122 / 122 / 122 / 122
मक़ाम ऐसे चाहत में आने लगे हैं
अब उनके सितम दिल को भाने लगे हैं [1]
मज़े वस्ल में पहले आते थे जो सब
हमें अब वो फ़ुर्क़त में आने लगे हैं [2]
उन्हीं का तो ग़म हमने ग़ज़लों में ढाला
ये एहसाँ वो हम पर जताने लगे हैं [3]
नया जौर का सोचते हैं तरीक़ा
वो उँगली से ज़ुल्फ़ें घुमाने लगे हैं [4]
मुझे लोग दीवाना समझेंगे शायद
मेरे ख़त वो सबको सुनाने लगे हैं [5]
हुए इतने बेज़ार ज़ुल्मत से…
ContinueAdded by रवि भसीन 'शाहिद' on July 27, 2020 at 9:59am — 13 Comments
2122 / 1122 / 1122 / 22
उस अधूरी सी मुलाक़ात पे रोना आया
जो न कह पाए हर उस बात पे रोना आया [1]
दूरियों के थे जो क़ुर्बत के भी हो सकते थे
ऐसे खोए हुए लम्हात पे रोना आया [2]
दे गए जाते हुए वो जो ख़ज़ाना ग़म का
जाने क्यूँ उस हसीं सौग़ात पे रोना आया [3]
रो लिए उनके जवाबात पे हम जी भर के
फिर हमें अपने सवालात पे रोना आया [4]
आँख भर आई अचानक यूँ ही बैठे बैठे
क्या बताएँ तुम्हें किस बात पे रोना आया [5]
दिल तो…
ContinueAdded by रवि भसीन 'शाहिद' on July 26, 2020 at 4:46pm — 11 Comments
बह्रे मुजतस मुसम्मन मख्बून महज़ूफ मक़्तूअ'
1212 / 1122 / 1212 / 22
क़रार-ए-मेहर-ओ-वफ़ा भी नहीं रहा अब तो
महब्बतों में मज़ा भी नहीं रहा अब तो [1]
जहाँ से मुझको गिला भी नहीं रहा अब तो
मलाल इसके सिवा भी नहीं रहा अब तो [2]
ख़बर जहान की तुम पूछते हो क्या यारो
मुझे कुछ अपना पता भी नहीं रहा अब तो [3]
जिसे सँभाल के रक्खा था इक निशानी सा
मेरा वो ज़ख़्म हरा भी नहीं रहा अब तो [4]
है बेवफ़ाई में उसकी ग़ज़ब की…
ContinueAdded by रवि भसीन 'शाहिद' on July 13, 2020 at 12:00am — 8 Comments
बह्रे रमल मुसम्मन महज़ूफ़
2122 / 2122 / 2122 / 212
जिस तरफ़ देखूँ है तन्हाई किसे आवाज़ दूँ
हर मसर्रत दिल की गहनाई किसे आवाज़ दूँ
ना-उमीदी दिल पे है छाई किसे आवाज़ दूँ
दौर-ए-ग़म से रूह घबराई किसे आवाज़ दूँ
बंद है हर दर यहाँ तो हर गली वीरान है
ज़िन्दगी मुझको कहाँ लाई किसे आवाज़ दूँ
कोई भी ऐसा नहीं जो दर्द-ओ-ग़म समझे मेरा
हर तरफ़…
Added by रवि भसीन 'शाहिद' on July 8, 2020 at 2:01pm — 7 Comments
212 / 1222 / 212 / 1222
दुनिया के गुलिस्ताँ में फूल सब हसीं हैं पर
एक मुल्क ऐसा है जो बला का है ख़ुद-सर
लाल जिसका परचम है इंक़लाब नारा है
ज़ुल्म करने में जिसने सबको जा पछाड़ा है
इस जहान का मरकज़ ख़ुद को गो समझता है
राब्ता कोई दुनिया से नहीं वो रखता है
अपनी सरहदों को वो मुल्क चाहे फैलाना
इसलिए वो हमसायों से है आज बेगाना
बात अम्न की करके मारे पीठ में खंजर
और रहनुमा उसके झूट ही बकें दिन भर
इंसाँ की तरक़्क़ी…
Added by रवि भसीन 'शाहिद' on July 3, 2020 at 1:00am — 10 Comments
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