“बेटा!.. तुझे याद है न.. जब तू स्कूल में प्रथम श्रेणी में आया था , मुझे कितनी ख़ुशी हुई थी . सभी लोग यही कह रहे थे कि मेरा बेटा है"
“ हाँ!..पर रात-दिन पढाई मैंने की थी, आपने जो किया था वो आपका फर्ज था "
“ हाँ! बेटा यही समझ ले, बस मुझे इसी घर में रहने दे. अब गली-गली दरबदर फिरूंगा, तो लोग यही कहेंगे की तेरा बाप हूँ...”
जितेन्द्र पस्टारिया
(मौलिक व् अप्रकाशित )
Added by जितेन्द्र पस्टारिया on February 24, 2015 at 10:39am — 27 Comments
धीमी-धीमी सी
हवाओं में
दीपों की टिमटिमाती लौ
दे जाती है
अंतर को भी रोशनी
बे-समय आँधियों ने
कब किया है, रोशन
बस! बुझा दिया
या फूंक दिए है जीवन
उन्ही दीपों से.
अथाह तेज बारिशों ने भी
बहा दिए हैं, जीवन
नदियों के मटमैले
जल से
प्यासा, प्यासा ही रहा
वैसे ही, जैसे
वैशाख-ज्येष्ठ की धूप में
बैठा हो
शुष्क किनारों पर
जीवन को तो
उतनी ही…
ContinueAdded by जितेन्द्र पस्टारिया on February 7, 2015 at 1:03pm — 23 Comments
“ हे. भगवान..बस! एक पोते की कामना थी, वो भी पूरी नहीं हो पाई इस बार. तीन-तीन पोतियों की लाइन लग गई ” अपनी बहु के कमरे से बाहर, खले की ओर जाते हुए मन में बडबडा ही रही थी, कि
“ माँ!! मैं बाजार जा रहा हूँ, कुछ लाना हो बता दो ” बेटे ने पूछा
“ हाँ! बेटा.. गुड़ ले आना, वो बूढी गाय न जाने कब जन जाए, अब की बार बछिया ले आये तो आगे भी घर का दूध मिल जाया करेगा “
जितेन्द्र पस्टारिया
(मौलिक व् अप्रकाशित)
Added by जितेन्द्र पस्टारिया on February 5, 2015 at 10:54am — 24 Comments
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