मदिरा सवैता [भगण (२११) x ७ + गु]
पाँच विधानसभा फिर भंग हुई, नव रूप बुने जनता
राज्य हुए फिर उद्यत आज नयी सरकार चुने जनता
शासन और प्रशासन हैं नतमस्तक, आज गुने जनता
तंत्र चुनाव विशिष्ट लगे.. जनता कहती, कि सुने जनता..
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-सौरभ
Added by Saurabh Pandey on February 13, 2017 at 10:47pm — 13 Comments
१२२२ १२२२ १२२
इन आँखों में जो सपने रह गये हैं
बहुत ज़िद्दी, मगर ग़मख़ोर-से हैं
अमावस को कहेंगे आप भी क्या
अगर सम्मान में दीपक जले हैं
अँधेरों से भरी धारावियों में
कहें किससे ये मौसम दीप के हैं
प्रजातंत्री-गणित के सूत्र सारे
अमीरों के बनाये क़ायदे हैं
उन्हें शुभ-शुभ कहा चिडिया ने फिर से
तभी बन्दर यहाँ के चिढ़ गये हैं
उमस बेसाख़्ता हो, बंद कमरे-
कई लोगों को फिर भी जँच रहे हैं …
Added by Saurabh Pandey on October 20, 2016 at 4:00am — 26 Comments
लोगों से अब मिलते-जुलते
अनायास ही कह देता हूँ--
यार, ठीक हूँ..
सब अच्छा है !..
किससे अब क्या कहना-सुनना
कौन सगा जो मन से खुलना
सबके इंगित तो तिर्यक हैं
मतलब फिर क्या मिलना-जुलना
गौरइया क्या साथ निभाये
मर्कट-भाव लिए अपने हैं
भाव-शून्य-सी घड़ी हुआ मन
क्यों फिर करनी किनसे तुलना
कौन समझने आता किसकी
हर अगला तो ऐंठ रहा है
रात हादसे-अंदेसे में--
गुजरे, या सब
यदृच्छा है !
आँखों में कल…
Added by Saurabh Pandey on September 15, 2016 at 5:30pm — 23 Comments
2122 2122 2122 212
एक दीये का अकेले रात भर का जागना..
सोचिये तो धर्म क्या है ?.. बाख़बर का जागना !
सत्य है, दायित्व पालन और मज़बूरी के बीच
फ़र्क़ करता है सदा, अंतिम प्रहर का जागना !
फ़िक्रमन्दों से सुना, ये उल्लुओं का दौर है
क्यों न फिर हम देख ही लें ’रात्रिचर’ का जागना ।
राष्ट्र की अवधारणा को शक्ति देता कौन है ?
सरहदों पर क्लिष्ट पल में इक निडर का जागना !
क्या कहें, बाज़ार तय करने लगा है ग़िफ़्ट भी
दिख रहा…
Added by Saurabh Pandey on September 5, 2016 at 1:30pm — 22 Comments
२२१ २१२१ १२२१ २१२
पगडंडियों के भाग्य में कोई नगर कहाँ ?
मैदान गाँव खेत सफ़र किन्तु घर कहाँ ?
होठों पे राह और सदा मंज़िलों की बात
पर इन लरजते पाँव से होगा सफ़र कहाँ ?
हम रोज़ मर रहे हैं यहाँ, आ कभी तो देख..
किस कोठरी में दफ़्न हैं शम्सो-क़मर कहाँ ?
सबके लिए दरख़्त ये साया लिये खड़ा
कब सोचता है धूप से मुहलत मगर कहाँ !
जो कृष्ण अब नही तो कहाँ द्रौपदी कहीं ?
सो, मित्रता की ताब में कोई असर कहाँ ?
क़ातिल…
Added by Saurabh Pandey on August 16, 2016 at 4:00pm — 27 Comments
गाय हमारी माता है
हमको कुछ नहीं आता है..
हमको कुछ नहीं आता है
कि, गाय हमारी माता है !
गाय हमारी माता है
और हमको कुछ नहीं आता है !?
जब गाय हमारी माता है
हमको कुछ क्यों नहीं आता है ?
गाय हमारी माता है
फिरभी हमको कुछ नहीं आता है !
फिर क्यों गाय हमारी माता है..
जब हमको कुछ नहीं आता है ?
तो फिर, गाय हमारी कैसी माता है
कि हमको कुछ नहीं आता है ?
चूँकि गाय हमारी माता है..
क्या…
Added by Saurabh Pandey on August 6, 2016 at 1:30am — 19 Comments
२१२२ २१२२ २१२२
फ़र्क करना है ज़रूरी इक नज़र में
बदतमीज़ों में तथा सुलझे मुखर में
शांति की वो बात करते घूमते हैं
किन्तु कुछ कहते नहीं अपने नगर में
शाम होते ही सदा वो सोचता है-
क्यों बदल जाता है सूरज दोपहर में
भूल जा संवेदना के बोल प्यारे
दौर अपना है तरक्की की लहर में
हो गया बाज़ार का ज्वर अब मियादी
और देहाती दवा है गाँव-घर में
आदमी तो हाशिये पर हाँफता है
वेलफेयर-योजनाएँ हैं…
Added by Saurabh Pandey on July 1, 2016 at 12:30am — 30 Comments
2122 1212 22/112
ग़ज़ल
=====
आओ चेहरा चढ़ा लिया जाये
और मासूम-सा दिखा जाये
केतली फिर चढ़ा के चूल्हे पर
चाय नुकसान है, कहा जाये
उसकी हर बात में अदा है तो
क्या ज़रूरी है, तमतमा जाये ?
