अब हद हो गयी आजमाने की,
मेरे बुलाने की, तेरे न आने की।
रहे छुपाते अपनी-अपनी कबसे,
पर्दाशुदा हुआ नजर ज़माने की।
बेदम पड़ी ख्वाहिशें भी देख लो,
तेरी पाने की,अपनी लुटाने की।
कितना कहें शेर? फिजां तेरे रुत
में आने की,मेरे कसम निभाने की।
अपनी खुदी खुद मिटा माँगता मैं
कुछ तेरी नेमतें गले लगाने की।
@मनन (मौलिक व अप्रकाशित)
Added by Manan Kumar singh on November 24, 2014 at 10:33pm — 7 Comments
नाटिका
ग्राम –महोत्सव गरिमा बिखेर रहा था । लक –दक सजावट, बार –बालाओं की अठखेलियाँ, हास्य कलाकारों के करतब गज़ब ढाये हुए थे । सोम –रस की सरिता जन से लेकर प्रतिनिधि तक को सराबोर किये थी । शीत ऋतु में उष्णता का अहसास ऐसा ही होता है। तन आधे –अधूरे ढँके होने से क्या? मन की उमंगों पर कोई लगाम न होनी चाहिए । हर तरफ मादकता छितरायी –सी जाती है, जो जितना लपक -झटक ले। एक पत्रकार ने नेताजी से मुखातिब हो सलाम ठोंका । नेताजी मुँह बिचकाते –बिचकाते रह गये ।कैमरे…
ContinueAdded by Manan Kumar singh on November 14, 2014 at 7:54am — 3 Comments
हथेली
अभी –अभी बुद्धिजीवियों की नगरी में सत्ता का चुनाव हुआ । किसी दल को जरूरी बहुमत नहीं हासिल हुआ । सत्ता –दल धूल फाँकता नजर आया ।वह चुने हुए प्रतिनिधियों की संख्या के आधार पर तीसरे स्थान पर रहा । पहले सबसे बड़े दल की उम्मीदों पर झाडू फिर गया, हसरतों का फूल मुरझाते –मुरझाते बचा । । एक नवोदित दल को सदन में संख्या के अनुसार दूसरा दर्जा प्राप्त हुआ । अब सरकार बने तो कैसे ? शासन –कार्य कौन देखेगा ?सत्ता –च्युत दल ने विपक्ष में बैठने की अपनी बात कही । दूसरे दर्जे वाले…
ContinueAdded by Manan Kumar singh on November 13, 2014 at 9:02am — 11 Comments
एक छईण्टी आलू
बात पुरानी है , गाँव से जुड़ी हुई । बटेसर के काका यानि पिताजी विद्या बोले जाते थे । सब उनको बाबा कहते तथा बटेसर को काका । लिखने –पढ़ने के नाम पर बाबा का बस अंगूठे के निशान से ही काम चल जाता था , पर अच्छे –अच्छों को बातों में धूल चटा देना उनके बायें हाथ का खेल था ।बथान में बैलों को सानी (खाना –पानी ) दे रहे बटेसर से बात करते –करते भोला को कुछ याद आया, तो वह कुएँ से पानी निकलते बाबा की ओर मुड़कर बोला , ‘ बाबा ! उ महेसर भाई के आलू…
ContinueAdded by Manan Kumar singh on November 12, 2014 at 9:00am — 7 Comments
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