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Nilesh Shevgaonkar's Blog – May 2015 Archive (11)

ग़ज़ल-नूर -अब ख़लाओं की मेज़बानी दे.

२१२२/१२१२/२२ (११२)
या ख़ुदा ऐसी ला-मकानी दे
अब ख़लाओं की मेज़बानी दे.
.
कितना आवारा हो गया हूँ मैं
ज़िन्दगी को कोई मआनी दे.
.
यूँ न भटका मुझे सराबों में
अपने होने की कुछ निशानी दे.      
.
सच मेरा कोई मानता ही नहीं
सच लगे ऐसी इक कहानी दे.
.
मेरी ग़ज़लों की क्यारी सूख गयी  
मेरी ग़ज़लों को थोडा पानी दे.
.
“नूर” को फ़िक्र दे नई मौला
पर नज़र उस को तू पुरानी दे.
.
निलेश "नूर"
मौलिक / अप्रकाशित 

Added by Nilesh Shevgaonkar on May 31, 2015 at 9:30pm — 27 Comments

ग़ज़ल -नूर -सपने क्या क्या बुन लेते थे छोटी छोटी बातों में

मात्रिक बहर 22/22/22/22/22/22/22/2 



क्या क्या सपनें बुन लेते थे छोटी छोटी बातों में

क़िस्मत ने कुछ और लिखा था लेकिन अपने हाथों में.

.

कैसे कैसे खेल थे जिन में बचपन उलझा रहता था

मोटे मोटे आँसू थे उन सच्ची झूठी मातों में.

.

कितने प्यारे दिन थे जब हम खोए खोए रहते थे 

लड़ते भिड़ते प्यार जताते खट्टी मीठी बातों में.



एक ये मौसम, ख़ुश्क हवा ने दिल में डेरा डाला है

एक वो ऋत थी, साथ तुम्हारे भीगे थे बरसातों में.

.

एक समय तो…

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Added by Nilesh Shevgaonkar on May 28, 2015 at 10:00pm — 20 Comments

ग़ज़ल -नूर -कितनी सादा-दिली से मिलता है

२१२२/१२१२/२२ 

कितनी सादा-दिली से मिलता है

जब समुन्दर नदी से मिलता है.

.

इक नयी कायनात पनपेगी    

कोई भौंरा कली से मिलता है.  

.

रब्त इस बात पर टिके हैं अब

कोई कितना किसी से मिलता है.

.

हर किसी से यही वो कहते हैं

दिल मेरा आप ही से मिलता है. 

.

अब सुमंदर में भी है बे-चैनी

क़तरा अपनी ख़ुदी से मिलता है.

.

सुब’ह से पहले जुगनू यूँ चमका

गोया लम्हा सदी से मिलता है.



मौत से क्या पता…

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Added by Nilesh Shevgaonkar on May 26, 2015 at 9:21pm — 34 Comments

ग़ज़ल -नूर - कुछ और मुझ में जीने की हसरत बढ़ा गया

गागा ल/गा लगा/लल गागा/ लगा लगा   



कुछ और मुझ में जीने की हसरत बढ़ा गया

वादा किया था आने का, सचमुच में आ गया.

.

इक रोज़ मुझ से कहते हुए “ख़ूब लगते हो”

वो अपनी आँख का मुझे काजल लगा गया.

.

काफ़िर अगर जो मैं न बनूँ  और क्या बनूँ ?

दिल के हरम को छोड़ के मेरा ख़ुदा गया.

.

उट्ठा मैं हडबड़ा के टटोला इधर उधर,

ख़्वाबों में कौन आया, जगाया, चला गया. 

.

पत्ते झडे जो पक के करे उन का सोग कौन  

अफ़सोस है खिज़ा को... कि पत्ता हरा…

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Added by Nilesh Shevgaonkar on May 24, 2015 at 1:30pm — 22 Comments

ग़ज़ल -नूर : ये दुआ है फ़क़त दुआ निकले

२१२२/१२१२/२२ (११२)



जब भी लफ़्ज़ों का काफ़िला निकले

ये दुआ है, फ़कत दुआ निकले.

.

कोई ऐसा भी फ़लसफ़ा निकले

ख़ामुशी का भी तर्जुमा निकले.

.

सुब’ह ने फिर से खोल ली आँखें  

देखिये आज क्या नया निकले.

.

हम कि मंज़िल जिसे समझते हैं  

क्या पता वो भी रास्ता निकले.

.

लुत्फ़ जीने का कुछ रहा ही नहीं

क्या हो गर मौत बे-मज़ा निकले?     

.

रोज़ चलता हूँ मैं, मेरी जानिब

रोज़ ख़ुद से ही फ़ासला निकले.

.

गर है कामिल^,…

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Added by Nilesh Shevgaonkar on May 17, 2015 at 5:42pm — 25 Comments

ग़ज़ल -नूर हमनें ये जिस्म पाप का गट्ठर बना दिया.

गागा लगा लगा/ लल/ गागा लगा लगा

आवारगी ने मुझ को क़लन्दर बना दिया

कुछ आईनों ने धोखे से पत्थर बना दिया.

.

