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कोई कैसे सुने दास्ताँ मेरी
खुद को भूल जाते सुनते-सुनते.
वो भी साथ होते मेरे लेकिन
पांव थक जाते हैं चलते-चलते.
याद आती मुझे जब कभी उसकी
आँसू बहाते हैं चुपके-चुपके.
दिल बहुत चाहता आज हँसने को
आँख भर आती है हँसते-हँसते.
मर गये होते चाहत में उसके
मौत आती है पर मरते-मरते.
(मौलिक व अप्रकाशित )
अनिल कुमार 'अलीन'
Posted on February 5, 2014 at 11:30pm — 11 Comments
जमाना बेताब है मुश्किलें पैदा करने को,
मेरी अनकही बातों पर ऐतबार न कर.
बढ़ते रहे दरमियाँ दिलों के बीच,
चाहत ये जमाने की कामयाब न कर.
एक लकीर है हमारे और उसके बीच,
डर है गुम होने का, उसे पार न कर.
कल का सूरज किसने देखा है,
आ भर ले बाहों में इन्कार न कर.
यक़ीनन ढला ज़िस्म फौलाद के सांचें में,
पर दिल है शीशे का, तू वार न कर.
शक अपनों पर, परायों के खातिर,
यकीं नहीं है तो फिर प्यार न…
ContinuePosted on January 23, 2014 at 11:30pm — 12 Comments
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