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समझ लूँ मैं गुनाहों को भला अतवार1 से कैसे
मगर पूछूँ तरीका भी किसी अबरार2 से कैसे
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सभी की थी दुआएं तो जला जब भी यहाँ दीपक
मिटाया पर गया ना तब बता अनवार3 से कैसे
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हमेशा बोलता था तू नहीं रिश्ता रहा कोई
गले लगती बता कमसिन किसी अगियार4 से कैसे
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जुटा पाया न मैं साहस अना5 की बात कहने को
उलझ वो भी गई पूछे किसी अफगार6 से कैसे
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सदा लेते जनम वो तो गलत को ठीक करने…
Added by लक्ष्मण धामी 'मुसाफिर' on February 25, 2014 at 7:00am — 7 Comments
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बचपने में चाँद को रोटी समझना भूल थी
कमसिनी में एक कमसिन से लिपटना भूल थी
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तात ने डाटा किताबें पढ़, मुहब्बत में न पड़
तात से इस बात पर मेरा झगड़ना भूल थी
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कोख में जब मात ने पाला न माना कुछ उसे
इक कली के द्वार पर माथा रगड़ना भूल थी
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मिट गया वो, पात ने कर ली हवा से प्रीत जब
बेखुदी में डाल से उसका बिछड़ना भूल थी
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लूटता इज्जत भ्रमर नित दोष उसको कौन…
ContinueAdded by लक्ष्मण धामी 'मुसाफिर' on February 18, 2014 at 7:30am — 11 Comments
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राह में अवरोध जितने, ओ! जमाने तूँ लगा ले
है मुहब्बत चीज ऐसी, रास्ता फिर भी बना ले
हर जुनूँ कमतर है इसको, आग इसकी कौन रोके
आशिकी पीछे हटी कब, इम्तहाँ गर जो खुदा ले
कैश की हर पीर लैला, खीच लेती ओर अपनी
है मुहब्बत को बहुत कम, जुल्म जग जितने बढ़ा ले
इस मुहब्बत की बदौलत, शिव फिरे ले शव सती का
अंध देखे रंग दुनिया, नेह में जब मन रमा ले
खत्म …
ContinueAdded by लक्ष्मण धामी 'मुसाफिर' on February 14, 2014 at 7:00am — 13 Comments
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आँख में उनकी छिपा डर देख लेते
जल गये जो आप वो घर देख लेते
कर दिया अंधा सियासत ने सहज ही
आप वरना खूँ के मंजर देख लेते
क्यों किसी के आसरे पर आप बैठे
कुछ नया खुद आजमाकर देख लेते
बात करते हो बहुत तुम न्याय की जब
हाकिमों नित क्यों कटे सर देख लेते
खूब सुनते है तेरी जादूगरी की
आग पानी से जलाकर देख लेते
सोच लेता मैं कि जन्नत पा गया हूँ …
Added by लक्ष्मण धामी 'मुसाफिर' on February 12, 2014 at 7:30am — 16 Comments
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दीप को जलना नहीं है भूल से भी द्वार मेरे
आप नाहक कोशिशें क्यों कर रहे हो यार मेरे
खून हाथों पर लगा है किन्तु कातिल मैं नहीं हूँ
फूल से अठखेलियों में चुभ गये थे खार मेरे
छा गया है आजकल जो इस मुहब्बत में कुहासा
क्या बताऊँ आपको मैं देवता बीमार मेरे
दीन में रखना मुझे क्यों आप फिर भी चाहते हो
मयकदे में भेज बदले जब सदा आचार …
Added by लक्ष्मण धामी 'मुसाफिर' on February 6, 2014 at 8:00am — 8 Comments
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मुहब्बत की नहीं उससे , वफा भी फिर निभाता क्या
खबर थी ये उसे भी जब , मुझे तोहमत लगाता क्या
सपन में रात भर था जो , उसे भी ले गया सूरज
मिला साथी मुझे भी है , जमाने फिर बताता क्या
जिसे डर हो सजाओं का, उसे यारों सताता डर
हुए पैदा सलीबों पर , बता डरता डराता क्या
न हो तू अब खफा ऐसे , रहा है भाग बंजारा
न था कोई ठिकाना जब, पता तुझको लिखाता क्या…
Added by लक्ष्मण धामी 'मुसाफिर' on February 2, 2014 at 7:00am — 11 Comments
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