परम आत्मीय स्वजन,
ओ बी ओ लाइव तरही मुशायरे के 93 वें अंक में आपका हार्दिक स्वागत है| इस बार का मिसरा -ए-तरह जनाब जोश मलीहाबादी साहब की ग़ज़ल से लिया गया है|
"दुनिया ये बदलने वाली है, किस चीज़ पे तू इतराता है "
221 1222 22 221 1222 22
मफ़ऊलु मफ़ाईलुन फेलुन मफ़ऊलु मफ़ाईलुन फेलुन
(बह्र: हज़ज़ मुसद्दस अखरब महजूफ असलम मुदाएफ़ )
मुशायरे की अवधि केवल दो दिन है | मुशायरे की शुरुआत दिनाकं 23 मार्च दिन शुक्रवार को हो जाएगी और दिनांक 24 मार्च दिन शनिवार समाप्त होते ही मुशायरे का समापन कर दिया जायेगा.
नियम एवं शर्तें:-
विशेष अनुरोध:-
सदस्यों से विशेष अनुरोध है कि ग़ज़लों में बार बार संशोधन की गुजारिश न करें | ग़ज़ल को पोस्ट करते समय अच्छी तरह से पढ़कर टंकण की त्रुटियां अवश्य दूर कर लें | मुशायरे के दौरान होने वाली चर्चा में आये सुझावों को एक जगह नोट करते रहें और संकलन आ जाने पर किसी भी समय संशोधन का अनुरोध प्रस्तुत करें |
मुशायरे के सम्बन्ध मे किसी तरह की जानकारी हेतु नीचे दिये लिंक पर पूछताछ की जा सकती है....
मंच संचालक
राणा प्रताप सिंह
(सदस्य प्रबंधन समूह)
ओपन बुक्स ऑनलाइन डॉट कॉम
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आप सबकी हौसला अफ़ज़ाई का दिली शुक्रिया आदरणीय
आदरणीया अंजलि जी बहुत अच्छी ग़ज़ल हुई हार्दिक बधाई क़ुबूल कीजिए
आभार आदरणीय
अंजली जी,इतनी छोटी टिप्पणी ओबीओ मंच की परिपाटी नहीं,कम से कम उसका नाम तो लिखें जिसका शुक्रिया अदा कर रही हैं ।
अच्छी ग़ज़ल कही है अंजली जी बधाई आपको
गर्दिश में सितारे हैं जिसके, दुनिया को भला कब
भाता है,
वो लाख पटक ले सर अपना, लोगों से सज़ा ही पाता है।
मुफ़लिस का भी जीना क्या जीना, जो घूँट लहू के पी जीता,
जितना वो झुके दुनिया आगे, उतनी ही ख़ता वो खाता है।
ऐ दर्द चला जा और कहीं, इस दिल को भी थोड़ी राहत दे,
क्यों उठ के गरीबों के दर से, मुझको ही सदा तड़पाता है।
इतना भी न अच्छा बहशीपन, दौलत के नशे में पागल सुन,
*दुनिया ये बदलने वाली है, किस चीज़ पे तू इतराता है।*
भेजा था बना जिसको रहबर, पर पेश वो रहज़न सा आया,
अब कैसे यकीं उस पर कर लें, जब रंग बदल वो आता है।
माना कि ये दुनिया नायब है, हर नूर तेरा इसमें मौला,
पर दिल को मनाएँ कैसे हम, जो रह के यहाँ घबराता है।
ये शौक़ 'नमन' ने पाला है, दुख दर्द पिरौता ग़ज़लों में,
बेदर्द जमाने पर हँसता, मज़लूम पे आँसू लाता है।
मौलिक व अप्रकाशित
आ. बासुदेव जी,
गर्दिश में सितारे हैं जिसके, दुनिया को भला कब भाता है, ....हैं को हों किया अ सकता है
मुफ़लिस का भी जीना क्या जीना, जो घूँट लहू के पी जीता,..पी जीता में अटपटापन है ..
जितना वो झुके दुनिया आगे, उतनी ही ख़ता वो खाता है।... खता ..खाता है?? देखिएगा
.
ग़ज़ल थोड़ा और समय चाह रही है ...
प्रस्तुति के लिए बधाई
सादर
आ0 नीलेश जी ग़ज़ल में शिरकत और सुझाव के लिए आभार।
आदरणीय वासुदेव जी आदाब,
शे'र दर.शे'र दाद के साथ दिली मुबारकबाद क़ुबूल करें ।
आ0 मोहम्मद आरिफ जी आपका तहे दिल से शुक्रिया।
आदरणीय वासुदेव जी, अच्छी ग़ज़ल हुई है. हार्दिक बधाई.
'माना कि ये दुनिया नायब है, हर नूर तेरा इसमें मौला' सही शब्द 'नायाब' है.
सादर
आ0 अजय तिवारी जी आपका हृदय से आभार।
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