कुछ दो-चार मरीजोँ, नर्स एक बड़ी-सी खिड़की और क्रीम कलर के बड़े-बड़े पर्दोँ के अलावा उस अस्पताल मेँ मेरे लिए देखने
लायक कुछ भी नही था। ऑपरेशन के तुरन्त बाद मैँ अपने बिस्तर पर पड़ी कराह रही थी। कुछ ग्लूकोज़ की बूँदेँ जो नलियोँ के सहारे रिस-रिस कर मेरे हाथ से होती हुई मेरे शरीर मेँ शामिल हो जाती थी, ने मेरे हाथ को किसी पत्थर की तरह भारी और ठण्डा कर दिया था और मैँ कम्बल से ढ़ककर इसे गरम रखने का नाकाम प्रयास करती। पैर अभी भी सुन्न थे पर कमर का दर्द मुझे अन्दर तक तोड़ देता था मानो मेरी जीजिविषा को खत्म ही करना चाहता था। जब और बर्दाश्त करना नामुकिन हो गया तो मैँने दर्द से तड़पते हुए कहा-
"दीदी मुझे बहुत दऽऽऽर्द...." इतना सुनते ही उस नर्स ने कुछ छोटी-बड़ी दवाईयाँ मेरे मुँह मेँ डाल दी।
-"थोड़ी देर मेँ नीँद आ जाएगी कहकर वो चली गई।"
पर लम्बी बेहोशी के कारण मेरी आँखोँ मेँ नीँद का कोई नाम नही था। बस हताशनिरा-श सी किसी के आने की आस मेँ दरवाज़े को ताकती रहती, पर कौन आता? को अंदर जाने जी आज्ञा नहीं थी अत: मैँ असहाय-सी परिचारिकाओँ के निर्देश मानने को मजबूर थी। जब कुछ नही सूझा तो मैँने फोन मेँ एक नम्बर डायल किया। अभी घण्टी जा ही रही थी कि समय पर नज़र पड़ी।
आह! 12:35 सो गई होगी और मैँने लाल बटन दबा दिया। एक बार फिर हताश-सी होकर उस अकेलेपन से बचने के लिए मैँ आँखेँ मूँदे उसे याद कर ही रही थी कि पास ही रखा मेरा फोन घनघना उठा।
-"हैलो गिल्लू। तू जाग रही थी?"
-"हाँ। पढ़ रही थी। तूने फोन किया न? कैसी है तू और ऑपरेशन कब है?"
-"हो गया वो तो आज ही। गिल्लू मुझे बहुत दर्द हो रहा है। मैँ क्या करूँ?"
आँसुओँ का वो बाँध जो मैँने अब तक सम्हाल रखा था इतना कहते ही अपनी सीमाएँ तोड़कर बहने लगा।
-"डॉक्टर ने क्या कहा? अब तू ठीक तो हो जाएगी न। देख ऐसे रो मत वरना मैँ भी रोने लगूँगी।"
-"नही न, तू मत रो। गिल्लू तू प्लीज़ आ जा ना मेरे पास।"
-"हाँ, तू चुप हो मैँ कल आती हूँ।
-"पक्का न?"
-"हाँ एकदम पक्का।"
यूँ आश्वस्त करके जैसे उसने मेरा सारा दर्द खीँच लिया था या यूँ कहूँ कि दर्द तो उतना ही था पर उसका एहसास कुछ कम हो गया।
"पूजा"
"मौलिक एवं अप्रकाशित"
Comment
dhanyawaad laxman ji.......
संवेदना भरी मार्मिक कहानी अच्छी लगी | आपको हार्दिक बधाई
कहानी कहने का बहुत सुन्दर प्रयास किया है पूजा यादव जी, बधाई स्वीकारें। मंच रहें एवं सुधीजनों की बातों का संज्ञान लें। शीर्षक किसी भी रचना का मुखड़ा हुआ करता है, प्रयास करें कि इसका रूप परिपक्व और साहित्यिक ही रहे।
पूजा जी संवेदना को आपने करीने से सहेजा है i इसलिए कथा प्रभावपूर्ण है i
सही बात है वक़्त पे रोने को किसी अपने का कांधा मिल जाए तो दर्द कम हो जाता है या आहसास कम हो जाता है ..बहुत अच्छी कहानी ,बधाई आपको पूजा जी
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