122 122 122 12
उठे हैं किसी को गिरा के मियाँ
चले पाग सर पे सजा के मियाँ।1
कहा था, डरेगा न कोई यहाँ
रहे खुद को हाफ़िज बना के मियाँ।2
रहेगा न सूखा शज़र एक भी--
कहें नीर सारा सुखा के मियाँ।3
मिटी भूख उनकी हुए सब सुखी
चहकते चले माल खा के मियाँ।4
किये लाख सज़दे, मिले कब सनम?
गये थे कभी सर नवा के…
Added by Manan Kumar singh on October 29, 2018 at 7:15am — 10 Comments
2122 2122 2122 212
था कभी कितना नरम वह! हर कदर आखर हुआ
जब हवाओं ने छुआ तब पात वह जर्जर हुआ।1
सूख जाती है सियाही आजकल जल्दी यहाँ
ख्वाहिशों के फ़लसफों पे आदमी निर्झर हुआ।2
मिट्टियों की कौन करता है यहाँ पड़ताल भी
हर शज़र गमला सजा आकाश पर निर्भर हुआ।3
जो उड़ाता था वहाँ बेपर घटाओं को कभी
देखते ही देखते वह आजकल बेपर हुआ।4
वक्त की मदहोशियाँ क्या-क्या करा देतीं यहाँ
गर्द के बस ढ़ेर जैसा एक दिन अकबर हुआ।5
"मौलिक व अप्रकाशित"
Added by Manan Kumar singh on October 23, 2018 at 10:00am — 5 Comments
122 122 122 12
डरे जो बहुत,बुदबुदाने लगे
मसीहे,लगा है, ठिकाने लगे।1
तबाही का' आलम बढ़ा जा रहा
चिड़ी के भी' पर फड़फड़ाने लगे।2
नचाते रहे जो हसीं को बहुत
सलीके से' नजरें चुराने लगे।3
नहीं कुछ किया,कहते' आँखें भरीं
गये वक्त अब याद आने लगे।4
उड़ाते न तो कोई' उड़ता कहाँ?
यही कह सभी अब चिढ़ाने लगे।5
"मौलिक वअप्रकाशित"
Added by Manan Kumar singh on October 15, 2018 at 9:53pm — 6 Comments
बाज
--
चिड़िया ने पंख फड़फड़ाये।उड़ने को उद्यत हुई।उड़ी भी,पर पंख लड़खड़ा गये।उसे सहसा एक झोंका महसूस हुआ।।वह गिरते-गिरते बची,उसमें कुछ दूर उड़ती गयी।वह एक बड़ा पंख था,जो उसे हवा दे रहा था।वह उड़ती जा रही थी।कभी-कभी उसे उस बड़े पंख का दबाव सताता।वह कसमसाती,पर और ऊपर तक उड़ने की ख्वाहिश और जमीन पर गिरने के भय में टंगी वह घुटी भी,उड़ी भी......उड़ती रही।ऊँची शीतल हवाओं का सिहरन भरा स्पर्श उसे आंनदित करता।वह उस कंटकित पंख की चुभन जनित अपने सारे दुःख-दैन्य भूलकर उड़ती रही,तबतक जबतक उसे एक ऊँचाई न मिल…
Added by Manan Kumar singh on October 12, 2018 at 1:30pm — 16 Comments
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