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जयनित कुमार मेहता's Blog – February 2017 Archive (4)

गुलाब ऐसे ही थोड़ी गुलाब होता है (ग़ज़ल)

1212 1122 1212 22



क़दम-क़दम पे नुमाया सराब होता है

नज़र में दिखता है फिर चूर ख़्वाब होता है



नयी उमर में निगाहों में आब होता है

भड़क उठे जो यही इंक़िलाब होता है



दिलों की गुफ़्तगू भी क्या क़माल होती है

नज़र-नज़र में सवाल-ओ-जवाब होता है



अगर हो रब्त दिलों में तो दूरियां कैसी

ज़मीं से दूर बहुत आफ़ताब होता है



जो काटनी हों कभी हिज्र की सियाह शबें

हर इक ख़याल तेरा माहताब होता है



वो लोग चेहरों को पढ़ना सिखा रहे हम को

बजाय… Continue

Added by जयनित कुमार मेहता on February 22, 2017 at 3:38pm — 3 Comments

कोई इस तरह न तोड़े सपने (ग़ज़ल)

2122 1122 22



उम्र-भर चुभते हैं बिखरे सपने

कोई इस तरह न तोड़े सपने



टूट जाती है तभी नींद मेरी

जब कभी आते हैं अच्छे सपने



पूरे होने की कोई शर्त नहीं?

पूरे होते नहीं ऐसे सपने



हम हकीकत में यकीं रखते है

हों मुबारक़ तुझे तेरे सपने



वस्ल का वक़्त है नज़दीक बहुत

सुब्ह आते है अब उसके सपने



नींद अब मुझसे ख़फ़ा है, यानी

उसको रास आ गए मेरे सपने



अपनी क़िस्मत में फ़क़त प्यास ही थी

पर थे आँखों में नदी के… Continue

Added by जयनित कुमार मेहता on February 12, 2017 at 11:55am — 12 Comments

कल भी था और आज भी है (ग़ज़ल)

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इन बन्ज़र आँखों में समंदर कल भी था और आज भी है

प्यास से मरना मेरा मुक़द्दर कल भी था और आज भी है



कोई इलाज-ए-ज़ख्म-ए-दिल वो ढूँढ न पाया आज तलक

बेबस का बेबस चारागर कल भी था और आज भी है



उसी राह से कितने मुसाफ़िर मंज़िल तक जा पहुँचे, मगर

उसी जगह पर राह का पत्थर कल भी था और आज भी है



अजल से लेकर आज तलक जाने कितनों की नींदें ठगीं

बदनामी का दाग़ चाँद पर कल भी था और आज भी है



दैर-ओ-हरम,दश्त-ओ-सहरा में मिलता भी कैसे… Continue

Added by जयनित कुमार मेहता on February 7, 2017 at 11:30pm — 16 Comments

मौसम-ए-हिज्र ने इक फूल खिलाया है अभी (ग़ज़ल)

2122 1122 1122 22



सिवा उसके कोई मंज़र नहीं दिखता है अभी

गोया आँखों में वही नक़्श ही ठहरा है अभी



मौसम-ए-हिज्र ने इक फूल खिलाया है अभी।

बाद मुद्दत के उसे ख़्वाब में देखा है अभी



शब गुज़र भी चुकी महताब भी घर अपने चला

पर मेरी शम्अ-ए-उम्मीद को जलना है अभी



जानता हूँ कि कोई लहर मिटा ही देगी

आदतन नाम वो फिर रेत पे लिक्खा है अभी



मैं कलंदर हूँ, मुझे भूल से मुफ़लिस न समझ

कि मेरी जेब में ईमान का सिक्का है अभी



चाहते भी हैं… Continue

Added by जयनित कुमार मेहता on February 3, 2017 at 8:56pm — 5 Comments

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