तुम हुए मंच-दाँ जब से मन निहाई हो गया
यों मगर खाली निहाई पीटने से क्या हुआ |
सोन-माटी के कबाड़े क्यों नजर आते नहीं
सिर्फ़ बातों की हथौड़ी से धरा सब रह गया |
तुम हुए रहनुमा मकसद घर से बाहर चल पड़े
पर तुम्हारी रहबरी ने…
ContinueAdded by Santlal Karun on August 18, 2014 at 5:00pm — 18 Comments
बिच्छू के डंक-से दिन ये खलते रहे
सर्प के दंश-सी रातें खलती रहीं
बंद पलकों में ले दर्द सारा पड़े
नव सृजन-सर्ग की आस पलती रही |
अहं से हृदय काँटा हुआ जा रहा
द्वेष-दावाग्नि घर-बार पकड़े हुए
भोग की यक्ष्मा भीतर घर कर गई
रात-दिन बुद्धि के ज्वर से हम तप रहे
जैसे बढ़ते ज़हरबाद का हो असर
क्रूरता-नीचता मन की बढ़ती रही |
आँख काढ़े-सा शैतान विज्ञान का
पीसकर दाँत आगे खड़ा हो रहा
महामारी-सा रुतबा है आतंक…
ContinueAdded by Santlal Karun on August 11, 2014 at 2:30pm — 4 Comments
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