जो लज़्ज़तें थीं हार में जाती रहीं सभी  

सब जीतने की लत ने सिकंदर बना दिया.

.

नाज़ुक से उसने हाथ रखे धडकनों पे जब  

तपता सा रेगज़ार समुन्दर बना दिया.

.

एहसास सब समेट लिए रुख्सती के वक़्त

दीवानगी-ए-शौक़ ने शायर बना दिया. 

.

जो उस की राह पे चले मंज़िल उन्हें मिले  

बाक़ी तो बस सफ़र ही…

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Added by Nilesh Shevgaonkar on May 14, 2015 at 11:29am — 35 Comments

ग़ज़ल-नूर कलंदर सी मस्ती में रहता है



22/22/22/22/22/2 (सभी कॉम्बिनेशन्स)

दिल के ओहदेदारों का अब क्या करिये.

बचपन के उन यारों का अब क्या करिये.

.

तुम कब तुम थे- मैं कब मैं, वो कहानी थी

उन मुर्दा क़िरदारों का अब क्या करिये. 

.

राजमहल था जिस्म, ये दिल था शाह कभी 

इन वीरां दरबारों का अब क्या करिये.  

.

मान गए वो आख़िर में जब बात अपनी

पहले के इन्कारों का अब क्या करिये.

.

उसके क़दमों पे धर आए सर ही जब

फिर महँगी दस्तारों का अब क्या करिये.…

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Added by Nilesh Shevgaonkar on May 12, 2015 at 10:30am — 26 Comments

एक सादा ग़ज़ल-नूर

२१२२/ २१२२/ २१२२/ २१२ 

.दिल में गर तूफां उठे तो मुस्कुराना है कठिन

याद करना है सरल पर भूल जाना है कठिन. 

.

यादों के झौंके पे झूले झूलना कुछ और है,

यादों के अंधड़ को लेकिन रोक पाना है कठिन.

.

हिचकियाँ आई यूँ ही होंगी तुझे नादान दिल!

भूलने वालों को तेरी याद आना है कठिन.

.

आड़ दो हाथों की पाकर सर उठा लेती है लौ,

हाँ खुली छत पर दीये का जगमगाना है कठिन.

.

कैसे कैसे लोग अब बसने लगे हैं शह्र में

अब लगे है यां भी अपना…

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Added by Nilesh Shevgaonkar on May 6, 2015 at 4:00pm — 22 Comments

ग़ज़ल-नूर : आसमां क्या ख़बर नहीं रखता

२१२२/१२१२/२२ (११२)



वह’म है वो नज़र नहीं रखता

आसमां क्या ख़बर नहीं रखता.  

.

वो मकीं सब के दिल में रहता है

आप कहते हैं घर नहीं रखता.

.

है मुअय्यन हर एक काम उसका

कुछ इधर का उधर नहीं रखता.



अपने दर पे बुलाना चाहे अगर

तब खुला कोई दर नहीं रखता.

.

ख़ामुशी अर्श तक पहुँचती है 

लफ्ज़ ऐसा असर नहीं रखता. 

.

तेरी हर साँस साँस मुखबिर है

तू ही ख़ुद पे नज़र नहीं रखता.

.

दिल ही दिल में हमेशा घुटता है…

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Added by Nilesh Shevgaonkar on May 5, 2015 at 8:30am — 20 Comments

इस्लाह हेतु ..बड़ी बहर पे एक ग़ज़ल

२१२/ २१२/ २१२/ २१२// २१२/ २१२/ २१२/ २१२  

हर तरफ भागती दौडती ज़िन्दगी बेसबब घूमती इक घड़ी की तरह

हमसफ़र है वही और राहें वही, मंज़िले हैं मगर अजनबी की तरह. 

.

आज के बीज से उगते कल के लिए मुझ को जाना पड़ेगा तुम्हे छोड़कर

तुम भी गुमसुम सी हो मैं भी ख़ामोश हूँ लम्हा लम्हा लगे है सदी की तरह

.

श्याम की संगिनी बाँसुरी ही रही, प्रीत की रीत भी आज तक है यही

कर्म की राह ने प्रेम को तज दिया, राधिका रह गयी बावरी की तरह.

.     

ये अलग बात है उनसे बिछड़े हुए…

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Added by Nilesh Shevgaonkar on May 2, 2015 at 10:00pm — 36 Comments

ग़ज़ल नूर- चाहता था सँवरना ताजमहल

२१२२/१२१२/२२ (११२)

याद हम को तभी ख़ुदा आया

जब कोई सख्त मरहला आया

.

उम्र भर सोचते रहे तुझ को

अब कहीं जा के सोचना आया

.

और करता भी क्या उसे रखकर 

साथ ख़त ही के, दिल बहा आया.

.

डूबने कब दिया अनाओं ने 

तर्क करते ही डूबना आया. 

.

चाहता था सँवरना ताजमहल

मैं वहाँ आईना लगा आया.

.

तू उफ़क़ अपना देख ले आकर

मैं तेरा आसमां झुका आया.

.

सोचता है अगरचे कब्र में है    

‘नूर’ दुनिया में ख़्वाह-मख़ाह…

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Added by Nilesh Shevgaonkar on May 2, 2015 at 8:00am — 25 Comments

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