उठ सम्भल ओ नौजवान
यही है तेरे नाम पैगाम
लिंग जाती धर्म भेद
आग में जलाए चल
एक थे हम एक हैं
अलख तू लगाए चल
दम तेरे पास है
बस तुम्हीं पे आस है
बाधा कोई रोक ले
चूलें तू उसकी ठोक दे
हर दीबार को गिराए चल
हक पाने के लिए
जन जन को जगाए चल
बस तुम्हीं में श्वास है
बस तुम्हीं पे आस है
पुण्य आज डूब रहा
पाप फल फूल रहा
सत्ता भ्रष्ट हो रही
जनता त्रस्त रो…
ContinueAdded by कंवर करतार on January 4, 2015 at 10:00pm — 10 Comments
"मेरी रचना"
देखते-दिखाते
कभी सुनते-सुनाते
चलते –चलाते
कभी पढ़ते-पढ़ाते
कुच्छ करते-कराते
कभी बतियाते
न जाने कब यह मन
पहुँच जाता कहां है
किसी देवता के
खेल चढ़े गुर की तरह
संबेदनाओं की टंकार से
हो कर सम्पदित
द्रबित मन
यादों के ढेर पर से
काल की धूली हटाता
चपल भावों की लहरें
शब्दों के पतवार
वाक्यों की…
ContinueAdded by कंवर करतार on January 4, 2015 at 1:00pm — 7 Comments
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