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Pooja yadav's Blog – November 2014 Archive (5)

अस्तित्व (लघु कथा )

रूढ़ीवादी परिवार का विनय अपनी पत्नी को बेहद प्यार करता था और आज तक उसकी हर छोटी-बड़ी खुशी का ख्याल रखता आया था लेकिन आज जब घर लौटा तो नीति ने नौकरी की बात छेड़ दी।



-"अच्छी कम्पनी है और सैलरी भी । टाइमिँग्स भी ऐसी हैँ कि घर की देखरेख मेँ भी कोई प्रॉब्लम नही होगी, फिर क्या प्रॉब्लम है?"



-"नीति जब मेरी सैलरी से घर अच्छे से चल रहा है तो तुम्हे नौकरी करने की क्या ज़रूरत है?

क्या तुम्हे कोई कमी है मेरे साथ ?"



-"नही विनय बल्की आपके साथ तो मैँ बहुत खुश… Continue

Added by pooja yadav on November 17, 2014 at 9:52pm — 18 Comments

गिल्लू (कहानी)

कुछ दो-चार मरीजोँ, नर्स एक बड़ी-सी खिड़की और क्रीम कलर के बड़े-बड़े पर्दोँ के अलावा उस अस्पताल मेँ मेरे लिए देखने

लायक कुछ भी नही था। ऑपरेशन के तुरन्त बाद मैँ अपने बिस्तर पर पड़ी कराह रही थी। कुछ ग्लूकोज़ की बूँदेँ जो नलियोँ के सहारे रिस-रिस कर मेरे हाथ से होती हुई मेरे शरीर मेँ शामिल हो जाती थी, ने मेरे हाथ को किसी पत्थर की तरह भारी और ठण्डा कर दिया था और मैँ कम्बल से ढ़ककर इसे गरम रखने का नाकाम प्रयास करती। पैर अभी भी सुन्न थे पर कमर का दर्द मुझे अन्दर तक तोड़ देता था मानो मेरी जीजिविषा को…

Continue

Added by pooja yadav on November 17, 2014 at 3:30pm — 9 Comments

दवाईयाँ (कहानी)

हमेशा चुस्त दुरूस्त रहने वाले त्यागी जी को अचानक पेट मेँ दर्द की शिकायत हुई। कुछ ज़रूरी परीक्षणोँ के बाद ईलाज की आवश्यकता महसूस हुई किन्तु समस्या यह थी कि वे अंग्रेज़ी दवाइयोँ पर कम ही भरोसा करते थे अतः हौम्योपैथिक विधि से इलाज शुरू हुआ। जिसमेँ चार दवाएँ एक एक घण्टे के अंतराल पर सुबह शाम 20 दिन तक लेनी थी।

उस समय उनकी श्रीमती जी शहर मेँ नही थी अतः वे फोन पर नियमित रूप से पूछताछ करतीँ-

-"आपने दवाईयाँ ले ली?"

-"हाँ। ले ली, पर तुम कभी खाने के बारे मेँ भी पूछ लिया करो। खाना खाने के बाद… Continue

Added by pooja yadav on November 12, 2014 at 1:00pm — 10 Comments

भविष्य (लघुकथा)

महज 12 वर्ष की कच्ची उम्र मेँ ही परिस्थितियोँ मेँ ढल गया था वो। जिस उम्र मेँ बच्चोँ को खेल खिलौनोँ सैर सपाटोँ का शौक होता है उस उम्र मेँ मोहन को बस एक ही शौक था- पढ़ने का। पढ़ाई मेँ तेज मोहन बड़ा ही महत्वाकांक्षी बालक था। लेकिन वक्त की ये टेढी-मेढी गलियाँ कब, किसे, ज़िन्दगी का कौन सा मोड़ दिखा देँ कौन जाने ? ऐसी ही किसी गली के मोड़ पर मोहन ने वो गरीबी देखी जिसमेँ दो जून का भोजन भी मुश्किल होता था और स्कूल तो दूर-दूर तक दिखाई न पड़ता था। पर मोहन भला कैसे हार मानता ? उसे तो बड़ा आदमी बनना था। इस सुखद…

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Added by pooja yadav on November 11, 2014 at 1:00am — 15 Comments

बराबरी (लघुकथा)

"दो लड़कियाँ तो पहले ही थी, अब ये एक और हो गई।" उसने बड़ी मायूसी से कहा।
"तू चिन्ता मत कर कमला। आजकल की लड़कियाँ किसी भी चीज़ मेँ पीछे नही हैँ।, हर काम बराबर से करती हैँ, बल्कि माँ बाप के लिए जितना लड़कियाँ करती हैँ उतना तो आजकल लड़के भी नही करते।" सरोज ने अपनी पड़ोसन को समझाते हुए कहा।
"तू ठीक ही कहती है सरोज।  अरे हाँ याद आया,  तेरी बहू भी तो पेट से है न? कौन सा महीना है?"
"पाँचवा महीना है। अगर ठाकुर जी की कृपा रही तो पोता ही होगा।"

"पूजा"
अप्रकाशित एवं मौलिक

Added by pooja yadav on November 5, 2014 at 12:00pm — 13 Comments

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