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पंक्ति-पंक्ति को प्रभाकर करे प्रकाशित मीत.
शब्द-शब्द आभार से होता 'सलिल' विनीत.
अक्षर-अक्षर की हुई पूछ-परख फिर आज.
योगराज सुधि समीक्षक सजे शीश पर ताज..
आपका पुन: आभार आचार्य जी !
योगराज जी सेंचुरी गज़ल की सेंचुरी समीक्षा वाह बधाई !
Wondorfull!!!!!!!!
dhanyavad.
सर्व प्रथम 121 अशआर के लिये तहे दिल मुबारक बाद और आपको सलाम,
"री मुहब्बत"को अधिकांश वाक्यों में कर्ता बनाकर काफ़िया -रदीफ़ को इस तरह जोड़ीदार बना दिया
कि बड़ी आसानी से सैकड़ों शे'र कह डाले। "री मुहब्बत" को कर्ता बनाना आपके कथ्य की सबसे बड़ी ख़ूबी है
जो दूसरों का भी मार्ग दर्शन करेगी , इक नये तरह से सोचने की । बाक़ी आगे लिखूंगा।
आभार. आप सबके लेखन से मुझे भी सीखने को मिलता है. माफियोंके इस दौर में कफियोंको तलाशने के लिए कभी-कभी इस तरह राह निकल लेना होती है. आपने सही लक्ष्य किया है.
१२१ शेरों का सगन ... वाह आचार्य जी .. चाहिए तो था की हम आपको गुरु दक्षिणा दें पर आपने सब को ज्ञान की वर्षा कर दी ... आनद की लहरों में नर्तन कर रहा हूँ .....
कहने को कुछ भी बाकी नही रहा ... कहाँ काफियों की कमी क़ाहसूस कर रहे थे हम तो ... कहाँ आपने तो सूनामी ला दिया काफियों का ...
नमन है सलिल जी कलाम को तुम्हारी
ज़ुबाँ कुछ नही बोल सकती हमारी ....
आपने उत्साहवर्धन किया आभारी हूँ. सलिल की पहुँच तो जमीन पर ही है. दिक् और अम्बर तक पहुँचाने के लिए तो उसे खुद को मिटाना होता है. काश ऐसा हो सके की रचना ही रचनाकार का पर्याय हो.
आचार्य जी , रचना एक बारी पढ़ी, फिर दूजी बारी.. पर मन ही नहीं भरता , आप तो 'गागर में सागर' हैं... प्रणाम आपको...
भी हीरे को परखनेवाले जौहरी न हों तो हीरा काँच से भी मात खा जाये. आपके मन को एक पंक्ति भी रुचे तो मेरा सृजन कर्म सफल होगा.
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