२२ २२ २२ २२ २२ २२ २२ २२
अवशेष चिनारों के तुमसे आफ़ात पुरानी कह देंगे
हालात वहाँ कैसे बिगड़े खुद अपनी जुबानी कह देंगे
दीवारें धज्जी धज्जी सी हर छत दिखती उधड़ी उधड़ी
आसार लहू के अक्स तुम्हें बेख़ौफ़ कहानी कह देंगे
दिखते पर्वत सहमे-सहमे औ गुम-सुम से झरने नदियाँ
कब-कब दामन में आग लगी कब बरसा पानी कह देंगे
जो साथ जला करते थे कभी आबाद रहे जिनसे आँगन
वो आज अल्हेदा चूल्हे खुद दिल की…
ContinueAdded by rajesh kumari on July 29, 2014 at 9:48pm — 21 Comments
१२२ १२२ १२२ १२
जहाँ गलतियाँ हों बता दें मेरी
चुभें ये अगर साफ़ बातें मेरी
तुम्हें जिन्दगी दी तो हक़ भी मिला
तुम्हारे कदम पे निगाहें मेरी
हर इक मोड़ पर तुम मुझे पाओगे
नहीं हैं जुदा तुमसे राहें मेरी
तुम्हें नींद आती नहीं है अगर
कहाँ फिर कटेंगी ये रातें मेरी
छुपा क्या सकोगे जबीं की शिकन
हमेशा पढ़ेंगी ये आँखें मेरी
तुम्हारी हिफ़ाज़त करूँ जब तलक
चलेंगी तभी तक…
ContinueAdded by rajesh kumari on July 23, 2014 at 11:30am — 17 Comments
‘महिला उत्थान’ मुद्दे पर संगोष्ठी से घर लौटते ही कुमुद से उसके पति ने कहा... “अभी थोड़ी देर पहले ही दीपा आई थी मिठाई लेकर वो बहुत अच्छे नम्बरों से पास हुई है कंप्यूटर कोर्स तो उसका पूरा हो ही गया था,तुम्हारी प्रेरणा और मार्ग दर्शन से कितना कुछ कर लिया इस लड़की ने हमारे घर में काम करते-करते.... अब सोचता हूँ अपने ऑफिस में एक वेकेंसी निकली है इसको रखवा दूँ “
कुमुद कुछ सोच कर बोली”अजी इतनी भी क्या जल्दी, वैसे भी सोचो इतनी अच्छी काम वाली फिर कहाँ मिलेगी, फिर तो ये काम करेगी…
ContinueAdded by rajesh kumari on July 20, 2014 at 11:00am — 28 Comments
१२२२ १२२२ १२२२ १२२२
तुम्हारे पाँव से कुचले हुए गुंचे दुहाई दें
फ़सुर्दा घास की आहें हमें अक्सर सुनाई दें
तुम्हें उस झोंपड़ी में हुस्न का बाज़ार दिखता है
हमें फिरती हुई बेजान सी लाशें दिखाई दें
तुम्हें क्या फ़र्क पड़ता है मजे से तोड़ते कलियाँ
झुकी उस डाल में हमको कई चीखें सुनाई दें
न कोई दर्द होता है लहू को देख कर तुमको
तुम्हें आती हँसी जब सिसकियाँ भर- भर दुहाई दें
कहाँ…
ContinueAdded by rajesh kumari on July 7, 2014 at 10:00pm — 36 Comments
सन १९८३ मार्च या अप्रेल का महीना हम कुछ परिवार मिलकर विशाखापत्तनम के ऋषिकोंडा बीच पर पिकनिक मनाने गए | उस वक़्त मेरे पति भारतीय नौसेना में अधिकारी थे अतः मित्र परिवार भी नेवी वाले ही थे|बीच पर पंहुचते ही अचानक तेज बारिश होने लगी|मेरे दोनों बच्चे बहुत छोटे थे अतः उनको भीगने से बचाने के लिए जगह खोजने लगे |
बीच के किनारे पर मछुआरों की बस्ती थी उन्होंने हमारी परेशानी समझी और हमे अपनी झोंपड़ियों में बिठाया| मछली की बू सहन भी नहीं हो रही थी किन्तु मजबूरी थी फिर उन्होंने कहीं से दूध का…
ContinueAdded by rajesh kumari on July 4, 2014 at 8:20pm — 16 Comments
एक बाजू गर्वीला पर्वत
अपनी ऊँचाई और धवलता पर इतराता
क्यूँ देखेगा मेरी ओर?
गर्दन झुकाना तो उसकी तौहीन है न!
दूजी बाजू छिः !! यह तुच्छ बदसूरत बदरंग शिलाखंड
मैं क्यूँ देखूँ इसकी ओर
कितना छोटा है ये
इसकी मेरी क्या बराबरी
समक्ष,परोक्ष ये ईर्ष्यालू भीड़ ,उफ्फ!!
जब सबकी अपनी-अपनी अहम् की लड़ाई
और मध्य में वर्गीकरण की खाई
फिर क्यूँ शिकायत
अकेलेपन से!!
अपने दायरे में
संतुष्ट क्यों नहीं…
ContinueAdded by rajesh kumari on July 3, 2014 at 10:42pm — 12 Comments
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