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राज़ नवादवी's Blog – September 2016 Archive (3)

राज़ नवादवी: एक अंजान शायर का कलाम- ४४

गैर ही तू सही तेरा असर तो बाक़ी है 

लज्ज़तेयाद का वीराना घर तो बाक़ी है

माना मंजिल नहीं इश्बाह की हासिल मुझको 

पैरों के वास्ते इक रहगुज़र तो बाक़ी है

तेरे सीने की आग बुझ गई तो क्या कीजे 

मेरे सीने में धड़कता जिगर तो बाक़ी है

सोज़िशें रोज़ की जीने नहीं देतीं मुझको 

क्या करें साँसों का लंबा सफ़र तो बाक़ी है

तेरी साँसें भी हैं मलबूस मेरी साँसों से 

मेरे भी सीने में तेरा ज़हर तो बाक़ी…

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Added by राज़ नवादवी on September 28, 2016 at 12:26pm — No Comments

राज़ नवादवी: एक अंजान शायर का कलाम- ४3

रोज़मर्रा की ज़रुरत बद से बदतर हो गई 

दाल-रोटी ही हमारा अब मुक़द्दर हो गई

फ़िक्र में आलूदगी ही हर घड़ी का काम है 

रात को दो गज ज़मीं ही मेरा बिस्तर हो गई

सूखी कलियों की तरह हर ख़्वाब ही कुम्हला गया 

धूप यूँ हालातेनौ की नोकेनश्तर हो गई

जिस्म भी अब थक गया है सांस भी अब बोझ है 

मेरे कदमों की गराँबारी ही ठोकर हो गई

यास की तारीकियों से यूँ हुई रौशन हयात 

ज़ुल्मतेवीराँ से मेरी जाँ मुनव्वर हो…

Continue

Added by राज़ नवादवी on September 28, 2016 at 12:00pm — No Comments

राज़ नवादवी: एक अंजान शायर का कलाम- ४२

रुख्सत/विदाई/ Departure

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साथ रहते हैं मेरे गम मैं जहां जाता हूँ

अब दरीचे पे ही रहता हूँ कहाँ जाता हूँ

 

हाय रे ये ज़िल्लतें जीने नहीं देतीं मुझे

मैं ज़मीं को छोड़कर अब आसमाँ जाता हूँ

 

अलविदा ऐ दोस्तोअहबाब हैं जिनके करम

ऐ मेरे प्यारे वतन हिन्दोस्ताँ जाता हूँ

 

दुःख न करना मेरा कोई पैकरेअल्ताफ़ में

मैं फ़लक के पार सू-ए-गुलसिताँ जाता हूँ

 

कुछ अधूरे ख़्वाब हैं…

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Added by राज़ नवादवी on September 27, 2016 at 5:30pm — No Comments

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