फूल भी बदतमीज़ होने लगे
सोचती पोर ये, लजा जाये
रात होंठों से नज़्म लिखती हो,
कौन पर्बत न सिपसिपा जाये ?
रात होंठों से नज़्म लिखती रही
चाँद औंधा पड़ा घुला…
Added by Saurabh Pandey on May 2, 2016 at 5:30pm — 44 Comments
क्या हासिल हर किये-धरे का ?
गुमसी रातें
बोझिल भोर !
हर मुट्ठी जब कसी हुई है
कोई कितना करे प्रयास
आँसू चाहे उमड़-घुमड़ लें
मत छलकें पर
बनके आस
…
Added by Saurabh Pandey on December 30, 2015 at 2:32am — 6 Comments
221 2122 221 2122
रौशन हो दिल हमारा, इक बार मुस्कुरा दो
खिल जाय बेतहाशा, इक बार मुस्कुरा दो
पलकों की कोर पर जो बादल बसे हुए हैं
घुल जाएँ फाहा-फाहा, इक बार मुस्कुरा दो
आपत्तियों के…
ContinueAdded by Saurabh Pandey on November 4, 2015 at 11:30pm — 24 Comments
अतिशय उत्साह
चाहे जिस तौर पर हो
परपीड़क ही हुआ करता है
आक्रामक भी.
व्यावहारिक उच्छृंखलता वायव्य सिद्धांतों का प्रतिफल है
यही उसकी उपलब्धि है
जड़हीनों को…
ContinueAdded by Saurabh Pandey on September 6, 2015 at 7:30pm — 31 Comments
खिड़कियों में घन बरसते
द्वार पर पुरवा हवा..
पाँच-तारी चाशनी में पग रहे
सपने रवा !
किन्तु इनका क्या करें ?
क्या पता आये न बिजली
देखना माचिस कहाँ है
फैलता पानी सड़क…
Added by Saurabh Pandey on July 4, 2015 at 2:00am — 38 Comments
योग वस्तुतः है क्या ?
===============
इस संदर्भ में आज मनोवैज्ञानिक, भौतिकवैज्ञानिक और विद्वान से लेकर सामान्य जन तक अपनी-अपनी समझ से बातें करते दिख जायेंगे. इस पर चर्चा के पूर्व यह समझना आवश्यक है कि कोई व्यक्ति किसी विन्दु पर अपनी समझ बनाता कैसे है…
ContinueAdded by Saurabh Pandey on June 21, 2015 at 3:30am — 26 Comments
२१२२ १२१२ २२
साफ़ कहने में है सफ़ाई क्या ?
कौन समझे पहाड़-राई क्या ?
चाँद-सूरज कभी हुए हमदम ?
ये तिज़ारत है, ’भाई-भाई’ क्या ?
सब यहाँ जी रहे हैं मतलब से
मैं…
Added by Saurabh Pandey on May 25, 2015 at 11:00am — 52 Comments
मध्य अपने जम गयी क्यों बर्फ़.. गलनी चाहिये
कुछ सुनूँ मैं, कुछ सुनो तुम, बात चलनी चाहिये
खींचता है ये ज़माना यदि लकीरें हर तरफ
फूल वाली क्यारियों में वो बदलनी चाहिये
ध्यान की अवधारणा है, ’वृत्तियों में संतुलन’
उस प्रखरतम मौन पल की सोच फलनी…
Added by Saurabh Pandey on May 6, 2015 at 6:30pm — 40 Comments
221 1222 221 1222
चुपचाप अगर तुमसे अरमान जता दूँ तो !
कितना हूँ ज़रूरी मैं, अहसास करा दूँ तो !
संकेत न समझोगी.. अल्हड़ है उमर, फिर भी..
फागुन का सही मतलब चुपके से बता दूँ तो
ये होंठ बदन बाहें…
Added by Saurabh Pandey on February 26, 2015 at 6:00pm — 16 Comments
फिर-फिर पुलकें उम्मीदों में
कुम्हलाये-से दिन !
सूरज अनमन अगर पड़ा था..
जानो--
दिन कैसे तारी थे..
फिर से मौसम खुला-खुला है..
चलो, गये जो दिन भारी थे..
सजी…
Added by Saurabh Pandey on January 8, 2015 at 2:14pm — 13 Comments
आप कविता लिखते हैं ? .. कौन बोला लिखने को..?
शब्द पीट-पीट के अलाय-बलाय करने को ?
मारे दिमाग़ खराब किये हैं ?
कुच्छ नहीं बदलता.. कुच्च्छ नहीं. ..
इतिहास पढ़े हैं ?
क्या बदला आजतक ? ...
खलसा कलेवर !…
Added by Saurabh Pandey on January 8, 2015 at 12:00am — 16 Comments
2122 2122 2122 212
दिख रही निश्चिंत कितनी है अभी सोयी हुई
गोद में ये खूबसूरत जिन्दगी सोयी हुई
बाँधती आग़ोश में है.. धुंध की भीनी महक
काश फिर से साथ हो वो भोर भी सोयी हुई
चाँद अलसाया निहारे जा…
Added by Saurabh Pandey on December 25, 2014 at 9:30pm — 35 Comments
नये साल के नये माह का
मौसम आया..
लेकिन सूरज भौंचक
कितना घबराया है !
चटख रंग की हवा चली है
चलन सीख कर..
खेल खेलती, बंदूकों के राग सुनाती
उनियाये कमरों में बच्चे रट्टा…
Added by Saurabh Pandey on December 19, 2014 at 3:31am — 20 Comments
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