ग़ज़ल
लगती है बाज़ार गुज़रते हैं आदमीं
हर रोज़ बिकने खड़े होते हैं आदमीं
उठते हैं हर सुबह जाने क्या सोचकर
इस पेट के आगे पर झुकते हैं आदमीं
तपती दोपहरी में जब लगती है प्यास
बुझे ए कैसे यही सोचते हैं आदमीं …
Added by Atendra Kumar Singh "Ravi" on July 24, 2011 at 9:47am — 2 Comments
Added by Atendra Kumar Singh "Ravi" on July 21, 2011 at 1:46pm — 2 Comments
"चल रहा आदमी"
वक़्त के हासिए पर लटक रहा आदमी
Added by Atendra Kumar Singh "Ravi" on July 21, 2011 at 11:24am — 3 Comments
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