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Santlal Karun's Blog – August 2014 Archive (2)

मंच-दाँ रहनुमा

तुम हुए मंच-दाँ जब से मन निहाई हो गया

यों मगर खाली निहाई पीटने से क्या हुआ |

सोन-माटी के कबाड़े क्यों नजर आते नहीं

सिर्फ़ बातों की हथौड़ी से धरा सब रह गया |

           

तुम हुए रहनुमा मकसद घर से बाहर चल पड़े   

पर तुम्हारी रहबरी ने…

Continue

Added by Santlal Karun on August 18, 2014 at 5:00pm — 18 Comments

बिच्छू के डंक-से ये दिन

बिच्छू के डंक-से दिन ये खलते रहे

सर्प के दंश-सी रातें खलती रहीं

बंद पलकों में ले दर्द सारा पड़े

नव सृजन-सर्ग की आस पलती रही  |

 

अहं से हृदय काँटा हुआ जा रहा

द्वेष-दावाग्नि घर-बार पकड़े हुए

भोग की यक्ष्मा भीतर घर कर गई

रात-दिन बुद्धि के ज्वर से हम तप रहे

जैसे बढ़ते ज़हरबाद का हो असर

क्रूरता-नीचता मन की बढ़ती रही |

 

आँख काढ़े-सा शैतान विज्ञान का

पीसकर दाँत आगे खड़ा हो रहा

महामारी-सा रुतबा है आतंक…

Continue

Added by Santlal Karun on August 11, 2014 at 2:30pm — 4 Comments

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