ओढ़नी ओढ़ कर मैं पिया प्रेम की
प्रार्थना कर रही, चाँद वरदान दे
मन महकता रहे प्रीत की गंध से
दो हृदय एक हों प्रेम के बंध से
प्रीत अक्षय सदा भाग्य अनुपम मिले
जिस्म दो हैं मगर एक ही जान दे...
ओढ़नी ओढ़ कर...
मैं पिया के हृदय में सदा ही रहूँ
वो ही सागर मेरे, मैं नदी सी बहूँ
चाँद, हर इक नज़र से बचाना उन्हें
दीर्घ आयु सदा मान-सम्मान दे
ओढ़नी ओढ़ कर...
मेंहदी हाथ में रच महकती रहे
और लाली…
ContinueAdded by Dr.Prachi Singh on October 30, 2015 at 2:30pm — 18 Comments
मूक अंतर्वेदना स्वर को तरसती रह गयी
आँख सागर आँसुओं का सोख पीड़ा सह गयी
मानकर जीवन तपस्या अनवरत की साधना
यज्ञ की वेदी समझ आहूत की हर चाहना
मन हिमालय सा अडिग दावा निरा ये झूठ था
उफ़! प्रलय में ज़िंदगी तिनके सरीखी बह गयी
मूक अंतर्वेदना....
खोज कस्तूरी निकाली रेडियम की गंध में
स्वप्न का आकाश भी ढूँढा कँटीले बंध में
दिख रही थी ठोस अपने पाँव के नीचे ज़मीं
राख की ढेरी मगर थी भरभरा कर ढह गयी
मूक…
ContinueAdded by Dr.Prachi Singh on October 26, 2015 at 9:30am — 11 Comments
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