है, बाबू जी?"
"मौत का..." चौहान साहिब ने धीमी आवाज़ में कहा, "अब तो सिर्फ़ मौत का इंतिज़ार है। "
एक पल के लिए उस कमरे में वक़्त जैसे ठहर सा गया।
"आपका इन्तेज़ार ख़त्म हुआ बाबू जी," कहते हुए राजू बिजली की गति से उनकी ओर लपका और छ: इंच का चाकू उनके सीने में उतार दिया। फिर उनकी जेब से तिजोरी की चाबी निकाल कर वो बैडरूम की तरफ़ चल दिया।
(मौलिक व अप्रकाशित)
आदाब, 'लघुकथा' के मंच पर आपसे मेरा परिचय हो रहा है, आपका स्वागत है बंधु ! लेकिन लघुकथा का पृष्ठभूमि से कोई सामन्जस्य न होने के होते, अस्वाभाविक जान पड़ी ! धन्यवाद
आदरणीय चेतन प्रकाश जी, स्वागत करने के लिए, लघुकथा को अपना समय देने के लिए और आपकी प्रतिक्रिया के लिए आपका हार्दिक आभार, सादर
आदाब। वाह। विषयांतर्गत बहुत ही दार्शनिक भावयुक्त व जीवन का सत्य बतलाती लघुकथा हेतु हार्दिक बधाई जनाब रवि भसीन 'शाहिद' साहिब। मुझे ऐसा लगा कि आरंभिक दो संवादों के बाद के राजू के परिचय वाले अनुच्छेद के बजाय संक्षेप में /...'स्ट्रोक/लकवे' से पीड़ित चौहान साहब राजू पर ही आश्रित रह गये थे..// जैसा कुछ कहा जा सकता है। रचना के उत्तरार्द्ध से ऐसा लगता है कि कुछ कम शब्दों की लघुकथा इस संवाद के साथ या बाद भी शुरू की जा सकती है - //"अच्छा बताओ, राजू, ज़िन्दगी में वो कौन सा काम है जो हम सब से ज़ियादा करते हैं?"// ... वैसे इस संवाद से ही पाठक रचना का अंत या उद्देश्य समझ जायेंगे। सादर।
आदरणीय शैख़ शहज़ाद उस्मानी साहिब, आदाब। आपकी बधाई और ज़र्रा-नवाज़ी के हार्दिक आभार! आपकी साकारात्मक आलोचना और विवेचना का स्वागत है जनाब।
/वैसे इस संवाद से ही पाठक रचना का अंत या उद्देश्य समझ जायेंगे/ जी इस बात से सहमत नहीं हूँ, कहानी के अंत में जो मोड़ है, वो पाठक को आता हुआ दिखाई नहीं पड़ सकता। सादर
आ. रवि भसीन 'शाहिद' जी, लघुकथा का बढ़िया प्रयास हुआ है जिस हेतु मेरी हार्दिक बधाई प्रेषित है।
1. 'प्रयास' इसलिए कह रहा हूँ कि जो रचना अपने अन्त से उत्कृष्ट लघुकथाओं की श्रेणी में शामिल हो सकती थी उसी के अन्त ने उसका नुक़सान कर दिया। लघुकथा जिस दार्शनिकता को शुरू से लेकर चल रही है वह अन्त तक आते-आते अपराध और रहस्य में बदल जाती है। हाँ, इसका अन्त यदि विपरीत होता तो लघुकथा की ऊँचाई कहीं ऊपर उठ जाती। जीवन के अर्थ से जुड़े हुए दार्शनिक प्रश्नों ने बड़े-बड़े अपराधियों के हृदय परिवर्तन कर दिए हैं। यदि राजू शुरू से अपने मालिक को मारने का प्रयास कर रहा होता और आज उसकी दार्शनिक बातों को सुनकर अपना इरादा त्याग देता तो मुझे लगता है कि रचना बेहतर होती। फिर यदि राजू अपने मालिक को मारना ही चाहता है और मार भी देता है तो यह काम उसने पहले क्यों नहीं किया? इसके लिए उसने साल भर तक प्रतीक्षा क्यों की? फिर मालिक कुछ महीनों पहले लकवाग्रस्त भी हो गया था। यह काम वह मालिक के लकवाग्रस्त होने के तुरन्त बाद भी तो कर सकता था?
