गजल
1222 1222 1222 1222
बताना है सभी को हम हलाली का ही खाते हैं
कि है जो कर्ज़ माटी का लहू देकर चुकाते हैं
सियासत भी है अच्छी शय जिसे अक्सर बुरा माना
भले कुछ रहनुमा भी हैं जो सबके काम आते हैं
दिशा दक्षिण में सर्दी चल पड़ी मधुमास आते ही
चमन में गुल महक उट्ठे भ्रमर भी गुनगुनाते हैं
समझना है जरा मुश्किल भरोसा किस पे करलें हम
कभी अपने उठाते हैं कभी अपने गिराते हैं
सलामत किस तरह दुनिया रहेगी आज 'राणा' बोल
भुलाकर लोग…
Added by सतविन्द्र कुमार राणा on January 30, 2018 at 7:00am — 15 Comments
1222 1222 122
बढ़े तो दर्द अक्सर टूटता है
अबस आँखों से झर कर टूटता है
गुमाँ ने कस लिया जिस पर शिकंजा
भटकता है वो दर-दर,टूटता है
नहीं गम घर मेरे आता अकेले
कि वो तो कोह बनकर टूटता है
सुने गर चीख बच्चे की तो देखो
रहा जो सख़्त पत्थर टूटता है
बजें बर्तन हमेशा साथ रह कर
भला इनसेे कभी घर टूटता है
मौलिक अप्रकाशित
अबस:बेबस
कोह:पहाड़
Added by सतविन्द्र कुमार राणा on January 21, 2018 at 9:00pm — 10 Comments
1222 1222 122
बहाना ही बहाना चल रहा है
बहाने पर ज़माना चल रहा है
बदलना रंग है फ़ितरत जहाँ की
अटल सच पर दिवाना चल रहा है
नही गम में हँसा जाता है फिर भी
अबस इक मुस्कुराना चल रहा है
निवाला बन गया अपमान मेरा
ये कैसा आबो दाना चल रहा है
वफा मेरी मुनासिब है तो फिर क्यों
अगन सेआजमाना चल रहा है
नहीं रिश्ता है पहले-सा हमारा
मग़र मिलना-मिलाना चल रहा है
मौलिक एवं अप्रकाशित
Added by सतविन्द्र कुमार राणा on January 17, 2018 at 6:16pm — 8 Comments
Added by सतविन्द्र कुमार राणा on January 15, 2018 at 9:31am — 8 Comments
2122 2122 2122
इश्क में, व्यापार में या दोस्ती में
दिल दिया है हमने अपना पेशगी में
बूँद भर भी आब काफी तिश्नगी में
एक जुगनू भी है दीपक तीरगी में
ठोकरें खाकर नहीं सीखा सँभलना
क्या मज़ा आएगा ऐसी जिन्दगी में
दर्द,आंसू,बेबसी के बाद भी क्यों
मन रमा रहता हमेशा आशिकी में
किस जमाने…
ContinueAdded by सतविन्द्र कुमार राणा on January 9, 2018 at 8:30pm — 10 Comments
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