बचपन से देवेश को एक तिरष्कार, जो कभी मोहल्ले के दूसरे बच्चों या उनके पालकों द्वारा झिड़की भरे अंदाज से मिलता रहा था. इस वजह से देवेश का बचपन हमेशा एक डर और निरंतर टूटे हुए आत्मबल में गुजरा. इन्ही मापदंडों के अनुसार अपनी पहचान को तरसते, आज वो बड़ा हो चुका है. निकला है एक सामजिक कार्यक्रम में शामिल होने को, अपनी एक पहचान और बहुत सारा आत्मबल लेकर.... भीड़ में जो उसे पहचानते है वो लोग उसे अनदेखा कर रहे थे . और जो उसे नही पहचानते , वो लोग जानने की कोशिश में लगे हुए है.....
“अरे..!…
ContinueAdded by जितेन्द्र पस्टारिया on July 29, 2014 at 11:16am — 24 Comments
“ अरे! बेटा..तैयार हो रहे हो. अगर बाहर तक जा रहे हो तो अपने पिता कि दवाई ले आओ, कल कि ख़त्म हुई है”
“ अरे! यार मम्मी!! मैं जब भी बाहर निकलता हूँ , आप टोंक देती हो. आपको पता है न, हमारी पूरी एन.जी.ओ. की टीम पिछले हफ्ते से गरीब और असहाय लोगों कि सहायता के लिए गाँव-गाँव घूम रही है. शायद ! आप जानती नही हो, अभी मेरी सबसे बढ़िया प्रोग्रेस है पूरी टीम में ”
जितेन्द्र ‘गीत’
(मौलिक व् अप्रकाशित)
Added by जितेन्द्र पस्टारिया on July 26, 2014 at 1:30pm — 26 Comments
" अरे..! आओ बेटा रजनी, और सुनाओ कैसी हो..? . बड़े दिनों बाद आना हुआ.. अरे हाँ तुमने अपने बेटे , बिट्टू को नही लाई. वो वहां तुम्हारे बिन रोयेगा तो.." राधेश्याम जी ने अखबार के पन्नो की घड़ी करते हुए कहा
" प्रणाम चाचाजी....सब कुछ कुशल है.. बिट्टू तो बहुत परेशान करने लगा था , दिन भर मम्मी मम्मी ..!! . मैंने उसे टेलीविजन का ऐसा शौक लगाया है की, उसे मेरी बिलकुल भी जरुरत नहीं. शाम तक आराम से जाउंगी.." रजनी ने बड़ी चैन की सांस लेते हुए…
ContinueAdded by जितेन्द्र पस्टारिया on July 16, 2014 at 8:26pm — 20 Comments
“बेटा..! ऐसा मत कर, फेंक दे ये ज़हर की बोतल I ले हमने जमीन के कागज़ पर दस्तख़त कर दिए हैं. जा, अब मर्ज़ी इसे बेच या रख। बस अपनी पत्नी और बच्चों के साथ ख़ुशी से रह । हमारा क्या है बेटा, हम कुछ दिन के मेहमान हैं,जी लेंगे जैसे-तैसे...” माँ रुंधे हुए गले से कहा.
सभी निगाहें बेटे पर केंद्रित थीं जो जहर की बोतल को आँगन में ही फेंक दस्तखत किये हुए कागजों को समेटने में व्यस्त था. लेकिन उसी बोतल को उठाकर अपनी कोठरी में ले जाते बापू पर किसी की भी नज़र नही पडी थी.
…
ContinueAdded by जितेन्द्र पस्टारिया on July 11, 2014 at 11:30am — 30 Comments
आज कुछ....
आहट सी हुई, उस बंद
वीरान अन्धेरें से कोने में
जहाँ कभी
खुशियों की रौशनी थी
क्यों..?
आज उस बेजान लगने वाली
बंजर भूमि में
नमी सी आ गई
और दिखने लगा
एक आशा का अंकुरण
उस अंकुर में
जो कभी
हमने मिल कर
बोया था
हमारे वर्तमान और भविष्य
की छाँव
और फल के लिए
हाँ..! कुछ तो बाकी है
जो अमिट रहा
शायद....!
यही तो रिश्ता होता…
ContinueAdded by जितेन्द्र पस्टारिया on July 2, 2014 at 2:05am — 10 Comments
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