2. लघुकथा का शीर्षक बेहतर हो सकता है।
सादर।
आदरणीय महेंद्र कुमार जी, बधाई के लिए, लघुकथा को अपना क़ीमती वक़्त देने के लिए, और विस्तृत टिपण्णी के लिए तह-ए-दिल से आपका शुक्रगुज़ार हूँ, और आपकी आलोचना का भी बहुत स्वागत है।
1. /लघुकथा जिस दार्शनिकता को शुरू से लेकर चल रही है वह अन्त तक आते-आते अपराध और रहस्य में बदल जाती है/
साहिब, लघुकथा किसी दार्शनिकता को ले कर चल रही थी, इसका मुझे ज्ञान नहीं है, हाँ चौहान साहिब ज़रूर जीवन का फ़लसफ़ा राजू को समझा रहे थे, अब कौन जाने वो सहीह है या ग़लत। मैंने कहानी में कोई दार्शनिकता व्यक्त करने का प्रयास नहीं किया है, ये कहानी तो बस ज़िन्दगी का एक कतला है - दो लोगों के जीवन में कुछ क्षण। इंसान अपने फ़लसफ़े और आदर्श झाड़ता रह जाता है और ज़िन्दगी उन्हें एक पल में रौंद कर आगे बढ़ जाती है, वो चाहे दिल के दौरे के रूप में हो, या किसी भूकंप, कोरोना, शराबी वाहनचालक, राजू के रूप में...
2. /हाँ, इसका अन्त यदि विपरीत होता तो लघुकथा की ऊँचाई कहीं ऊपर उठ जाती। जीवन के अर्थ से जुड़े हुए दार्शनिक प्रश्नों ने बड़े-बड़े अपराधियों के हृदय परिवर्तन कर दिए हैं। यदि राजू शुरू से अपने मालिक को मारने का प्रयास कर रहा होता और आज उसकी दार्शनिक बातों को सुनकर अपना इरादा त्याग देता तो मुझे लगता है कि रचना बेहतर होती।/
जी हाँ, कुछ आपराधिक मानसिकता वाले लोगों का हृदय परिवर्तन हो भी जाता है, और कुछ का नहीं होता - राजू का नहीं हुआ, अब क्या कीजियेगा। पता नहीं वो चौहान साहिब की बात ध्यान से सुन भी रहा था या उन्हें क़त्ल करने की हिम्मत जुटाने में व्यस्त था। हर इंसान अच्छाई के प्रभाव में अच्छा नहीं हो जाता, और न ही हर इंसान बुराई के प्रभाव में बुरा।
3. /फिर यदि राजू अपने मालिक को मारना ही चाहता है और मार भी देता है तो यह काम उसने पहले क्यों नहीं किया? इसके लिए उसने साल भर तक प्रतीक्षा क्यों की? फिर मालिक कुछ महीनों पहले लकवाग्रस्त भी हो गया था। यह काम वह मालिक के लकवाग्रस्त होने के तुरन्त बाद भी तो कर सकता था?/
जी हो सकता है राजू का मालिक को मारने का इरादा कुछ दिन पहले ही बना हो। और वैसे भी राजू को कुछ महीने/एक साल का समय तो लग गया होगा चौहान साहिब का विशवास जीतने में और घर के अंदर ही रहने वाला सहायक बनने में, फिर ये भी है कि उसे कुछ अर्सा शायद मौक़े का इंतिज़ार करना पड़ा हो - जब घर पर कोई और नौकर न हो, या जब कहीं से मोटी पेमैंट आई हो और अभी घर की तिजोरी में ही हो...
4. यदि आपके दिमाग़ में लघुकथा का कोई और उपयुक्त शीर्षक हो तो ज़रूर बताइयेगा।
शुभकामनाओं सहित, सादर
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