गजल (रहनुमा)
2122 2122 2122 2122
इस शहर मैं रस्मे-आमद लोग इस तरह निभाते हैं
हाथों मैं गुल होते नहीं और पत्थर लिए नजर आते हैं
तेरी सूरत मेरी सूरत से हसीं नहीं बताने को ये
आने वाले हर शख्स को वो आईना दिखलाते हैं
वो भी देख लें कभी गिरेवां मैं अपने झांककर यारों
दूसरों पे जो यूँ ही अक्सर उँगलियाँ ऊठाते हैं
मैं जो निकला हूँ सफर पे तो मंजिल पा ही लूँगा कभी
फिर क्यूँ मुझे मेरी मंजिल का पता बतलाते हैं
जाने किस भेष…
Added by Sachin Dev on March 22, 2014 at 5:00pm — 14 Comments
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