उन से कह दो खतों में महक ना रखें
मेरी चाहत पे इतना भी शक ना रखें
चाँद छुप जाएगा रात रुक जायेगी
अपनी आँखों में इतनी चमक ना रखें
जिक्र उसका चले, हाल पूछें मेरा
मेरे जख्मों पे ऐसे नमक ना रखें
मेरा बनना है उनको तो बन जायें वो
मेरे बन जायें तो मुझ पे हक ना रखें
दीद-ऐ-महबूब जितना मिला लूट लें
और उम्मीद फिर मौत तक ना रखें
चाँद ने खुद् निहारा जो शब् भर हमें
क्यों कदम फिर हमारे बहक ना रखें
मैं भी लो छोड़ दूं जिक्र शहनाई…
Added by Pushyamitra Upadhyay on October 20, 2012 at 10:19pm — 1 Comment
देखा है कई बार
अनीति के बढ़ते क़दमों को
शिखर तक जाते हुए
देखा है कई बार
दुष्टों को....सूर्य पर मंडराते हुए
किन्तु कभी नहीं सोचा
कि होकर शामिल उनमें
मैं भी पाऊं सामीप्य गगन का/
ना ही सोचा कि मैं छोडूं
धरा नीति की
और विराजूं उड़ते रथ में/
है भीतर कुछ ऐसा बैठा
देता नहीं भटकने पथ में/
हे ईश् मेरे कहीं वो तुम तो नहीं
देखा है कई बार
सत्य को युद्धरत/
क्षत विक्षत...आहत/
सांस तक लेने के…
Added by Pushyamitra Upadhyay on October 17, 2012 at 10:23pm — 4 Comments
यूं ही तोड़ लिया था उस दिन,
एक सफ़ेद गुलाब बागीचे से,
मैंने तुम्हारे लिए/
कि सौंप कर तुम्हें..
तुमसे सारे भाव मन के
कह दूंगा,
नीली नीली स्याही सा
कोरे कागज़ पर बह दूंगा/
हो जाऊँगा समर्पित ,
पुष्प की तरह/
फिर तुम ठुकरा देना
या अपना लेना/
मगर फिर तुम्हारे सामने...
शब्द रुंध गये/
स्याही जम गयी/
धडकनें बढ़ गयीं/
सांस थम गयी/
मैं असमर्थ था ..
तुम्हरी आँखों के सुर्ख सवालों,
का उत्तर देने में/
या कि उस लिखे हुए उत्तर के…
Added by Pushyamitra Upadhyay on October 11, 2012 at 9:12am — 10 Comments
न जाने कबसे,
जारी है ये वहशत/
ये खिलवाड़ लफ़्ज़ों से,
न जाने कब छुआ था,
कागज़ का बदन स्याही से मैंने?
उसके जाने के बाद तो नहीं!
उसके मिलने से पहले भी नहीं!
वहशत है तो,
आगाज़ खुशियों से हुआ होगा/
शायद तब...जब
उसने नज़रों से छुआ होगा/
लब्ज़ बस रास्ते ही होंगे,
मंजिल बस वो होगी,
अहसास बेताब होंगे/
हसरतें मचतली होंगी/
दिल बहकता होगा,
धडकनें संभलती होंगी/
बहुत वक़्त बीत गया है
बहुत सफ़र बीत गया है
याद भी नहीं मुझे
न…
Added by Pushyamitra Upadhyay on October 4, 2012 at 10:32pm — 4 Comments
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