पांच मिनट के लिए स्टेशन पर गाड़ी रुकी जनरल बोगी में पहले ही बहुत भीड़ थी उसपर बहुत से लोग और घुस आये जिनमे सजे धजे परफ्यूम की सुगंध बिखेरते चार किन्नर भी थे| कुछ लोगों के चेहरे पर अजीब सी मुस्कान आ गई जैसे की कोई मनोरंजन का सामान देख लिया हो कुछ लोगों ने अजीब सा मुंह बनाया तथा एक साइड को खिसक लिए जैसे की कोई छूत की बीमारी वाले आस- पास आ गए हों|
“अब ये अपने धंधे पर लगेंगे” वहाँ बैठे लडकों के ग्रुप में से एक ने कहा| “हाँ यार आज कल तो ट्रेन में भी आराम से सफ़र नहीं कर सकते अच्छी…
ContinueAdded by rajesh kumari on April 24, 2017 at 12:08pm — 26 Comments
११२ ११२ ११२ ११२ ११२ ११२ ११२ ११२ २
सुन्दरी सवैया (मापनीयुक्त वर्णिक)
वर्णिक मापनी - 112 X 8 + 2
निकले घर से नदिया लहरी शुचि शीतलता पहने गहना है|
चलते रहना मृदु नीर लिए हर मौसम में उसको बहना है|
कटना छिलना उठना गिरना निज पीर सभी हँसके सहना है|
अधिकार नहीं कुछ बोल सके अनुशासन में उसको रहना है|
खुशबू जिसमे सच की बसती उससे बढ़के इक फूल नहीं है|
जननी रखती निज पाँव जहाँ उससे शुचि पावन धूल नहीं है|
जिसके रहते अरि फूल छुए…
ContinueAdded by rajesh kumari on April 11, 2017 at 6:12pm — 7 Comments
बहा तुमको लिए जाती थी जो वो धार भी हम थे
हमी साहिल तुम्हारी नाव के पतवार भी हम थे
निगल जाता सरापा तुमको वो तूफ़ान था जालिम
खड़े तनकर उसी के सामने दीवार भी हम थे
मुक़द्दस फूल थे मेरे चमन के इक महकते गर
छुपे बैठे हिफाज़त को तुम्हारी ख़ार भी हम थे
किया घायल तुम्हारा दिल अगर इल्जाम भी होता
तुम्हारा दर्द पीने को वहाँ गमख्वार भी हम थे
रिवाजों की बनी जंजीर ने गर तुमको बांधा था
वहाँ मौजूद उसको काटने…
ContinueAdded by rajesh kumari on April 9, 2017 at 8:30pm — 21 Comments
नदी का वो घाट पर जहाँ दूर-दूर तक मुर्दों के जलने से मांस की सड़ांध फैली रहती थी साँस लेना भी दूभर होता था वहीँ थोड़ी ही दूरी पर एक झोंपड़ी ऐसी भी थी जो चिता की अग्नि से रोशन होती थी|
भैरो सिंह का पूरा परिवार उसमे रहता था दो छोटे छोटे बच्चे झोंपड़ी के बाहर रेत के घरोंदे बनाते हुए अक्सर दिखाई दे जाते थे |
दो दिन से घाट पर कोई चिता नहीं जली थी बाहर बच्चे खेलते-खेलते उचक कर राह देखते- देखते थक गए थे कि अचानक उनको राम नाम सत्य है की आवाजें सुनाई दी सुनते ही बच्चे ख़ुशी से उछल पड़े…
ContinueAdded by rajesh kumari on April 5, 2017 at 9:00pm — 20 Comments
हाजिरी वो ज्यों लगाने आ गए
याद उनको फिर बहाने आ गए
मुट्ठियों में वो नमक रखते तो क्या
जख्म हमको भी छुपाने आ गए
चल पड़े थे हम कलम को तोड़कर
लफ्ज़ हमको खुद बुलाने आ गए
जेब मेरी हो गई भारी जरा
दोस्त मेरे आजमाने आ गए
रोज लिखना शायरी उनपर नई
याद हमको वो फ़साने आ गए
शमअ इक है लाख परवाने यहाँ
इश्क में खुद जाँ लुटाने आ गए
झील में अश्जार के धुलते …
ContinueAdded by rajesh kumari on April 2, 2017 at 11:00am — 24 Comments
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