दर्द सारे ज़ख्म बन कर ख़ुद-नुमा हो ही गये,
राज़-ए-पोशीदा थे आख़िर बरमला हो ही गये..
तू ना समझेगा हमें थी कौन सी मजबूरियाँ,
तेरी नज़रों में तो अब हम बे-वफ़ा हो ही गये..
इश्क़ क्या है, क्या हवस है और क्या है नफ़्स ये,
उठते उठते ये सवाल अब मुद्द'आ हो ही गये..
एक मुददत बाद उस का शहर में आना हुआ,
बे-वफ़ा को फिर से देखा औ फ़िदा हो ही गये..
फिर सुख़न में रंग आया उस ख़्याल-ए-ख़ास का,
फिर ग़ज़ल के शेर सारे मरसिया हो ही…
Added by Zohaib Ambar on October 21, 2018 at 2:45am — 1 Comment
सुन कर ये तिरी ज़ुल्फ़ के मुबहम से फ़साने,
दश्ते जुनुं में फिरते हैं कितने ही दीवाने..
कब साथ दिया उसका दुआ ने या दवा ने,
आशिक़ को कहाँ मिलते हैं जीने के बहाने..
मुमकिन है तुम्हें दर्स मिले इनसे वफ़ा का,
पढ़ते कुँ नहीं तुम ये वफ़ाओं के फ़साने..
इस दौर के गीतों में नहीं कोई हरारत,
पुर-सोज़ जो नग़में हैं वो नग़में हैं पुराने..
इस इश्क़ मुहब्बत में फ़क़त उन की बदौलत,
ज़ोहेब तुम्हें मिल तो गये ग़म के…
Added by Zohaib Ambar on October 21, 2018 at 2:30am — 3 Comments
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